हरियाणाः जूझते जुझारू लोग -33
शरीर भले ही बूढ़ा हो गया, लेकिन चिर युवा हैं लालचन्द गोदारा
सत्यपाल सिवाच
संघ की संस्थापक एक्शन कमेटी के सदस्य लालचन्द गोदारा सिरसा के नूहियांवाली गांव में श्रीमती चावलीदेवी व चौ. शेराराम के यहाँ 09 दिसंबर 1944 को जन्मे। यह तिथि रिकॉर्ड की है। वे अपना जन्म 1942 का बताते हैं। वे चार भाई और चार बहनें हैं। उनसे अभी जब बात हुई तो सुखद आश्चर्य हुआ कि वे एम. ए. राजनीति शास्त्र की परीक्षा की तैयारी में व्यस्त थे। पिछले साल उन्होंने बी.ए. पास किया है। वे सन् 1969 हरियाणा रोडवेज में चालक पद पर भर्ती हुए थे और 31 दिसंबर 2002 को यार्ड मास्टर पद से सेवानिवृत्त हुए। रोडवेज में आने से पहले वे फौज में रहे। सन् 1962, 1965 और 1971 की लड़ाइयों में शामिल रहे। रोडवेज में लग जाने के बावजूद पुराने सैनिकों को बुला लिया गया था। इसलिए वे 1971 की जंग में शामिल रहे।
लालचन्द गोदारा 1986 में जब सर्वकर्मचारी संघ बना तो रोहतक डिपो के रोडवेज वर्करज यूनियन के प्रधान थे। एक ही यूनियन थी जो इंटक से सम्बद्ध थी। गोदारा उन चालीस-पचास लड़ाकू लोगों में थे जिन्होंने इंटक की परवाह न करते हुए संघ में शामिल होकर संघर्ष किया।
उन्हें शुरुआती दौर में डिपो का प्रधान चुना गया था। जब इंटक को छोड़कर अलग यूनियन बनाई तो उसके अध्यक्ष रहे। सर्वकर्मचारी संघ की एक्शन कमेटी का सदस्य और बाद में राज्य उपाध्यक्ष रहे। उनमें बचपन से ही अगुवा रहने प्रवृत्ति थी। जब सेना में गये तो बहुत बार वहाँ के तनाव को लेकर बगावती विचार आते। रोडवेज लगने पर सक्रियता के कारण स्थानीय साथियों ने उन्हें डिपो में नेता बना दिया।
पहली बार सन् 1974 की हड़ताल में जेल गये। सर्वकर्मचारी संघ के आन्दोलन में दो बार बुड़ैल जेल चण्डीगढ़ में बंद रहे। कुल जेल अवधि 42 दिन है। सन् 1993 के आन्दोलन के दौरान बर्खास्त किया गया था। उत्पीड़न की कार्रवाइयां आन्दोलनों के समझौतों के साथ समाप्त हो गई।
संघ बनने से पहले ही कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के कर्मचारियों की हड़ताल के समर्थन में वहाँ गये थे। मास्टर शेरसिंह व बिश्नोई जी भी उस लड़ाई का समर्थन कर रहे थे। काली कमली मैदान कुरुक्षेत्र में 23 नवंबर 1986 की रैली में भी शामिल हुए। उन्होंने डिपो प्रधान होते हुए भी रोडवेज कर्मचारियों को संघर्ष में उतारने का भरोसा दिलाया था। हमारे साथ सिरसा और रोहतक – दो डिपुओं के कर्मचारी थे। यूनियन के राज्य प्रधान इंटक के जसवंत सिंह थे। सर्वकर्मचारी संघ के आन्दोलन से रोडवेज में संघर्षशील संगठन का निर्माण शुरू हो गया। इसके लिए हमने खुली कन्वेंशन अध्यापक भवन जीन्द में बुलाई थी जिसमें सिरसा व रोहतक के अलावा चुनींदा कार्यकर्ता ही शामिल हुए थे।
सन् 1986-87, 1991, 1993 और 1996-97 तक वे संघ के अग्रणी नेतृत्व में शामिल रहे। इस दौर की तीन बड़ी लड़ाइयां आज भी याद की जाती हैं। सन् एस.के.एस. का संघर्ष 1986-87, सन् 1993 का ज्वाइंट एक्शन कमेटी और 1996-97 का पालिका आन्दोलन अपने आप में बड़ी जंग थी जिनमें शासन और कर्मचारी दोनों ने जी-जान की बाजी लगा दी थी।
उनका कहना था कि घर से बाहर होने पर पत्नी ने बहुत कुशलता से घर संभाला। कभी मेरा या संगठन का विरोध नहीं किया। बड़ा बेटा साहबराम तो छात्र रहते हुए एस.एफ.आई. और नाटक टीम में जुड़ गया था। बीच वाला अमरसिंह और छोटा दलबीर सिंह भी सहयोगी रहे। अब तीन पोते और दो पोतियां हैं। सच कहूं, इस उम्र में मेरे पढ़ने की प्रेरणा का स्रोत पोतियां ही हैं।
गोदारा जी के चौधरी देवीलाल और उनके परिवार से अच्छे रिश्ते रहे। सन् 1987 में सत्ता में आने के बाद ओमप्रकाश चौटाला ने उन्हें सर्वकर्मचारी संघ छोड़कर लोक मजदूर संघ (एल.एम.एस.) बनाने के लिए कहा था। उन्होंने वह नहीं माना। इससे ओमप्रकाश चौटाला उनसे खफा ही रहे। अधिकारियों से भी संपर्क रहे। यूनियन के स्तर सामूहिक काम तो बहुत लिए लेकिन कभी स्वार्थ के लिए जाने की नौबत नहीं आई।
गलती होने जैसा कोई प्रसंग उन्हें याद नहीं है। वे कहते हैं कि सामान्यतः मुझे कोई पछतावा नहीं है। यद्यपि पालिका आन्दोलन के बाद वे संघ से अलग हो गए थे। उन्होंने कहा – जहाँ से विचार नहीं मिले वह रास्ता छोड़ दिया और धैर्य से परिस्थिति बदलने का इन्तजार किया।
आज की स्थिति पर टिप्पणी करते हुए वे कहते हैं – जहाँ भी धर्म और राजनीति मिल जाएं अथवा ट्रेड यूनियन राजनीति के साथ घालमेल कर ले उससे आन्दोलन को नुकसान होता है। राजनेताओं को यूनियन के मंच पर जगह न दें। नेतृत्व के लिए सक्रियता जरूरी है ; समर्पण जरूरी है और बातचीत का कौशल जरूरी है। निजीकरण के खिलाफ हड़ताल के आह्वानों की ठोस समीक्षा करनी चाहिए। निर्णायक ताकत जुटाए बिना प्रतीकात्मक हड़ताल से असर पड़ता नहीं दिख रहा है। अब धीरे-धीरे सामूहिकता घट रही है। हमारे बीच में तर्क-वितर्क होते थे। गुस्से में भी आ जाते थे लेकिन मनमुटाव नहीं होता था। बैठक के बाद एक राय पर अमल करने का संकल्प लेकर निकलते थे।
हमने 1987 में चौधरी देवीलाल जैसी शख्सियत को न केवल मंच देने से मना कर दिया था, बल्कि उनसे जूस पीकर भूखहड़ताल समाप्त करने से भी मना कर दिया था। उसके बाद अनेकों बार बड़े नेता सत्तारूढ़ पार्टी की चापलूसी में जी-हजूरी करते पाए जाते हैं। जब उनको आन्दोलन की थाह मिल गई है तो वे हमारी मांगों के औचित्य पर विचार क्यों करें? सौजन्यः ओमसिंह अशफ़ाक

लेखक- सत्यपाल सिवाच
