सत्य की आवाज़

अरुंधति रॉय की आत्मकथा ‘मदर मैरी कम्स टू मी’ पर एक टिप्पणी

सत्य की आवाज़

एस.पी. सिंह

वर्तमान समय में जब शब्दों पर पहरे बिठाए जा रहे हों और विचारों को सलाख़ों में कैद करने की कोशिश हो रही हो, तब अरुंधति रॉय का स्वर किसी दरवेश की पुकार की तरह गूंजता है। उनकी नई आत्मकथा Mother Mary Comes to Me महज़ एक स्मृतिगाथा नहीं, बल्कि अंतरात्मा का एक घोष है—जहाँ माँ की कठोरता, समाज की रूढ़ियाँ और सत्ता की असुविधाजनक सच्चाइयाँ आमने-सामने खड़ी होती हैं। अरुंधति अपने व्यक्तिगत घावों को सार्वजनिक विवेक में बदल देती हैं और यह वही परंपरा है जिसमें कबीर ने कहा था – “साँच कहौं तो मारन धावै।” (बीजक, साखी 75)।

उनकी किताब में माँ एक साथ प्रेरणा और यातना का रूपक हैं। वह बेटी को गढ़ती भी हैं और तोड़ती भी हैं। यही द्वंद्व एक विचारक को जन्म देता है। दार्शनिकों का मानना है कि सृजन का पहला बीज अक्सर पीड़ा की भूमि में बोया जाता है। जैसा कि रूमी ने कहा था – “ज़ख़्म वही जगह है जहाँ से नूर दाख़िल होता है।” (Rumi, The Essential Rumi, Coleman Barks Translation)। अरुंधति की पीड़ा ने उन्हें ऐसा लेखक बनाया जो सत्ता से सवाल करता है और जनता को उसके अधिकारों का बोध कराता है।

उनके विरोधियों का कहना है कि वह राष्ट्र-विरोधी हैं, परंतु यह आरोप किसी भी विचारक को चुप कराने का सबसे आसान हथियार है। यह वैसा ही है जैसे गैलीलियो से कहा गया था कि पृथ्वी स्थिर है और जब उसने सच कहा तो उसे चुप करा दिया गया। (Galileo Galilei, Dialogue Concerning the Two Chief World Systems, 1632)। विचारक, लेखक और कवि का काम सत्ता की प्रशंसा करना नहीं बल्कि उसे आईना दिखाना है। इस दृष्टि से अरुंधति रॉय की लेखनी लोकतंत्र के लिए एक स्वास्थ्यवर्धक चुनौती है, कोई ख़तरा नहीं।

जम्मू-कश्मीर में उनकी किताब Azadi पर लगी पाबंदी इस बात का प्रतीक है कि हमारे समय में किताबें अब भी डर पैदा करती हैं। यह डर उसी तरह का है जैसा किसी शासक को ईश्वर की वाणी सुनकर होता है—क्योंकि वह जानता है कि सच उसके सिंहासन को हिला सकता है। किताब को बंद करना समस्या का हल नहीं, बल्कि समाज को अंधकार में धकेलने का निमंत्रण है। एक प्रबुद्ध समाज किताबों से बहस करता है, उन्हें जलाता नहीं।

जो लोग अरुंधति का विरोध कर रहे हैं वे वस्तुतः संवाद की परंपरा को समाप्त कर रहे हैं। वे चाहते हैं कि साहित्य केवल स्तुति गान बने, लेकिन यह संभव नहीं। साहित्य का धर्म है कि वह प्रश्न पूछे। गीता में भी श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा – “विचार करो, फिर जो उचित समझो वही करो।” (भगवद्गीता, अध्याय 18, श्लोक 63)। अरुंधति का लेखन इसी विचार की पुकार है।

हमें समझना चाहिए कि किसी लेखक की आलोचना करना लोकतंत्र का हिस्सा है, परंतु उसे चुप कराना लोकतंत्र का अपमान। प्रबुद्धजन कहते हैं कि विचारों की हत्या सबसे बड़ा पाप है। अरुंधति का समर्थन करना दरअसल विचार की स्वतंत्रता का समर्थन करना है। यही कारण है कि दुनिया के कई विद्वान, लेखक और दार्शनिक उनके साथ खड़े हैं।

आज जब दुनिया में असहिष्णुता बढ़ रही है, तब ज़रूरत है कि हम उन आवाज़ों को सुनें जो हमें असुविधाजनक सच बताती हैं। अरुंधति रॉय वही आवाज़ हैं—कटु लेकिन आवश्यक। उनका समर्थन करना समाज के विवेक का समर्थन करना है।

लेखक- एस.पी. भाटिया

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