कविता
एक और रात दिसम्बर की.
राजकुमार कुम्भज
एक और रात दिसम्बर की
है पिछले बरस जैसी ही है बिल्कुल
पृथ्वी पर अन्न-जल की तलाश में
भूख-प्यास की पुकार को पुकारते हुए
भय है कि भयग्रस्तता के मारे हैं सभी
जागते हुए,भागते हुए हाँफते-काँपते
भागती रेलगाड़ी में सवार हैं सभी के सभी
पुल नीचे सूखी नदी ऊपर सुलगता अलाव
सुल्तान की नींद में ख़लल नहीं ज़रा भी
गहन-गहरे सुनहरे सपनों में सोया है वह
खोया है बचपन का जादू मेलों की भीड़ में
पीठ हैं,भेड़ें हैं,ऊन है दूसरों के लिए
बज रही है बाँसुरी भी कि जल रहा है रोम
अभी-अभी सिनेमाघर से निकले हैं लोग
भीतर देखा सभी ने,सभी कुछ गर्म
चर्चा गर्म,गोश्त गर्म,नारे गर्म परदे पर
रम है और राम है और हैं शब्द दो ही
जिन्हें अंग्रेज़ी में लिखकर देखता हूँ मैं
कुछ तो गड़बड़झाला है मोहनदास
सिर्फ़ एक दुकान नहीं है ये महाजन की
बिकती हैं अरावली पर्वतमालाऍं भी यहीं
मैं उतारना चाहता हूँ छिलके चीज़ों के
फिर भी हैं उम्मीदें कि छूट जाती हैं पीछे
और छूट जाती हैं कई-कई ज़रुरी चीज़ें
रिक्तता में रह जाती हैं रिक्तताऍं संपूर्णतः
फिर व्याकरण और प्याज़ के ही नहीं
उतरता हूँ छिलके ज़रा-ज़रा आग के भी
एक और रात दिसम्बर की.
