सोच
ओमप्रकाश तिवारी
बहुत दिनों बाद
वे आये थे शहर
अदब में मैंने भी
जोड़े थे दोनों हाथ
उन्होंने बढ़ा दिया था
अपना एक हाथ
मुस्कराते हुए मैंने भी
अपने दोनों हाथों में
भर लिया था उनका हाथ
सम्मान में गर्दन झुकते हुए
कुछ दिनों पहले
एक मुलाकात में
उन्होंने कहा था
मांगों सब मिलेगा
मैं हैरान, परेशान था
क्या मांगू? क्या मिलेगा?
सोचा भगवान इस तरह मिल जाएंगे
कभी कल्पना भी नहीं की थी
सूखे होंठों को जीभ से तर करते हुए
केवल इतना ही कहा था उनसे
क्या मांगना और क्या मांगू?
आप तो सबकुछ जानते हैं
तभी दिमाग ने हौले से कहा
ऐसा मौका फिर नहीं मिलेगा
मगर दिल ने झिड़क दिया
हक स्वाभिमान से लेते हैं
भिखारी न दया का पात्र है तू
ये राजा न है भगवान
मांग लो, उन्होंने फिर कहा था
बदले में मैं मुस्कुराया था
अचानक ही छोटा लगने लगे थे
बिना कुछ मांगे चला आया था
अब सोचता हूं कई-कई बार
देने का वाला दाता क्या इतना गरीब होता है?
क्यों नहीं जानता दरिद्र की इच्छा?
अब जबकि वह मेरे शहर में थे
मेरे बगल में खड़े थे
सोचा उन्हीं से पूछ लेता हूं
लेकिन दिल ने कहा
छोटी सोच वालों से बड़ा सवाल नहीं करते
उन्हीं की जमात बढ़ेगी
चुप रहोगे तो क्या पता
वह शर्मिंदा ही हो जाएं
शायद किन्ही पलों में
मौका देने वाला होता है बड़ा
अवसर भुनाने वाला कतई नहीं।