खुद से एक सवाल-पार्ट 2

खुद से एक सवाल – पार्ट 2

अमित दास

अगर सारे औजार दे दिए जाएं, तो क्या एक फिल्मकार किसी पारंपरिक शिल्पकार की तरह अपने शिल्पों की निर्मिति और वितरण कर सकता है? क्या किसी के भीतर एक पारंपरिक शिल्पकार की तरह जीवन गुजारने की तलब भी उठती होगी, क्यों वह बेशुमार दौलत और शोहरत को छोड़कर एक गुमनाम मध्यवर्गीय जीवन गुजार सके और सत्य के पक्ष में काम कर सके? भारतीय दार्शनिक परंपराओं में सारी कलाओं, बल्कि यह कहना चाहिए की आजीविका के सारे तरीकों, का लक्ष्य जीवन में चार चीजों की प्राप्ति है -धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। और वह भी बिल्कुल इसी क्रम में। एक साधारण ब्याज के रूप में जीते हुए भी से पाया जा सकता है। लेकिन इन्हें पा लेना एक असाधारण काम होता है, खासकर एक कलाकार के लिए। गृहस्थ जितनी निजता के साथ रह लेता है क्या उतनी निजता के साथ रहना किसी फिल्मकार के लिए संभव है?

अपनी सफलता व समृद्धि का विचार दरअसल एक कठिन चुनौती है क्योंकि सफलता का अर्थ व्यापक पहचान प्राप्त करने से भी हो सकता है और सिद्धि प्राप्त करने से भी। यह स्वीकार के लिए एक बड़ी चुनौती है क्योंकि सफलता महज आजीविका व भरण – पोषण ही नहीं होती, और न ही वह इसका अतिरेक है। क्या एक फिल्मकार उन चीजों के प्रति पर्याप्त संवेदनशील है, जो बिना किसी प्रयास के भी समृद्ध बना देती हैं? क्या फिल्मकार सफलता के एक नए विचार की तरफ जा सकता है? क्या फिल्मकार इन सर्वसुलभ तत्वों से अपने प्रेरणा ले सकता है: धरती, पानी, हवा, आग, आकाश। या फिल्मकार की मंशा चीजों को कुछ और बनाने की है? आपके हाथ में जो संपदा है, वह किस किस्म की है, क्या आपको इस बात की पर्याप्त जानकारी है? हमारी परंपरा ने संपदा को अधिक महत्व दिया है, न कि धन को। धन का अर्थ सिर्फ पैसा ही नहीं होता, बल्कि विद्या धन और कला धन भी धन ही हैं। अगर संपदा की आकांक्षा है, तो उसे उसकी अप्रत्यक्ष विविधता और गरिमा के साथ देखा जाना चाहिए। एक बार एक जापानी टी- मास्टर ने पतझड़ की शुरुआत में अपने एक शिष्य से चेरी का बगीचा साफ करने के लिए कहा‌। शिष्य ने पूरा दिन बगीचा साफ किया और अपने गर्व को सावधानी से छिपाते हुए गुरु को बगीचा दिखाया। गुरु ने नकार में सिर हिला दिया और चला गया। हैरान और दुखी शिष्य ने दोगुनी ऊर्जा के साथ फिर से मेहनत की। पेड़ के तनो की धूल भी पोंछ दी, यहां तक पेड़ पर लगे पत्तों को भी पोंछकर साफ कर दिया। गुरु ने नकार में सिर हिलाया और चले गए। शिष्य निराश हो गया। एड से हर पल पत्तियां गिर रही थीं और अब वह उन्हें बहुत दौड़ दौड़ कर पकड़ रहा था, जमीन पर गिरने से पहले ही। उसने एक बार फिर गुरु को बुलाया इस उम्मीद के साथ कि उसे समय हवा ठहरी हुई होगी ताकि और पत्तियों न गिरें। इस बार गुरु चुपचाप पेड़ के पास गए और उन्होंने धीरे से उसके तने को हिलाया कई सारी पीली पत्तियां पेड़ से गिर गयीं।हवा ने उन पत्तियां को पूरे बगीचे में फैला दिया । गुरु ने कहा, अब बगीचा साफ हो गया है। क्रमशः

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