धर्मेन्द्र आज़ाद की कविता – इंसाफ़ की मंडी में न्याय की बोली

इंसाफ़ की मंडी में न्याय की बोली

धर्मेन्द्र आज़ाद

मी लॉर्ड,
अब ये अदालतें न्याय की चौखट नहीं रहीं,
बल्कि सत्ता की बिछी हुई बिसात बन गई हैं।
यहाँ अब फ़ैसले नहीं,
बल्कि ताक़तवरों की लिखी स्क्रिप्ट पढ़ी जाती है।
क़ानून अब आँखों पर पट्टी नहीं बाँधता,
वो अब जेब में पलता है —
और सिर्फ़ उन्हीं की सुनता है
जिनकी आवाज़ नोटों से लिपटी हो
या जिनकी पहुँच सिंहासन से मिलती हो।

अंकिता भंडारी मारी गई,
गुनहगार — मंत्री का बिगड़ा हुआ बेटा।
गवाह थे, सबूत थे,
जनता की चीख़ें आसमान चीर रहीं थीं —
मगर अदालत ने चुप्पी की चादर ओढ़ ली,
जैसे इंसाफ़ नहीं,
कोई सौदा तय हो रहा हो।

फिर आया एक फ़रमान —
“नाड़ा खींचना, छाती छूना —
बलात्कार नहीं कहलाता।”
तो अब क्या,
महिला तब तक पीड़िता नहीं मानी जाएगी
जब तक उसका चीत्कार
सीसीटीवी में कैद न हो?
क्या यही है
महिला शक्तीकरण?
मी लॉर्ड!

दिल्ली में एक जज के घर से
करोड़ों बरामद हुए —
न ईडी जागी,
न सीबीआई की नींद टूटी।
न्याय वहाँ नोटों की गड्डियों में
दम तोड़ता मिला।
और जो सवाल करे —
उसे देशद्रोही ठहरा दिया जाता है,
यूएपीए की ज़ंजीरों में जकड़ा जाता है।

झुग्गियों पर चलते हैं बुलडोज़र,
अवैध बंगलों पर कानून मौन साधे रहता है।
मज़दूर माँग करे — तो डंडे बरसते हैं,
उद्योगपति लूटे — तो पद्मश्री से नवाजा जाता है।

अयोध्या में
अदालत कहती है —
“हाँ, मस्जिद गिराना ग़ैर-क़ानूनी था…
पर मंदिर वहीं बनेगा।”
क्या अब आस्था के नाम पर
हिंसा को न्याय कहा जाएगा?
क्या गिद्धों की भीड़
अब न्याय की परिभाषा तय करेगी?

जब दलित अपनी ज़मीन बचाए,
तो उससे पीढ़ियों का इतिहास माँगा जाता है —
और जब पूंजीपति देश की धरती निगल जाए,
तो उसे “विकास” का नाम दे दिया जाता है।

मी लॉर्ड,
अब ये अदालतें नहीं,
विशेषाधिकार की अंधी गुफ़ाएँ हैं —
जहाँ ग़रीब का सपना बेआवाज़ कुचला जाता है
और अमीर के पाप,
‘नये भारत’ की पहचान बन जाते हैं।

मगर याद रखना —
जब अंधेरों की हद हो जाती है,
तो उठती है जनता की अदालत।
वहाँ न वकील होते हैं,
न चालबाज़ी,
वहाँ तौले जाते हैं कर्म और जमीर।
हथौड़ा तब
ग़रीब की खोपड़ी पर नहीं,
बिके हुए न्याय की रीढ़ पर गिरता है।

जो इंसाफ़ को टुकड़ों में खरीदते हैं,
वो जनता की आँधी में
कचरे की तरह उड़ जाते हैं।

और तभी उगता है —
इंसाफ़ का नया सूरज —
ना सिंहासन की छाया में,
ना धन की धमक में —
बल्कि जनता के हाथों,
जनता के लिए।

वह लाल सूरज जल्दी ही उगेगा, मी लॉर्ड।