लघु कथाः
मैं, एक खिलौना नहीं
विकास विश्नोई
मैं एक छोटा-सा सफेद खरगोश हूँ — नरम रेशमी बालों वाला, मासूम आँखों से दुनिया को देखने वाला। मेरा नाम कभी किसी ने नहीं रखा, और शायद रखा भी होता तो कोई पुकारता नहीं। मेरी दुनिया एक टोकरी में सिमटी हुई है, जो अक्सर एक औरत के हाथ में होती है।
ये कहानी है मनाली की, उस बर्फीले पहाड़ की जहाँ हर चीज़ पर एक सफेदी की चादर सी बिछी होती है। लोग आते हैं वहाँ सैर-सपाटे को, तस्वीरें खिंचवाते हैं, हँसते हैं, और फिर चले जाते हैं। और मैं… मैं वहीं का वहीं रह जाता हूँ — उस औरत की हथेली में, जिसने मुझे एक तमाशा बना दिया है।
सुबह से शाम तक वो औरत मुझे अपनी गोद में लेकर खड़ी रहती है और कहती है, “आ जाओ जी, सिर्फ़ 20 रुपए में फोटो खिंचवाओ प्यारे खरगोश के साथ!”
लोग हँसते हैं, बच्चे चिल्लाते हैं — “मम्मी खरगोश! मम्मी देखो, कितना क्यूट है!”
कोई मेरी नाक को छूता है, कोई मेरे कान खींचता है।
पर किसी ने कभी मेरी आँखों में झाँककर नहीं देखा… जहाँ ठंडी हवा से छलकते आँसू होते हैं।
हर कोई स्वेटर, जैकेट, दस्ताने और टोपी में लिपटा होता है। और मैं? बस एक नंगी जान हूँ, जिसे कोई महसूस ही नहीं करता। मेरे पाँव बर्फ पर ठिठुरते हैं, मेरा दिल हर छूअन से कांपता है, पर मैं चुप हूँ… क्योंकि मैं एक “खिलौना” हूँ ना!
शाम ढलती है, सूरज हिमालय की चोटियों में छिप जाता है। मैं सोचता हूँ — अब शायद घर जाकर चैन मिलेगा, गरमी मिलेगी। पर उस औरत ने मुझे न प्यार से उठाया, न कोई कंबल दिया। बस उसी पुराने लोहे के पिंजरे में डाल दिया जहाँ मैं रातें काटता हूँ।
मैं कोने में दुबक जाता हूँ। बाहर का शोर बंद हो जाता है, पर मेरे दिल में एक सन्नाटा गूंजता है।
कभी सोचा है, जब खिलौना भी साँस लेता हो तो कैसा लगता है उसे खिलौना कहे जाना?
काश… कोई मुझे सिर्फ़ 20 रुपए का न समझता।
काश… कोई मेरी ठंडी साँसें सुन पाता।
काश… मैं सिर्फ़ एक तस्वीर का हिस्सा नहीं, किसी के प्यार का हकदार होता।
मैं भी जीना चाहता हूँ… खुले मैदानों में दौड़ना, हरी घास में लोटना, किसी की गोद में चैन से सोना — बिना कैमरे, बिना पैसों के… बस दिल से।
मैं एक खिलौना नहीं हूँ। मैं भी महसूस करता हूँ क्योंकि मैं भी एक ज़िंदा दिल हू।