संजय श्रीवास्तव की मसूरी डायरी -4 : मसूरी की षोडसी सा मॉल रोड, बंद पलकों से नशीली आंखों तक

संजय श्रीवास्तव की मसूरी डायरी -4

मसूरी की षोडसी सा मॉल रोड, बंद पलकों से नशीली आंखों तक

संजय श्रीवास्तव

मैं मसूरी में जहां रुका था वो मॉल रोड का करीब बीच था. बालकनी ऐसी थी कि सुबह से शाम तक मसूरी के रंग बदलते हुए नजर आते थे. बालकनी पीछे बस स्टैंड, पॉवर कारपोरेशन, सामने सुदूर पहाड़ी के शीर्ष पर बनी हुई हैरिटेज इमारतों को दिखाती थी. मैं ना जाने क्यों मसूरी की तुलना किसी षोडशी से करने लगा. जो सुबह अलसाई हुई होती है, अर्धनिद्रा में, नींद से उठना नहीं चाहती, शायद गुजरी रात के सुनहरी यादों में डूबी हो. खैर उठना तो होगा. तो नींद की खुमारी से उठने के बाद दोपहर तक अलसाई होती है. उसके बाद उसकी रोजाना की ग्लैमर्स परेड की तैयारी शुरू होती है., वह तैयारी का उपक्रम करती है और शाम को जब तैयार होकर निकलती है तो बिजलियां ही गिराती है, मुस्कुराती है, बिजलियां गिराती है और हर किसी के होश उड़ाती है. रात में देर तक जागती रहती है, नीचे भी अपलक उसकी कटोरी में चमचमाती हुई रोशनी है और आसमान में भी और बीच में वह खुद कयामत. ये यहां तकरीबन रोज होता है. और इसका ये नजारा सबसे ज्यादा कहीं नुमाया होता है तो वो उसकी जान है माल रोड, इतिहास, वर्तमान, रहस्य, फैशन, विकास, चमक,वैभव सभी कुछ समेटे हुए.

सुबह करीब 6 बजे उठकर जब मैने सामने माल रोड की ओर नजर दौड़ाई तो ये उजली तो थी, लेकिन सोई या ऊंघी हुई लगती है, शायद ये देर से ही जागती है. मसूरी की अलसुबह करीब 2 किलोमीटर की मॉल रोड शांत, उनिंदी और कौतुकपूर्ण लगती है. अपने उस रूप से बिल्कुल अलग जो कुछ घंटों पहले तक आधी रात तक उसने पल-पल दिखाया था – ग्लैमरस, शोख, चंचल, रंगीन, फैशनेबल, गहमागहमी से भरपूर और उजालों के साथ इतराती. नीचे अंधेरे में कटोरी की जगह हजारों जुगनुओं सा चमचमाता देहरादून.

तीन दिन मैं इसी सुबह को सलाम बजाता जब माल रोड पर मार्निंग वॉक पर निकला. सबकुछ शांत. सुबह लॉरियों से आए माल को उतारने के लिए जाते हुए कुली. कभी कभार गुजर जाती सामान लादे हुए जीपें. इक्का-दुक्का मार्निंग वॉकर. लाइब्रेरी चौक से कुलरी रोड से पिक्चर पैलेस तक सब कुछ अलसाया हुआ.
लाइब्रेरी चौक जब 1872 में बना था तो यहां के अंग्रेजों ने तब 3000 रुपए के आसपास कांट्रिब्यूशन करके इसको बनवाया था. उन्हें लाइब्रेरी की मेंबरशिप दी गई. अब भी यहां की लाइब्रेरी में केवल मेंबर ही जा सकते हैं. बाकी नहीं. हां लाइब्रेरी भवन का भूतल पहले कामर्शियल नहीं था. अब उसमें कई दुकानें बन चुकी हैं, जो लाइब्रेरी ट्रस्ट की इकोनॉमी को चलाते हैं. लाइब्रेरी दिन में करीब 4-5 बजे तक खुलती है, फिर बंद. मसूरी में रहने वाले सारे अंग्रेज और रस्किन बांड, गणेश सैली जैसे लेखक इसके ट्रस्टी थे.
सुबह यहां आमतौर पर ट्रैफिक और कारों की चिल्लपों नहीं होती लेकिन दिन बढ़ने के साथ बढ़ती जाती है. टूरिज्म सीजन में इतनी भीड़ उमड़ती है कि इस हिल स्टेशन को उन्हें संभालना भारी पड़ जाता है. यहां की पतली और नाजुक सड़क इस बोझ को नहीं संभाल पाती और हांफने लगती है. चौक से एक रास्ता जार्ज एवरेस्ट पीक की ओर जाता है और दूसरा कंपनी गार्डन की ओर. उस ओर एक पुराना गुरुद्वारा और उसके सामने पुरानी कई मंजिल वाली मस्जिद.

मॉल रोड पर सुबह बहुत खामोश होती है. अगर इस समय चाय पीना हो तो रावत भोजनालय वाले पतले लंबे रावत जी ही अपनी छोटी दुकान खोल चुके होते हैं. चाय, आलू पराठा, बन मक्खन, ब्रेड सैंडविच. काउंटर पर उनकी किशोर बिटिया खामोशी से आगंतुकों पर नजर डाल लेती है, जो अब मसूरी में इंटर की परीक्षा पास करने के बाद देहरादून के किसी साइंस कॉलेज में जाने वाली है, क्योंकि मसूरी में अब भी कोई साइंस कॉलेज नहीं. वैसे इस महंगी मॉल रोड पर केवल रावत जी सबसे सस्ती 20 रुपए की चाय ही नहीं 50 रुपए में आलू पराठा और सेंडविच देते हैं. दोपहर और रात का डिनर भी घर जैसा और सस्ता. धूप निकलते निकलते उन्हें बाहर कुछ कुर्सियां लगानी होती हैं. उस पर मसूरी की राजनीति, बढ़ती महंगाई की बतगोठियां होती हैं.
सामने की ओर हकमैन होटल है, जिसका इन दिनों रेनोवेशन हो रहा है. 100 साल पुराना ये होटल भी गजब का है और इसकी कहानियां भी.

आगे बढ़ने पर गनहिल के झूला पाइंट, म्युजिकल फाउंटेन और ऊंट की उबड़ी चढाई. बढ़ते जाइए. यहां एक आंटी का रेस्तरां है. जहां रात में डिनर में काफी भीड़ इकट्ठा होती है. कहते हैं आंटी के हाथों में बहुत स्वाद है. आगे बढ़ने पर डाउन टाउन शुरू होता है और 100 साल से ज्यादा कुलरी बाजार. यहीं पर मसूरी की ओर पहचान कैंब्रिज बुक डिपो है, जिस पर आकर रस्किन बांड अक्सर बैठते हैं और तब उनके साइन की किताबें लेने के लिए लंबी लाइन लग जाती है. रात में मेरी मुलाकात इसके मालिक सुनील अरोड़ा से हो चुकी थी, मैने उनके यहां से यहां के वाशिंदे अनुपम जैन की मसूरी पर लिखी किताब वांड्रिंग्स इन द लैंड ऑफ मिस्ट खरीदी, किताबों को लेकर कुछ चर्चा हुई.उनका कहना था कि लोग अब किताबें ज्यादा खरीद रहे हैं. खैर सुबह ये दुकान तो बंद है लेकिन इसके सामने टाइम्स ऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, अमर उजाला, जागरण जैसे अखबारों का ढेर लगा हुआ है. टाइम्स ऑफ इंडिया बहुत ज्यादा है. एचटी बहुत कम.
मैं मसूरी पहली बार करीब 32 साल पहले आया. फिर 15 साल पहले. 32 साल पहले यहां हाथ के रिक्शे चलते थे. दो रिक्शेवाले सवारी को सीट पर बिठाकर इसे हाथ में पकड़कर दौड़ते थे. दूसरी बार मुझको कोई रिक्शे नजर नहीं आए. अबकी बार नॉर्मल रिक्शे दिखे. चलाने वाले ज्यादातर सभी पूर्वी यूपी और बिहार के.
रावत जी की दुकान के करीब सामने करीब 100 साल पुराना हेकमन होटल है. जिसके रिसेप्शन को इन दिनों रेनोवेट करने का काम हो रहा है. ऐसा लगता है कि मसूरी में 20 सदी में कई जर्मन बिजनेस करने या अपना कोई धंधा चमकाने यहां आया करते थे. हालांकि ये एक जमाने का बहुत फेमस होटल था. जिसके नीचे की फ्लोर पर कैपिटल सिनेमा चलता था. जर्मनी से आए एक हेयरड्रेसन ने पहले मसूरी में अपना लकदम फैशनेबल सैलून खोला और वहां इतनी दौलत कमाई की माल रोड पर हेकमन होटल बना डाला. 1970 तक चला ये होटल अपने रोजाना के शो, बॉलरूम डांस के लिए आज भी याद किया जाता है. 1970 तक ये किसी तरह चला और फिर बंद कर दिया गया. अब इसे दिल्ली के किसी डेवलपर ने खरीद लिया है. इसका रेनोवेशन चल रहा है.

आगे का हिस्सा कुलरी बाजार का है, जो माल रोड को पिक्चर पैलेस तक लेकर जाता है. ये यहां का सबसे पुराना बाजार है, हालांकि अब इसकी भी रंगत बदल चुकी है, ये बड़े ब्रांड्स के शोरूम का शोकेस हो चुका है. इसी पर यहीं यूनियन चर्च है. इसके आगे गलियां हैं जिसमें दोनों रास्ते अंदर जा रहे हैं. इसी में एक बहुत खास पुरानी बिल्डिंग नजर आई. और आगे वो पिक्चर पैलेस, जो अब बीती कहानी कह रहा है. खंडहर उजाड़, उदास. लेकिन मसूरी में हर कोई इसका नाम रोज हजारों-लाखों बार लेते हैं, क्योंकि यही माल रोड का अंत है. ये 1912 में बना मसूरी का पहला पहला सिनेमा हाल था. इसका प्रोजेक्टर मैन्युअल नहीं चलता था बल्कि बिजली से चलता था. जब ये खूब चलने लगा तो इसके मालिकों ने इसी के नीचे बेसमेंट में दूसरा थिएटर बना दिया जुबिली सिनेमा. तो बदले जमाने ने जुबिली पर भी ताला लगा दिया. माल रोड के किनारे यहीं पर एक मंदिर भी नजर आया. अब यहां वापस लौटने का समय था. बस लौटते समय माल रोड एक और करीब सौ साल पुरानी गुमटी से कुल्लड़ वाली चाय पी गई. और लौट पड़े होटल की ओर. वैसे मसूरी अभी नींद से कुछ जगी और अधजगी थी. वैसे ये मॉल रोड यादें भी है, इतिहास भी, बदलाव भी, खुश्बु भी और ये सटीक बात भी – जो आज है वो कल नहीं रहेगा, किसको मालूम था कि अंग्रेज जिस रोड पर भारतीयों को घुसने भी नहीं देते थे, वहां जमाना बदल चुका है.

मैं नैनीताल, शिमला, ऊटी की माल रोड पर भी चहलकदमी कर चुका हूं. वैसे तो मेरे अपने शहर मेरठ में एक माल रोड है लेकिन उस पर कोई दुकान नहीं है. हालांकि आंकड़े कहते हैं अंग्रेज 17 वीं सदी से लेकर 19 वीं सदी तक जहां गए,. जहां उपनिवेश बनाए, वहां के कुछ शहरों में मॉल रोड भी गुलजार की. वैसे ब्रिटेन का आखिरी उपनिवेश हांगकांग था, जहां उन्होंने 1898 में कब्जा किया और उसे 1997 में आजाद कर दिया.

लेखक – संजय श्रीवास्तव

इसे संजय श्रीवास्तव के फेसबुक पेज जाकर भी पढ़ सकते हैं ‌।

https://www.facebook.com/share/p/1X9H4r1CPF/