कविता
किसान
कुलभूषण उपमन्यु
खो गया है किसान
जो हुआ करता था कभी
सबके हिस्से की रोटी का
रखवाला और उत्पादक
चिड़िया, गाय और अतिथि
के भोजन की गारंटी।
अपना हल और अपना बैल
अपना बीज और अपनी मेहनत
और आसरा ईश्वर का
घासों के बीजों से जिसने
बीज बनाए फसलों के
बादल से मांगा पानी
नहर मांग ली नदिया से
बढ़ई बन कर हल बनाया
बन लोहार बनाई फाल
रस्सी भीमल के रेशे से
गाय के गोबर से खाद
अपने हाथ बनाया सब कुछ
आजादी का किला बनाया
जिसमें शासक ने घुस कर
थोड़ा आजादी को छीना
फिर सुख देने आया बनिया
और मशीनी साहब आया
लाया खाद अंग्रेजी
ट्रैक्टर और कंबाइन लाया
नए बीज और सुधरी किस्में
खरीद कराने बैंक भी आया
किसान को सुखी बनाने वाले
लंबी लाइन लगा कर आए
नेता और अभिनेता आए
आजादी का जनक बन गया
गरीब की जोरू सबकी भाभी
बैलों को खा गया ट्रैक्टर
और कमाई, बनियागीरी
आजादी मशीन खा गई
चैन का गया बैंक का कर्जा
बीमारी को बढ़ा गया
हाल पूछने जो भी आया
उठना तो खुद को ही होगा
आजादी का हूं मैं सर्जक।