कविता
प्रकृति बिकाऊ नहीं है!
– मंजुल भारद्वाज
आज हर मनुष्य को लगता है
वो अपनी ज़रुरत की
हर चीज़ ख़रीद लेगा !
बात सही भी है
आज सब बिकता है
सत्ता,नेता,जनता
वोटर,अफ़सर,न्यायधीश !
हर एक की क़ीमत है
स्त्री,पुरुष
ज़मीन,जायदाद
खेती बाड़ी,नदी,झरने
पहाड़,समंदर
सब बिकाऊ है!
धर्म,ईमान,भगवान
सब खरीदे और बेचे
जा रहे हैं !
इस खरीदने की बीमारी
और बिकने की दलिद्रता को
लोग विकास कहते हैं !
पूरी दुनिया में यही
हो रहा है
शिक्षा,रोटी,नीति,नाते,
सब खरीदे जा रहे हैं!
नौकरी,छोकरी
मकान,दुकान,जुबान
शरीर,सेक्स सब बेचे
खरीदे जा रहे हैं!
खरीदना विकास का पैमाना है
बिकना विकासशील होने का फितूर !
बेचना और खरीदना
यही आज का
जीवन संचालन सूत्र है!
पर यह आया कहां से
अब तक तो मनुष्य
गुलामी से मुक्त होने के
लिए लड़ रहा था !
मान सम्मान
मौलिक अधिकारों के लिए
संघर्षरत था !
मानवीय मूल्यों
जीवन तत्वों को
संरक्षित कर रहा था !
फ़िर यह इंसान नहीं
खरीदे और बेचे जाने की
वस्तु कैसे बन गया ?
मनुष्य के मुक्त होने को
भ्रमित किया भूमंडलीकरण ने!
नाम कितना खूबसूरत
संकल्पना कितनी खूबसूरत
पृथ्वी यानि भूमंडल एक हो
सब समान हो
लेकिन नीयत बदसूरत
सबको समान बनाने की बजाए
सबको सामान बना दिया गया
वस्तु बना दिया गया !
मात्र उदारीकरण,निजीकरण के
30- 35 वर्षों में ही
मानव मुक्ति का इतिहास बदल गया
नागरिक ग्राहक हो गए
ग्राहक खरीदने बिकने वाले जिस्म बन गए
मनुष्य गायब हो गया
जो आपके सामने है वो
मनुष्य का शरीर लिए
बिकने वाली वस्तु है!
कोई आज ऐसा नहीं है
जो बिक नहीं रहा हो !
याद करो
बहुत पुरानी दास्तां नहीं है
एक कुआं होता था
ठाकुर का उस पर कब्ज़ा था
एक एक बूंद पानी को
पूरा समाज मोहताज़ था !
काल बदल गया
किसी को ज्यादा
किसी को कम पर
सरकारी नल से
सबको पानी मिल गया !
अब कुआं ज़मीन
तालाब,नदी,बांध
समंदर सब पर कब्जा है
अदृश्य ठाकुर का
जो तुम्हें हवा,पानी,
अनाज के एक एक दाने को
तरसा देगा !
कैसे
याद करो अमीरों और गरीबों
बैंक में लाखों रुपए होने के बावजूद
एक एक सांस के लिए
तरस रहे थे
हर ओर मौत का मंज़र था
देश श्मशान और कब्रिस्तान था ।
जिन्हें अपने दादा दादी
नाना नानी का नाम याद ना हो
वो क्या याद रखेंगे
नल से पानी नहीं तो
मिनरल वाटर की बोतल खरीद लेंगे
नौकरी यहां नहीं मिल रही तो
अमेरिका में कर लेंगे
चाहे वो हथकड़ी बांध कर
देश की बेइज्जती करके
लात मार कर बाहर फेंक दे !
हम अपना वोट बेच देंगे
पांच किलो अनाज के लिए
लोकतंत्र बेच देंगे
आस्था और धर्म के लिए
अपना विवेक बेच देंगे
क्योंकि हम बिकाऊ हैं
हम मनुष्य नहीं खरीदने
बिकने वाली वस्तु हैं!
धर्म,भगवान,ईमान
बेचने वालों
तुम्हें सुरक्षित रखने के
जुमले बेचने वाला
खुद एयर प्यूरीफायर लगा के
सांस ले रहा है
धर्म की अफ़ीम में सोया देश
बारूद फोड़ कर
हवा प्रदूषित कर
गौरवान्वित हो रहा है!
अरे बिके हुए लोगों
मां के नाम पेड़ लगाने वाला
भावनाओं का व्यापारी
देश के फेफड़े
यानी जंगल उजाड़ रहा है!
पहले तो पशु बिकते थे
आज मनुष्य पशु हो गए
क्योंकि मनुष्य ने अपनी
विचार शक्ति को बेच दिया
भावनाओं का व्यापार कर लिया
और देखते ही देखते
पशु बनकर विकसित हो गया !
आज मनुष्य को विकास दिखता है
ना नीति दिखती है
ना नियत दिखती है
खरीदने – बेचने की हवस पसरी है फिज़ा में
जिसने चारों ओर तबाही मचा रखी है!
प्रदूषण ने पृथ्वी का ताप बढ़ा दिया है
पर्यावरण चक्र बिगड़ गया
ओज़ोन की परत फट गई
बाढ़,बारिश, आग से धरती
तबाह हो गई !
क्यों?
क्योंकि मनुष्य भूल गया
वो मनुष्यों,पशुओं
प्राणियों समेत
जल,जंगल,जमीन
खरीद सकता है
अंतरिक्ष, चांद,ग्रहों पर
सेटेलाइट भेज सकता है
रोबोट बना सकता है
पर प्रकृति को नहीं
खरीद सकता !
मनुष्य ने मति बेच दी
विकास में अंधा होकर
उसने अपने पंचतत्वों से
युद्ध छेड़ दिया
हवा,पानी,अग्नि
मिट्टी और आकाश पर
कब्ज़ा कर लिया!
पर प्रकृति किसी तरह का
कब्ज़ा बर्दाश्त नहीं करती
प्रकृति ने पलटवार कर
तबाही का मंज़र रच दिया !
पर मनुष्य अभी भी
मूर्छित है
उसे विकास के आगे
मौत नहीं दिखती !
वो खरीदने में व्यस्त है
वो जंगल खरीद रहा है
इकोलॉजी ,सहअस्तित्व
प्राणियों का बसेरा उजाड़ रहा है!
जंगल पृथ्वी के फेफड़े है
पेड़ पृथ्वी के तापमान को
संतुलित रखते हैं।
उसने हज़ारों वर्ष पुराने
जंगल काट डाले
पृथ्वी के गर्भ को फाड़ डाला
हाइवे बना डाले
पहाड़ खोद डाले
नदियों पर बांध बना डाले
नतीजा जलवायु परिवर्तन और तबाही !
मनुष्य ने पहाड़ खरीदा
वहां बंगला बनाया
बादल फटा
20 सेकेंड में सब तबाह हो गया
सारी तकनीक, विज्ञान
पैसा,सत्ता सब धरा रह गया !
कई बहुत ज्ञानी है
वो विज्ञान की रट और
विज्ञान का रेट लगाए रहते हैं
वो भूल जाते हैं कि
पूरी प्रकृति विज्ञान है
उसकी हर प्रक्रिया विज्ञान है
मनुष्य ने बस सेब के नीचे गिरने के
सूत्र को समझा
वेग,वजन,संवेग के सूत्रों को समझा
तत्वों की पहचान की
अणु और उसकी संरचना को समझा
और उसी को विज्ञान समझ लिया!
पर अभी पूरी प्रकृति को
समझना बाक़ी है
वो कहावत है ना
आधा ज्ञान हमेशा जान लेवा होता है
मनुष्य का विज्ञान और उससे ईजाद तकनीक
उसका आधा ज्ञान है
वो आधा ज्ञान भी विवेक शून्य है
इसलिए चारों ओर तबाही है!
वैज्ञानिक विकास यानी भोगवाद
के शिखर
अंतरिक्ष को सेटेलाइट से छलनी करने वाले
दुनिया को खरीद बिक्री का सामान बनाने वाले
पूंजीवादी,मार्क्सवादी,माओवादी,समाजवादी
अमेरिका,यूरोप रूस,चीन क्या अपने यहां
तूफ़ान,आग,बाढ़ की तबाही को
रोक पाते हैं?
दुनिया को तबाह करने वाला
बारूद से आग लगाने वाला अमेरिका
अपने कैलिफोर्निया के जंगलों की आग
महीनों तक नहीं बुझा पाया
क्यों?
इसलिए विज्ञान के नाम पर
भोगवादी विकास के झांसे से
बाहर आओ !
हे मनुष्य अपने विचार को मत बेचो
भावनाओं का व्यापार मत करो
अपने पंचतत्वों से युद्ध मत करो
हवा,पानी,अग्नि,पृथ्वी,
आकाश की सीख
सहअस्तित्व और संतुलन को समझो!
याद रखो
प्रकृति बिकाऊ नहीं है
तुम भी खरीदने बिकने की मूर्छा को तोड़
इंसान बनो
विवेक जगाओ
अगर प्रकृति को नहीं सहेजा तो
यह सत्ता,लोकतंत्र,यह संविधान
यह विधान सब धरे रह जायेंगे !
किसानों की हालत देखो
आदिवासियों की हालत देखो
समुद्री तट पर रहने वालों को देखो
महानगरों में रेंगते विकास को देखो
डूबती बस्तियों और उजड़ते
गांव को देखो
सद्बुद्धि,विवेक जगाओ
पंचतत्व, पर्यावरण,पृथ्वी
मानवता बचाओ !
