आखिर मैं क्यों लिखता हूं
शंभुनाथ
कई बार सोचता हूं कि मैं आज भी क्यों लिखता हूं, जब धैर्यपूर्वक साहित्य पढ़ने वाले न केवल न्यूनतम हो गए हैं, बल्कि दूसरे को नकारने की प्रवृत्ति और असहिष्णुता काफी बढ़ गई है। दुनिया दृश्यात्मक चुटकुलों में इतनी ज्यादा फंसी हुई है कि गंभीर लेखन में किसी को दिलचस्पी नहीं है। यह सब एक नए तरह के अकेलेपन में ठेल देता है, जहां आशा की कुछ उदास किरणें भर हैं।
फिर इस नए विश्व में मुझे लिखना ही एक ऐसे आंतरिक शरणस्थल की तरह दिखता है जहां मैं अपनी आवाज साफ–साफ सुन सकता हूं। मैं ’प्रचारित’ के दबाव से मुक्त होकर अपनी मानवीय पहचान अर्जित कर सकता हूं और अपनी भूलों को सुधारते हुए अपनी पुनर्खोज कर सकता हूं।
लिखने का एक और कारण भी मेरी समझ में आता है। आज स्मृति केवल अतीत की धरोहर नहीं एक राजनीतिक रणभूमि बन गई है। इतिहास की संकुचित व्याख्याएं सामने आ रही हैं। ऐसे में लिखना महज एक सामान्य रचनात्मक कर्म से अधिक एक नैतिक दायित्व हो जाता है– कुछ जरूरी स्मृतियों को भूलने न देने, बचाने और प्रतिवाद का दायित्व!
कई भोले रचनाकार आलोचना को अपनी पुस्तक की समीक्षा और अपने कृतित्व के मूल्यांकन से आगे बढ़ने देना नहीं चाहते, उन्हें अपने लिए भले आकाश से कम कुछ न चाहिए। विचारों की दुनिया में आलोचना इतनी छोटी चीज नहीं है। इस दुनिया का भी अपना एक बड़ा आकाश है, जहां व्यक्ति का मन बड़ा होता है, उसके विषय बड़े होते हैं और उसका विजन बड़ा होता है। विचार का आकाश जितना बड़ा होगा, भाव जगत भी उतना विस्तृत होता जाएगा।
लिखना एक तरह से पर्यावरण से लेकर विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर हिंसक होने से बचना है। मेरे लिए लिखने का एक कारण न्यूनतम हिंसक होना है।
आज फिर एक बड़ा दबाव यंत्रों का है, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का है जिसका मुंह सुरसा की तरह बढ़ता जा रहा है। इस युग में हर तरफ मनुष्य को नगण्य, भीख–निर्भर और दयनीय बनाने का अभियान है।
मेरे लिए लिखने का एक उद्देश्य मनुष्य की विशिष्टता, मानव अस्तित्व की विशिष्टता और उसकी अनोखी प्राकृतिक शक्तियों की ओर ध्यान आकर्षित करना है ताकि हमारा परिवर्तन की अपनी क्षमता पर भरोसा फिर पैदा हो। साथ ही अ–पर के बोध की महत्ता का भी बोध हो। दरअसल ऐसा हर परिवर्तन निरर्थक है जो मनुष्य में ’अ–पर’ का बोध पैदा न कर सके!
मेरे लिए लिखना स्वतंत्रता के एक नए बोध से गुजरना है। लिखते हुए मुझे अनुभव होता है कि मैं लोकप्रियतावाद और उपभोक्तावादी संस्कृति के दबाओं से मुक्त हो रहा हूं। मुझे लिखते हुए अनुभव होता है कि मैं गुलाम नहीं हूं!
