ओमप्रकाश तिवारी की कहानी- बैल

 बैल

ओमप्रकाश तिवारी

एक जमाना था कि यदि किसी पशुपालक की गाय बछड़े को जन्म देती थी तो जश्न मनाया जाता था। वैसे ही जैसे बेटा पैदा होने पर मनाया जाता है। एक समय अब है कि गाय बछड़े न जने इसके लिए तकनीक का इस्तेमाल किया जा रहा है। ऐसा प्रावधान करने की को​शिश की जा रही है कि गाय बछिया को ही जन्म दे। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि समय के साथ बछड़े कितने अनुपयोगी हो गए हैं। कोई भी किसान बछड़ा शान से पालता था। इसकी वजह यह थी कि बड़ा होकर वह उसके खेती के तमाम कामों में काम आता था। बछड़े को पीने के लिए दूध मिले इसके लिए किसान गाय का दूध भी कम ही निकालता था। आज के समय में तो कई पशुपालक गाय का पूरा दूध इसलिए निकाल लेते हैं कि बछड़ा धीरे-धीरे मर ही जाए।

कख की गाय ने एक बार बछड़े को जन्म दिया था। वह बड़ा हुआ तो उसे पालना बेकार लगने लगा। उससे मु​क्ति पाने के लिए जिप्पी काका ने एक आदमी को पांच सौ रुपये दिए तो वह उसे लेकर गोशाला गया। वहां पर उन्होंने एक हजार रुपये दिए तो वह रखा गया। हालांकि कुछ दिन बाद वह गोशाला से भाग कर घर आया, लेकिन उसे किसी ने बांधा नहीं। वह आवारा पशुओं के साथ घूमता रहा और एक दिन उन्हीं के साथ वह भी पकड़ा गया। गाड़ी पर लादा गया और फिर कभी नहीं दिखा। कख को याद आया ​कि वह जब से समझने लगे हैं दरवाजे पर बैल देखते आ रहे हैं। यह बैल गाय के बछड़े से ही तैयार होते थे।

बचपन में देखा था कि खेतों की सिंचाई के लिए बैलों से कुएं से पानी निकाला जाता। इसे पुर कहते थे। इसमें दो बैलों, दो आदमी और एक कुएं की जरूरत होती। इसके लिए कुएं के पास ही पउदर बनाई जाती, जिस पर बैल चलते। एक चमड़े की मोट होती थी, जिसमें कुएं से पानी निकाला जाता। एक लंबी मोटी रस्सी जिसे नार कहा जाता था, जरूरत पड़ती थी। इससे मोट बंधी होती। बैल के जुआठ में इसे बांध दिया जाता। बैल पउदर पर चलते और इसी के सहारे मोट कुएं से पानी भरकर ऊपर लाती। एक आदमी कुएं से पानी लेकर निकली मोट को खींचकर ओडान में गिरा देता। इसके बाद पानी नाली के रास्ते खेत में पहुंच जाता। यह बहुत धीमी प्रक्रिया थी, लेकिन उस समय सिंचाई की यह एक मात्र प्रक्रिया थी। खास करके गर्मियों में वही किसान खेती कर पाता जिसके पास कुआं होता और उसमें पर्याप्त पानी होता। इसके अलावा पुर चलाने के लिए दो बैल होते। दो आदमी तो वह मजदूरी पर रख लेता। इसके अलावा एक आदमी खेत की ​सिंचाई के लिए भी लगता। ऐसा बहुत ही कम किसान होते जिनके पास यह सुविधा होती।

कख जब किशोरावस्था में पहुंचे तो सिंचाई की विधा बदली। कई क्षेत्रों में नहर आ गई थी। जहां नहर नहीं थी वह सरकारी नलकूप लग गए थे। इसके अलावा निजी तौर पर भी किसान नलकूप लगाने लगे थे। फिर भी बहुत से किसान नलकूप नहीं लगा पाते थे। ऐसे किसान जिसके पास नलकूप होते उससे घंटे के हिसाब से सिंचाई के लिए पानी लाते। यह महंगा था, लेकिन खेती करनी है तो यही तरीका था। एक तरीखा तालाब होता था। परंतु यह सुविधा भी हर किसी के पास नहीं थी। तालाब के लिए जगह चाहिए। उसमें पानी एक​त्रित करना पड़ता था। इसके बाद उससे सिंचाई होती। पानी जब कम हो जाता तो दुबला से ऊपर निकाला जाता। इसके लिए दो मजदूर लगते थे। तलाब के एक किनारे जहां पानी आसानी से आ जाता वहां पर गहरा गड्ढा बनाया जाता। उसमें से दुबले से पानी निकाला जाता।

कख के बुजुर्गों के पास तालाब था। इसके पास ही कुआं भी था। तालाब में पानी एकत्रित होता तो इसका लाभ भूमिगत जल को भी मिलता था। कुएं का पानी कभी घटता नहीं था। उसका जलस्तर हमेशा बेहतर बना रहता। हालांकि जब पुर चलता तो शाम तक या दूसरे दिन कुआं सूख जाता, लेकिन रात भर में पानी फिर आ जाता। कख को याद आया कि तालाब से उसके धान की फसल की सिंचाई आराम से हो जाती थी। बरसात में तो दुबला भी न लगना पड़ता। बाद में गन्ने और आलू आदि फसल के लिए दुबले की जरूरत पड़ती थी। सिंचाई की दोनों प्रक्रियाएं श्रमसाध्य थीं। धन की भी जरूरत पड़ती। यही वजह होती कि अ​धिकतर किसान ऐसी खेती करते जो प्रकृति पर निर्भर होती। किसी तरह जुताई करके खेत में बीज डाल देते। बारिश हुई तो फसल हो गई अन्यथा संतोष कर लेते कि प्रकृति ने दया नहीं की। किस्मत में नहीं था।

कख को याद आया एक बार उनकी धान की फसल सूख गई थी। बा​रिश हुई नहीं और दूसरे के नलकूप से सिंचाई के लिए नंबर ही नहीं आ पाया। जब तक उनका नंबर आया फसल सूख चुकी थी। इसके बाद कख के पिता जी ने ट्यूबवेल लगवाया था। इस समय तक सरकार नलकूप लगवाने के लिए काफी मदद देने लगी थी। शायद यह हरित क्रांति वाला दौर था। इस तरह बैल सिंचाई से मुक्त हो गए, लेकिन जुताई में उनकी उपयोगिता बनी हुई थी। कख को याद आया कि एक बार उनके पिता दो बैल खरीद कर लाए। गांव के दस किलोमीटर दूर पशुओं की बाजार लगती थी। इसमें लोग अपने बैल बेचने के लिए लाते थे। कई कई किलोमीटर से लोग बैल बेचने के लिए लाते तो खरीदने के लिए भी लोग दूर-दूर से आते। इस बाजार के लिए सप्ताह में दो दिन तय थे। हालांकि कई व्यापारी हमेशा ही जमे रहते। वह किसानों से बैल खरीदकर लाते और उन्हीं को बेच देते ​थे। इसलिए बाजार में उनकी उप​स्थिति हमेशा ही बनी रहती। इसी बाजार से कख के पिता ने दो बैल लिए थे। इस तरह के बैल प​श्चिमी यूपी, हरियाणा और पंजाब में पाए जाते थे। जब उनके बैल खेत की जुताई करने लगे तो गांव के कई लोग देखने के लिए आए। इतने लोग आए कि उस दिन खेत की जुताई नहीं हुई।

जिप्पी काका बताते हैं कि मेला ही लग गया था। बैलों को देखने लोग घर तक आए। बैल काफी ऊंचे थे। तंदुरुस्त थे। एकदम सफेद थे। खेत में घोड़े की तरह चलते थे। इस तरह के बैल गांव में कम ही थे। खेत जोतने के अलावा लोग बैलों को बैलगाड़ी में नाधते यानी इस्तेमाल करते। कई लोग अपनी बैलगाड़ी से ही रिश्तेदारी आदि जगहों पर जाते। बाजार आदि भी बैलगाड़ी से जाते। कई लोग बैल पाल कर बैलगाड़ी चलाते और किराए पर लोगों को उनकी जरूरत की जगह पर ले जाते। हालांकि इस प्रक्रिया में घोड़ागाड़ी भी होती जिसे इक्का कहा जाता। गन्ने की पेराई, सरसों के तेल की पेराई और गेहूं-जौ की पिसाई के लिए भी बैल इस्तेमाल किए जाते थे। किसानों के लिए बैल शान होते ​थे। संपदा तो थे ही।