यह रेखाचित्र राजिंदर सिंह राजन ने लिखा है। घोड़े से जुती एक सवारी गाड़ी, जिसमें आठ से 10 सवारियां बैठ जाती थीं। नब्बे के दशक तक यही सवारी पूरे भारत में उपलब्ध होती थी। लेखक ने तो अपने फीचर में पंजाब का चित्रण किया है, लेकिन पंजाब की जगह किसी भी प्रदेश का नाम दे दीजिए, सब जगह तांगा (कई जगह इक्का नाम भी प्रचलित था) ही सर्वसुलभ यात्रा गाड़ी होती थी जो कच्चे- पक्के हर रास्ते पर सवारियों को लेकर जा सकती थी। पुरानी पीढ़ी इस रेखाचित्र को पढ़कर अपने समय की यात्राओं को याद करेगी तो नई पीढ़ी पुराने समय की सवारी गाड़ी का रोमांच अनुभव करेगी। केवल एक बात का जिक्र अपने लेख में लेखक ने नहीं किया है कि सवारी ही नहीं, इस पर लादकर दूर दराज गांवों में सामान भी ले जाया जाता था। यह लेख हमें अपनी पुरानी परंपरा से जोड़ता है दूसरे हमें हमारी संस्कृति की याद दिलाता है। तब यात्रा इतनी सुलभ नहीं थी , दूरदराज गांवों तक पहुंचने का एक मात्र साधन तांगा ही हुआ करता था। संपादक
तांगे की अविस्मरणीय यादें
राजिंदर सिंह राजन
आज की तेज़ रफ़्तार ज़िंदगी में, जहाँ किलोमीटर मिनटों में तय होते हैं, पंजाब (यहां भारत का कोई भी राज्य मान सकते हैं) में एक ज़माने में तांगा पर सफ़र एक मीठा एहसास था जो समय से बात करता था। आज, तांगे का सफ़र हमारी ज़िंदगी से लगभग गायब हो गया है। समय की तेज़ रफ़्तार, मोटरें, मशीनी ज़माने की बेलगाम टेक्नोलॉजी और ट्रांसपोर्टेशन के नए साधनों ने तांगे की सादगी को पीछे छोड़ दिया है। आज, ई-रिक्शा से लेकर बसें, कार और मेट्रो से लेकर हवाई जहाज़ तक, ट्रांसपोर्टेशन के कई साधन हैं। लेकिन तांगे की बात ही कुछ और थी, वो चीज़ जो सिर्फ़ रास्ता ही नहीं, बल्कि रिश्ते भी तय करती थी।
उन दिनों कई गाड़ीवान अपनी गाड़ियों को बड़े ध्यान से सजाते थे। गाड़ी में घोड़ा हो या न हो, उनके गले में बंधी घंटी की झनकार, काठी की खनक और पहियों की चरमराहट, पहियों की चिंघाड़, सफ़र की कहानियाँ बनाती थीं, जबकि घोड़े के सिर पर बंधा रंगीन रूमाल ऐसे लहराता था जैसे हवा से बातें कर रहा हो। घोड़ों के पैरों में बंधी रंगीन पट्टियाँ हर कदम के साथ एक धुन बनाती थीं, जैसे सड़क पर कोई लोकगीत ज़िंदा हो गया हो। गाड़ी की सीट नरम और आरामदायक होती थी, और उसकी सफ़ाई और सुविधा का खास ध्यान रखा जाता था। पीछे पक्की गद्दियों के अलावा, गाड़ी के दोनों तरफ़ पीतल की चमकदार सजावट धूप में चमकती थी और रात में लालटेन की रोशनी में एक अजीब सी चमक पैदा करती थी।
गाड़ीवान अपने साफ़ कपड़ों और सिर पर पगड़ी से अपनी पहचान बनाता था। घोड़े से बात करते हुए या सवारियों को बुलाते हुए उसकी आवाज़ उस ज़माने की सादगी और मिठास दिखाती थी।
उन दिनों पंजाब के गांवों, कस्बों और शहरों में तांगा आम था। सुबह की ठंडी हवा में तांगा चलाने वाला घोड़े की पीठ थपथपाता और लगाम पकड़कर कहता, “आओ मेरे बब्बर शेर,” और घोड़ा मालिक की आवाज़ समझकर मंज़िल की ओर बढ़ जाता।
यह कोई मशीन नहीं, बल्कि इंसान-जानवर का साथ था। वह सफ़र जल्दबाज़ी में मंज़िल तक पहुँचने का नहीं, बल्कि रास्तों से जुड़ने का था। तांगा सिर्फ़ मंज़िल तक पहुँचने का ज़रिया नहीं था, वह एक जीता-जागता अनुभव भी था जहाँ कोई रफ़्तार नहीं थी, सब्र था, कोई शोर नहीं था, साथ था और सफ़र मंज़िल से ज़्यादा ज़रूरी था, वहाँ तांगा सामाजिक जीवन, इंसानी साथ और संवेदनशीलता का प्रतीक था।
तांगा चलने का कोई तय समय नहीं था। यह तभी चलता था जब यात्री भर जाते थे। अगर सीटें भरने में समय लगता, तो कभी-कभी लोग तांगे से उतरकर तांगे वाले को बताकर चाय पीने आ जाते थे, बिना इस डर के कि सीट किसी और को मिल जाएगी। यह सफर भरोसे और सब्र पर टिका होता था। बच्चों के लिए तांगा सवारी नहीं, बल्कि एक मेला होता था। आगे बैठकर घोड़े की टापों की आवाज़ सुनना, घोड़े को छूना, हवा से बातें करना। ये बचपन की अनमोल यादें थीं।
दूसरी बात, वो दिन कितने अच्छे थे जब तांगा वाला मंज़िल पर पहुँचने के बाद ही यात्रियों से किराया लेता था, कोई जल्दी नहीं होती थी, बेशक, किराया भी इतना ठीक-ठाक होता था कि सफर थकाने वाला होने के बजाय सुहाना लगता था।
तांगे के सफ़र में कच्ची सड़कें, खेतों की हरियाली, पीले सरसों के फूल और नहरों के किनारे से गुज़रने का शानदार नज़ारा दिखता था। ये नज़ारे आँखों से नहीं, बल्कि दिल से देखे जाते थे। तांगे में बैठे यात्री तांगा चालक से मौसम, फसलों और गाँव की खबरों के बारे में बातें करते थे। उस समय न मोबाइल फ़ोन होते थे, न कानों में इयरफ़ोन। लोग एक-दूसरे से जुड़े रहते थे और तांगा रिश्तों का पुल था।
कभी-कभी यह मज़ेदार होता था कि जब भारी सवार गाड़ी के पीछे बैठते थे, तो गाड़ी का बैलेंस बिगड़ जाता था और घोड़ा आगे उठ जाता था, और सवार डर के मारे शोर मचाते थे। गाड़ी वाला अनुभव से सवारों को सही जगह पर बिठाकर बैलेंस बनाता था। कभी-कभी, गाड़ी वाला गाड़ी के एक तरफ और दूसरा आदमी दूसरी तरफ बैठ जाता था ताकि घोड़ा खड़ी और नीची सड़क पर दोबारा न उठ जाए। यह सब सिर्फ़ हुनर का दिखावा नहीं था, बल्कि ज़िम्मेदारी और एकजुटता का भी दिखावा था।
गर्मियों के मौसम में जहां लोग भीषण गर्मी, घोड़े का पसीना, तो वहीं मिट्टी की महक और गाड़ी के पहियों की चरचराहट सहने की हिम्मत रखते थे, ये सब मिलकर एक ऐसी तस्वीर बनाते थे जो आज भी यादों के फ्रेम में कैद है। गाड़ी की कभी न भूलने वाली यादें यहीं खत्म नहीं होतीं, उन दिनों टूटी सड़कें, कच्चे रास्ते, गड्ढे और पहाड़ियां, ये सारी रुकावटें गाड़ी के लिए कोई नई बात नहीं थीं। असल में यही उसकी असली पहचान और ताकत थी। उसके मजबूत लकड़ी के पहिए हर तरह की रुकावटों को बिना झिझक पार कर जाते थे। रास्ता कितना भी खराब क्यों न हो, गाड़ी बिना किसी शिकायत या रुके अपनी पूरी क्षमता से आगे बढ़ती रहती थी। हां, सवारों को झटके जरूर लगते थे, कभी एक तरफ तो कभी दूसरी तरफ, लेकिन वो सवार भी उसी दौर के थे, जिनमें इन झटकों को सहने की न सिर्फ हिम्मत थी, बल्कि आदत भी थी। असल में तांगे का यह झूमता सफर उस समय की जिंदगी की रफ्तार, सब्र और हिम्मत की जीती-जागती तस्वीर थी।
उन दिनों, क्योंकि तांगे ही आने-जाने का मुख्य ज़रिया थे, इसलिए गांवों में बसें आती-जाती थीं, जिनका हर गांव के चौराहे पर इंतज़ार होता था। तांगा चालक बस का समय ऐसे याद रखते थे जैसे किसी के दिमाग में घड़ी हो, कौन सी बस कितने बजे आएगी, कहां रुकना है और बस आने से पांच मिनट पहले तांगे में कैसे चढ़ना है।
तांगा वाला सवारियों को बिठाता, घोड़े की लगाम को धीरे से हिलाता और मन ही मन उम्मीद करता कि आज किस्मत उसके साथ होगी, लेकिन किस्मत हमेशा मेहरबान नहीं होती। कभी-कभी बस लेट हो जाती और तांगा वाला राहत की सांस लेता कि अचानक बस धूल उड़ाती हुई उसके सामने आकर खड़ी हो जाती। फिर एक ऐसा सीन होता, जो देखने वालों के लिए हंसी से भरा होता, लेकिन तांगा वाले के लिए बहुत दर्दनाक होता। तांगा सवारियों से भरा होता, लेकिन जैसे ही बस आती, सवारियां तांगे से कूदकर बस की तरफ दौड़ पड़तीं। पल भर में तांगा खाली हो जाता। आस-पास खड़े लोग यह नजारा देखकर हंसते। कुछ लोगों के लिए यह सिर्फ एक मज़ेदार घटना होती, लेकिन तांगा वाले का दिल ऐसा हो जाता जो पानी में गिरते ही पिघल जाता है। समय बीतता गया, रास्ते बदले, गाड़ियां बदलीं, लेकिन यादें आज भी ज़िंदा हैं।
आज की यंग जेनरेशन अपनी शादी को यादगार बनाने के लिए नए-नए तरीके आज़मा रही है। प्री-वेडिंग शूट अब सिर्फ़ महंगी या अनोखी जगहों तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि इसमें कल्चरल सिंबल भी शामिल हो रहे हैं। यह बात कि कुछ यंग लोग पुरानी विरासत की निशानी, तांगे को अपने प्री-वेडिंग शूट का सजावटी हिस्सा बना रहे हैं, इस बात का जीता-जागता उदाहरण है कि नई जेनरेशन अभी भी अपनी जड़ों से जुड़े रहने की कोशिश कर रही है।
कभी रोजी-रोटी का ज़रिया रहा यह तांगा अब यादों, इतिहास और संस्कृति की निशानी बनकर तस्वीरों में मुस्कुरा रहा है। ऐसे नए और खूबसूरत एक्सपेरिमेंट बताते हैं कि अगर नई सोच को पुरानी विरासत के साथ जोड़ दिया जाए, तो यह न सिर्फ ध्यान खींचती है, बल्कि दिलों में भी अपनी पक्की जगह बना लेती है। शायद यही वजह है कि आज भी जब कहीं तांगा दिखता है, तो आंखें ही नहीं, यादें भी ठहर जाती हैं और मन अनजाने में ही उस दौर में लौट जाता है, जहां ज़िंदगी धीमी थी, लेकिन दिल बहुत मज़बूत था।
तांगा सिर्फ़ सड़कों तक ही सीमित नहीं था. फ़िल्मों और गानों में भी इसकी अपनी जगह थी। फ़िल्म ‘चल प्रेम नगर’ का गाना हो या फ़िल्म ‘शोले’ में तांगा से जुड़े सीन, आज भी लोगों की यादों में ताज़ा हैं। इन फ़िल्मों में तांगा सिर्फ़ एक सवारी नहीं था, बल्कि कहानी का जीता-जागता किरदार था।
अगर आज की पीढ़ी तांगे के सफ़र की ये कहानियाँ सुनेगी, तो वे हैरान भी होगी और खुश भी। हैरान भी कि बिना घड़ी के भी समय कैसे बीत गया और खुश भी कि कभी सफ़र दिलों को करीब लाता था। तांगे आज सड़कों से गायब हैं, लेकिन घोड़े के गले में बंधी घंटी की झंकार, खुरों की खनक और पहियों की खड़खड़ाहट आज भी यादों के दरवाज़े खटखटाती है। वो सफ़र जहाँ अजनबी भी अपने लगते थे, आज की अकेली दौड़ में एक मीठी कमी जैसा लगता है। पंजाबी ट्रिब्यून से साभार
