पटरीआकी पटरीमाकी:2-बलभद्दर को दारू में मिला सुकून

पटरीआकी पटरीमाकी:2

बलभद्दर को दारू में मिला सुकून

अजय शुक्ल

शक्तिस्वरूपा रामकली का हाथों प्रसाद पाने के बाद बलभद्दर का जीवन बदल गया। रूखासूखा जो कुछ मिलता, उसे ठंडा पानी पीकर पचा लेता। चुपड़ी रोटी वह सपने में खाता।

उधर रामकली अब मातृशक्ति संस्थान के ऑफिस में अब और ज़्यादा जाने लगी। लौटती तो उसके हाथ में पुस्तकें होतीं। एक दिन बलभद्दर ने किताबों की गड्डी का जायज़ा लिया। उसने किसी किताब या लेखक का नाम नहीं सुना था। एक किताब थी मित्रो मरजानी। पहला पन्ना खोलकर वह उसे घूरता रहा। फिर दूसरी किताब थी अल्मा कबूतरी। उसने उसे भी रख दिया। चित्तकोबारा भी उसने देख कर बंद कर दी। कुछ विदेशी लेखकों के अनुवाद भी रखे थे। जैसे जर्मेन ग्रीअर और सिमोन द बुव्वार। अगली किताब थी इस्मत चुग़ताई की कहानियों की। खोलते ही उसे लिहाफ़ दिखी। दो लाइन पढ़ी तो वह पढ़ता ही चला गया।

कहानी में मज़ा तो आया लेकिन खत्म होते होते उसका माथा ठनक गया…तो मेरी रमकलिया अब बरबाद हो गई है! जो पढ़ती है वही करती होगी वहां मातृशक्ति वालों के यहां !! राम राम राम…साली छिना…!!!

बलभद्दर बनिए के अंदर सहसा जन्म से सोया पड़ा क्षत्रियत्व जाग उठा। उसने माचिस उठा ली। तीली भी जला ली लेकिन इसके पहले कि वह किताबों में लौ छुआ पाता, उसे हाथ में बैट लिए खड़ी देवी रामकली का स्मरण हो आया। और उसका क्षत्रियत्व दलित की तरह कांपने लगा।

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क्षत्रियत्व और दलितत्व की अनुभूतियों के बीच फंसे बलभद्दर को कुछ सूझ नहीं रहा था। वह रोने लगा। नौ बज चुके थे और उसकी प्राणप्यासी मातृशक्ति क्लब से लौटी नहीं थीं। बच्चे सो रहे थे। कुछ देर रोने के बाद वह घर से बाहर निकल गया।

निरुद्देश्य चलता रहा देर तक। मॉल रोड आ गया। सहसा कोई किसी दुकान से बाहर निकला और लड़खड़ाकर उससे टकरा गया। दोनों फुटपाथ पर गिरे। टकराने वाले के मुंह से शराब की महक आ रही थी। बलभद्दर उठा तो टकराने वाला सॉरी सॉरी बोलकर गले से लिपट गया। “सॉरी ब्रो, आयम वेरी हैपी। आज बहुत खुश हूं। जाओ तुम भी हैपी हो जाओ।”

इतना कहकर उसने पर्स से पांच पांच सौ के पांच नोट निकाले और बलभद्दर की जेब में ठूंस कर अपनी कार में बैठकर फुर्र हो गया।

उदास बलभद्दर भी हैपी ही होना चाहता था। उसने दुकान देखी। बड़े बड़े हरूफ़ में PUB लिखा था। वह अंदर घुस गया। दो पेग उतारने के बाद वह भी हैपी महसूस करने लगा और घर चल दिया। घर के अंदर भी उसे हैपीनेस मिली। थाली में कढ़ाई पनीर और लच्छा पराठे मिले। पत्नी मुस्कुराती रही। भोजन के बाद वह गले से भी लिपटी। फिर मुंह सूंघते हुए बोली, “तो पीकर आ रहे हैं मेरे बल्लू बालम!…थोड़ी मेरे लिए भी ले आते।”

“तो तुम भी पीती हो?” बलभद्दर परेशान हो उठा।

“एक आध बार पी है। वो जैस्मीन कॉन्ट्रैक्टर है न मातृशक्ति की सेकेट्री। वही ले आती है कभी कभी। तब एक पेग मैं भी ले लेती हूं।”

“क्यों पीती हो तुम लोग…पता नहीं दारू हराम होती है!” बलभद्दर ने कहा।

“कुछ हराम नहीं होती। मेरी प्रेसिडेंट तो कहती है कि मर्द को रास्ते पर लाना है तो वह सब करना पड़ेगा जो मर्द करता है।”

“और क्या क्या खाती पीती हो?” पति पतनोन्मुख पत्नी के लिए परेशान हो उठा।

“दो तीन जन सिगरेट पीती हैं। और हां, एक ज़रीन खान है। वह ख़ास सिगरेट पीती है। ज्वाइंट है उसका नाम। उसके अंदर कुछ भरा रहता है जिसे वह माल कहती है..लेकिन मैं वो सब नहीं लेती। बस दारू। कभी कभी। एक या दो। बस।”

बलभद्दर हक्का बक्का सा उसे देख रहा था। दूसरी ओर रामकली को उस पर पता नहीं क्यों प्यार आ रहा था। गाल सहलाते हुए बोली, “अरे मेरे बल्लू, अभी तूने कुछ नहीं देखा। अभी तो औरतों का राज आएगा। आदमी कुत्ते की तरह दुम हिलाएगा। मैं जो चाहूंगी करूंगी। चाहूंगी तो प्यार करूंगी और जब चाहूंगी

सर पर बैट चलाऊंगी। चल आज तुझे प्यार करती हूं।”

इतना कहकर वह बल्लू मियां को हाथ से खींचते धकियाते बेडरूम ले गई। बलभद्दर का नशा काफ़ूर हो चुका था। वह चुपचाप मुंह फेरकर लेट गया। रामकली ने कुछ देर इंतजार किया फिर कान में ख़ुसफुसाई, “बैट निकालूं क्या।”

बलभद्दर ने मुंह उसकी ओर कर दिया। बैट के आगे वह बेबस था। उसके शरीर का अतिक्रमण होता रहा। रात भर। वह रोता रहा। रात भर।

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इसके बाद तो बलभद्दर रोज़ पब जाने लगा। दो पेग से चार और चार से अद्धी बोतल हुई और फिर पूरी बोतल पीने लगा। एक रात जब वह पूरी बोतल गटक कर ग़ाफ़िल हो चुका था तो उसने एक अजब सा मंज़र देखा। एक सुंदर सी युवती उसके बगल से निकली और दूसरे छोर पर लगे एक आदमकद शीशे के आगे जा खड़ी हुई। उसने पलट कर बलभद्दर की ओर देखा और उंगली के इशारे से पास बुलाने लगी।

नशे के बावजूद वह उसके पास जाने की हिम्मत न जुटा सका। उसे हर स्त्री के हाथ में बैट नज़र आने लगा था। तिस पर उसे छठी क्लास में रटा श्लोक भी याद आ गया: मातृवत् परदारेषु, परद्रव्येषु लोष्ठवत्।

युवती ने एक बार फिर उसे घूरा और पैर पटकते हुए वह उस आदमकद मिरर में घुस गई! समा गई!!

बलभद्दर को काटो तो खून नहीं। यह कैसे संभव है? कोई शीशे के अंदर कैसे घुस सकता है। वह थोड़ी देर सोचता रहा। फिर उसे एलिस इन वंडरलैंड फिल्म याद आ गई। उसमें एक खरगोश ऐसे ही एक शीशे को पार कर विचित्र दुनिया में पहुंच जाता है।

कुछ सोचते हुए वह डगमगाते कदमों से मिरर के पास चला गया। कुछ देर अपना चेहरा देखता रहा। फिर अचानक वह भी मिरर में घुस गया। बड़े ज़ोर का धमाका हुआ और अगले ही पल वह एक अंधेरी सुरंग में था।

वह डर गया और ज़ोर से चिल्लाया, “अरे कोई है!”

“डरो नहीं” एक नारी स्वर गूंजा। “मैं हूं। पहले मेरे बुलाने पर क्यों नहीं आए थे… ख़ैर तुम आगे बढ़ते आओ। मैं इंतज़ार कर रही हूं।”

थोड़ी ही देर में बलभद्दर उस युवती से जा टकराया। वह बड़े ज़ोर से हंसी और बोली, डरो मत। कुछ ही कदमों में उजाला मिल जाएगा और मैं पहुंच जाऊंगी जन्नत में। मैं तो अक्सर यहां आती हूं। मर्दों के बनाए नरक से जब ऊब जाती हूं। मैं यहां जन्नत में चली आती हूं।”

“कैसी जन्नत?” बल्लू ने खुद को युवती से दूर करते हुए पूछा।

“औरतों की जन्नत। जहां रंभा, मेनका आदि हूरें नहीं, सुंदर सुंदर फरिश्ते नाचते हैं।” इतना कहकर उसने बलभद्दर का हाथ पकड़ा और उसे खींचते हुए आगे बढ़ चली। बलभद्दर को सुरंग के पार उजाला दिखने लगा था।

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लेखक -अजय शुक्ल

अगली किस्त: बलभद्दर इन वंडरलैंड

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