स्मरण
समय के साथ चलता शायर – सुरजीत पातर
हरीश जैन
लेखक -हरीश जैन
आज 11 मई को उन्हें गए एक साल हो गया, पर लगता है जैसे कल ही की बात हो। जिस सुबह उन्हें अपनी नई किताब लेकर मेरे पास आना था, उसी दिन दफ्तर जाने की बजाय मुझे लुधियाना जाना पड़ा उन्हें कंधा देने।
नम आँखें, बंदूकों की आवाज़ और पुलिस अधिकारियों की गूंज, आज भी चलचित्र की तरह आँखों के सामने तैर रही हैं। वो पल जैसे थम से गए हों, लेकिन समय आगे बढ़ता जा रहा है।
साल बीत गया और साल बीतते रहेंगे लेकिन उनके शब्द तो समय के साथ-साथ चलते रहेंगे और बदलते समय में नए अर्थ ग्रहण करते रहेंगे।
पुरानी कविताओं में से नए पत्ते फूटते रहेंगे। जैसे उन्होंने खुद लिखा था–
कई बार पुरानी कविताओं में से नए पत्ते फूट पड़ते हैं। चार दशक पहले एक शेर लिखा था-
इतना सच ना बोल कि अकेला रह जाए
चार बंदे बचा ले कंधा देने के लिए।
पिछले साल इस शेर से नए पत्ते फूट गए–
झूठों के झुंडों में सच कहकर
मैं जब बिलकुल अकेला रह गया
तो मैंने सतगुरु को याद किया
तो सवा लाख हो गया।
इसी तरह पातर अपनी एक और कविता का ज़िक्र करते हैं, जो पंजाब की उदास दिनों पर लिखी गई थी और केवल दो पंक्तियों तक ही सीमित रही थी। उस कविता मे फूटे नए पत्तों के बारे वह लिखते हैं-
मातम, हिंसा, खौफ, बेबसी और अन्याय
ये अब मेरे पंजाब की पाँच नदियों के नाम
जो होते थे
सतलुज, ब्यास, रावी, झेलम और चिनाब
जो एक दिन होंगे
राग, शायरी हुस्न, मोहब्बत और न्याय
मेरे पांच नदियों के नाम
यह लिख कर पातर आशा करते हैं कि जैसे उनकी कविता की पंक्तियों से नए पत्ते फूटे हैं । पंजाब की सोच/ संवेदनाओं से भी नए पत्तों का प्रस्फुटन होगा। जब ऐसा चमत्कार होता है, तो फिजा का रंग बदल जाता है–
रुत जब बदली, तो बिन पैग़ाम और उपदेश ही
जो भी कहीं गुलमोहर था वह खिल उठा।
20वीं सदी की मशहूर गायिका जाॅन बायस ने कहा था-
जंगबाजों के खिलाफ़ मेरे पास यही हथियार है –
मेरा छह तारों वाला साज़, मेरी गिटार।
पातर ने जोन बायस की गिटार को समर्पित एक कविता लिखी थी, जिसका एक पद बेहद महत्वपूर्ण है जो हमारे समाज में फैली खाइयों को पाटता है और एक सच्ची विचारधारा की बात करता है–
लेफ्ट कौन है, राइट कौन है, मुझे फ़र्क नहीं
वैसे मेरा दिल है बाईं ओर, इसमें कोई शक नहीं
सच्ची विचारधारा वही है जो दीन-दुखियों तक पहुंचे
मेरा दिल है टुकड़े-टुकड़े
दीन-दुखियों तक पहुंचने वाली सच्चाई किसी को पसंद नहीं होती इसलिए कवि का दिल तो टुकड़े- टुकड़े होना ही है।
बोल तो ‘ निमाणियां दा माण, निताणियां दी ताण’, निओटियां दी ओट’ के गूंजते हैं, लेकिन सुनने वाले कानों को वैसा महसूस नहीं होता ।
पातर कहते हैं कि हम पहले ही बहुत देर कर चुके हैं।
इस देरी को लेकर वे मुनीर नियाज़ी की कविता को दोहराते हैं, जिसका एक शेर है–
हमेशा देर कर देता हूँ मैं
जरूरी बात कहनी हो
कोई वादा निभाना हो
उसे आवाज़ देनी हो
उसे वापस बुलाना हो
हमेशा देर कर देता हूँ मैं।
जनता के दुखों को याद करते हुए फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने अपनी एक कविता में रब को पुकारा है ,जिसे पात्तर ने भी दोहराया है।
उस कविता के दो पद बेहद भावपूर्ण हैं–
रब्बा सोचा तूने और कहा भी था
जा ओए, बंदों का खुदा है तू
हमारी नेमतें तेरी दौलतें हैं
हमारा नायब और आलीजाह है तू।
लेकिन रब के इस वादे का हस्र क्या हुआ !
इस वादे और ठौर-ठिकाने का क्या नतीजा निकला..!
इस गरीब पर क्या-क्या बीता है
क्या तूने कभी याद किया, ऐ रब्बा
कभी पूछा भी है
तेरे शाह के साथ दुनिया ने क्या किया !
चाँद और सूरज रोज़ आसमान में चढ़ते हैं। पात्तर उन्हें किसी चेहरे में देखते हैं और एक और रूप में देखते हैं,इस पद में प्रकट करते हैं–
एक चाँद
औेर एक सूरज
और तेरे हाथों की रोटी।
यहाँ चाँद और सूरज तो गोल हैं ही, रोटी भी गोल है और ये तीनों
एक-दूसरे में समाए हुए हैं ।
क्योंकि कवि की संवेदना ने चाँद और सूरज की रोशनी को उसकी रोटी में देख लिया है।
कुदरत सुरजीत पातर की आत्मा में समाई हुई थी।उन्होंने एक चीनी कविता का अनुवाद किया था, जिसमें दुख की अनंतता और खुशी की क्षणिकता बहुत सहज ढंग से प्रकट हो जाती है-
आड़ू का पेड़ खिला है पर्वत की चोटी पर,
नीचे नदी पत्थरों के साथ संघर्ष करती
फूल मुरझा जाते हैं, जैसे तुम्हारा प्यार
लेकिन लहरें बिना रुके बहती रहती है, जैसे मेरा दर्द।
सुखों के फूल पलक झपकते ही मुरझा जाते हैं, लेकिन दुखों की नदियां हमेशा बहती रहती हैं।
यही दुनिया की सच्चाई है।
अपनी चीन यात्रा के दौरान, टैगोर की दो पंक्तियाँ पातर को इतनी पसंद आईं कि उन्होंने उन्हें अपने लेख में दोहराया-
“ओ प्यारे मुसाफिरो,
मेरी कविता में
अपने पैरों के निशान छोड़ जाओ।”
पातर हर मिलने वाले व्यक्ति, हर कवि और पाठक से यही उम्मीद रखते थे कि वे उनकी कविता में अपनी छाप छोड़ जाएँ।टैगोर की दूसरी कविता का यह पद भी अद्भुत है–
“अगर तुम चाँद के न मिलने पर
अपनी आँखों में आँसू भरे रखते हो,
तो तुम सितारों को भी नहीं देख सकोगे।”
इन पंक्तियों में टैगोर ने जीवन में आगे बढने का दर्शन पेश किया है।
आँसू भरी आँखें आगे नहीं देख सकती।
आगे देखने के लिए बीते आँसुओं से मुक्ति ज़रूरी है।
कन्नड़ के मशहूर नाटककार गिरीश कर्नाड के हवाले से पातर यह बात सुनाते हैं, जो गिरीश के गाँवों में आमतौर पर कही जाती है—
बेटी
और खाने पीने का सामान
इन दोनों को घर में ज़्यादा दिन रखोगे
तो बीमार हो जाओगे।
इसी तरह जीवन के दर्शन को पातर अपनी यात्राओं के दौरान यूँ ही एकत्र करते जाते थे।इन तीन पंक्तियां का जीवन दर्शन पातर इस तरह ही बटोरता रहा । उड़िया कवि रमाकांत रथ की कविता ‘शोक सभा में प्रेमी’ की दो पंक्तियाँ–
नहीं, नहीं, मुझसे मत कहो
कुछ बोलने को।
उसने कहा और शोकसभा की
आखिरी पंक्ति में जाकर बैठ गई।
शोक सभा समाप्त हुई,
तब उसने अपने भीतर से किसी को सिसकते हुए सुना
–तू क्यों आई शोकसभा में
क्या यही सुनने के लिए कि मैं अब कभी नहीं आऊँगा।
प्रेमी-प्रेमिका के मन में बसी भावनाएँ स्थायी होती हैं, वे शोकसभा की उपस्थिति की तरह क्षणिक नहीं होतीं और न ही उन्हें प्रसिद्धि की कोई भूख होती है।
पात्तर लिखते हैं कि जिंदगी, शोहरत से कहीं बड़ी होती है। इसलिए वे अपने मन की स्लेट को ऐसे छोटे-मोटे खरोंचों से साफ़ रखते हैं। इस बारे में उनके दो शेर हैं–
“पंछी हवा को चीरता हुआ आगे चला जाता है
पर छूटते ही हवा की बनी हुई फांक फिर मिल जाती है
नाव की नोक से काटा पानी भी
मुड़कर फिर से मिल जाता है।”
पंछी के पंखों से चिरी गई हवा उसी के गुजरते ही फिर से एक हो जाती है.. इसमें उसका क्या अभिमान..! उसी तरह नाव भी अपने बल पर कितना अभिमान करे..!क्योंकि उसके कटे पानी भी उसके गुजरते ही फिर से मिल जाते हैं। शोहरत भी ऐसी ही होती है ..क्षणिक, और पानी की धार की तरह बहती।
एक जगह सुरजीत पातर मीठे गहरे अर्थों वाले हास्य से भरपूर कविता का ज़िक्र करते हैं–
मेरा दोस्त मुझसे कहता है — ज़्यादा मत हँस,
ये मेरी जान है, ये मेरी पहचान है।
हँसी शब्दों का हथियार है,
जो यथार्थ की गहराई को छूती है।
हँसी में एक बाग़ी की गूंज होती है।
केवल कलाकार और करामाती व्यक्ति ही सच्चा हास्य रच सकते हैं।
हास्य सिर्फ शरीर के स्वास्थ्य के लिए नहीं बल्कि मन की सेहत के लिए भी ज़रूरी है।
हुक्मरानों का पहला वार उन कलाकारों पर ही होता है,जिन्हें अपने समय की गहरी और सच्ची समझ होती है और उनके शब्द नश्तर बनकर हुक्मरानों को चुभते हैं । हालाँकि कई बार उन्हें इसका पता भी नहीं चलता। फिर भी एक सवाल उठता है-
जब मैं दिन को दिन कहूँ,
जब रात को रात कहूँ,
तो मुझसे नाराज़ क्यों हो जाते हो
जब मैं मन की बात कहूँ?
लेकिन इस अंधेरे समय के बीच भी पातर आशा का दामन नहीं छोड़ते। वो चारों दिशाओं में फैले अंधेरे को ज्ञान की रोशनी से चीरने की उम्मीद रखते हैं’–
अंधेरा को लोहा नहीं , रोशनी चीरती है।
ज्ञान भी तलवार है। गुरु का यही कथन है।
वैसे वे ज्ञान को तलवार के सामने खड़ा करते हैं । शब्द की उत्पत्ति को दिखाते हैं । ज्ञान, वह वरदान है जो तलवार से पहले प्राप्त हुआ। ज्ञान को तलवार मानते हुए वे अल्लामा इक़बाल का शेर दर्ज करते हैं–
“पक्के यक़ीन, निरंतर कर्म और प्यार के साथ
जिंदगी के जिहाद में यही लोगों की असली तलवारें हैं
अर्थात दृढ़ विश्वास, सतत कर्म और दुनिया को जीतने की इच्छा ही जीवन के संघर्ष की तीन तलवारें हैं और ये ही रास्ता है अंधकार से बाहर निकलने का।
हालाँकि एक साल बीत गया है । पर सुरजीत पातर मुझे आज भी जैसे चढ़ती हुई धूप की तरह याद हैं और याद हैं उनके साथ समय-समय पर की गई लंबी बातें।सबसे गहराई से जो बात याद आती है,वह है पातर की दूसरों कवियों और लेखकों की मुक्तकंठ से प्रशंसा। उन्हें अनेक कवियों की कविताएं और ग़ज़लें ज़बानी याद रहती थी और बातचीत में अक्सर वे अपनी जगह दूसरों के शेर या पंक्तियों का हवाला देते थे।
आज उन्हें याद करते हुए मैंने उनकी अंतिम प्रकाशित पुस्तकों –’यह बात केवल इतनी ही नहीं’ और ‘सूरज मंदिर की पौड़ियाँ’ को आधार बनाया है।
पातर और अन्य कवियों के सभी संदर्भ और उक्तियां इन्हीं दो पुस्तकों से लिए गए हैं। मेरा उद्देश्य पाठकों को पात्तर की कविताओं के साथ-साथ उनकी पसंदीदा अन्य कविताओं से भी परिचित कराना है।
यही उन्हें मेरा नमन है!
पंजाबी से रूपांतरण-जयपाल
जयपाल – अनुवादक