चीन की विस्तारवादी मानसिकता को खूब समझते थे नेहरू

चीन की विस्तारवादी मानसिकता को खूब समझते थे नेहरू

ओमप्रकाश तिवारी

करीब दो साल पहले एक अखबार में लिखे लेख में लेखक ने लिखा था कि देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू चीन को लेकर सतर्क नहीं थे। उनसे जब एक अधिकारी ने कहा कि भारत पर चीन हमला कर सकता है। हमें अपनी सेना को मजबूत करना चाहिए। इस पर नेहरू ने उस अधिकारी से कहा था कि चीन ऐसा नहीं कर सकता है। यह मूर्खतापूर्ण बात है। आगे लिखा गया था कि नेहरू के इसी नजरिए की वजह से 1962 में जब चीन में आक्रमण किया तो भारत कमजोर पड़ गया और उसकी पराजय हुई।

नेहरू को बदनाम करने के लिए इस तरह की गप लोग लिखते रहते हैं। नेहरू का चीन के प्रति क्या नजरिया था। देश के उस समय क्या हालात थे। भारत-चीन सीमा की क्या स्थिति थी। भारतीय सेना और चीन की सेना की क्या स्थिति थी। सीमा की भौगोलिक स्थति क्या थी।

इन सबको समझे बिना भारत और चीन के संबंधों को नहीं समझा जा सकता। यही सही है कि नेहरू को यह यकीन नहीं था कि चीन हमला कर देगा, लेकिन वह यह जानते थे कि चीन अपनी सीमा का विस्तार करने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। उनकी आशंका इसलिए भी थी कि उसी समय चीन में भी सियासी ताैर पर उथपुथल मची थी। वह तिब्बत को कब्जा रहा था। इसके अलावा भारत और चीन के बीच अंतरराष्ट्रीय सीमा का निर्धारण भी नहीं हुआ था। भारत नया नया आजाद हुआ था। चीन में भी राजशाही का पतन होकर कम्युनिस्ट सरकार बनी थी।

नरेंद्र चपलगावकर की किताब प्रधानमंत्री नेहरू पढ़ने से काफी कुछ स्पष्ट हो जाता है। इस किताब में उस समय के हालात के बारे में तथ्यपरक विवेचना की गई है। भारत और चीन के संबंधों की स्थिति। उस पर नेहरू का नजरिया और उनके विचार के बारे में विस्तार से बताया गया है।

दरअसल, नेहरू ने चीन को कभी भी हल्के में नहीं लिया। नेहरू चीन की विस्तारवादी मानसिकता और नीति से परिचित थे। इसके लिए वह सतर्क भी थे और तैयारी भी कर रहे थे।

हां, चीन इस तरह से हमला कर देगा इसका उन्हें विश्वास नहीं था। वह यह तो जानते थे और कहते भी थे कि चीन अपनी सीमा का विस्तार करने के लिए कुछ कर सकता है। लेकिन, भारत पर हमला कर देगा ऐसी कल्पना वह नहीं कर पाए थे। मगर इसका मतलब यह नहीं था कि चीन को लेकर नेहरू किसी गफलत में थे।

नेहरू ने कई बार अपने मंत्रिमंडल के सहयोगियों, सेना के अधिकारियों से यह कहा था कि चीन विस्तारवादी देश है। वह अपनी सीमा विस्तार के लिए किसी भी हद तक जा सकता है।

इसलिए भारत को बेहद सतर्क रहने की जरूरत है। नेहरू यह देख रहे थे कि चीन तिब्बत को किस तरह से हड़प रहा है। वह तिब्बत के बाद भारत की तरफ बढ़ सकता है। इसकी वजह यह भी थी कि तिब्बत की सीमा भारत से मिली हुई थी। इसके अलावा आज का अरुणाचल तब

तिब्बत से संचालित होता था। तिब्बत एक स्वतंत्र राज्य तो था, लेकिन उसकी अपनी कोई सेना या सरकार नहीं थी। वह धार्मिक मठ से संचालित होता था। बाद में उसने सेना भी बनाई, लेकिन तब तक चीन का हस्तक्षेप उस पर बढ़ गया था। इसी बीच भारत ने भी अरुणाचल को भारत में मिला लिया था। वहां पर अपनी पहुंच बना ली थी।

दरअसल, आजादी के साथ भारत को विरासत में वही अंतर्राष्ट्रीय सीमाएं मिलीं थीं जो अंग्रेजों के समय बनाई गईं थीं। भारत और चीन के बीच भी मान्य अंतरराष्ट्रीय सीमा का निर्धारण नहीं किया गया था आजादी के बाद अंतरराष्ट्रीय सीमा पर असमंजस बना हुआ था।

अंग्रेजी हुकूमत के समय एक मैकमोहन सीमा रेखा पर बातचीत की गई थी। चीन की तरफ से इसे खारिज कर दिया गया था। इसलिए भारत और चीन के बीच सीमा को लेकर कोई स्पष्ट  स्थिति नहीं थी।

जवाहरलाल नेहरू अंग्रेजी हुकूमत के समय चीन के साथ हुए मैकमोहन समझौते के तहत मैकमोहन रेखा को ही सीमा रेखा मानते हुए अपनी तरफ से की तैनाती किए हुए थे. यह रेखा बेहद दुर्गम स्थल पर थी। अंग्रेजों ने अपने शासन काल में यहां तक सेना तैनात करने की सोची भी नहीं थी। इसी वजह से आजाद भारत के सामने चुनौती थी। वहीं, चीन की तरफ से मैकमोहन समझौते को खारिज कर देने से मैकमोहन रेखा पर भी दुविधा की स्थिति थी। ऐसा करके चीन ने सीमा विस्तार की नीति को आगे बढ़ा रहा था। यह बात नेहरू को पता थी, लेकिन अपनी आर्थिक स्थिति को देखते हुए नेहरू युद्ध के माध्यम से सीमा का निर्धारण नहीं चाहते थे। भारत अंग्रेजों से आजाद हुआ था। उसकी हालत ठीक नहीं थी। यहां तक की उसके पास अपनी जनता को खाने के‌ लिए भी अनाज नहीं था। वह कभी अमेरिका तो कभी चीन से अनाज की व्यवस्था कर रहा था।

अमेरिका ने इस संबंध में भारत की मदद नहीं की थी, लेकिन चीन ने की थी। यही वजह थी नेहरू का चीन के प्रति नरम रुख भी था, लेकिन इसका मतलब यह नहीं था कि नेहरू चीन के आगे झुकने वाले थे।

जब दलाई लामा तिब्बत से भाग कर आए तो नेहरू ने उन्हें शरण दी और चीन के एतराज पर दो टूक कहा कि भारत एक संप्रभु देश है। उसे क्या करना है और उसके लिए क्या उचित है वह अच्छी तरह से जानता है। इस बारे में उसे किसी अन्य देश की सलाह की जरूरत नहीं है। दलाई लामा को शरण देने की वजह से ही चीन खफा हुआ था। माओ त्से तुंग को यह पसंद नहीं आया था। इसी वजह से माओ ने नेहरू को सबक सिखाने की ठानी और 1962 में हमला कर दिया। हालांकि इससे पहले भी चीन भारतीय सैनिकों पर हमला कर चुका था। आक्साई चीन को कब्जा चुका था। उसकी निगाह लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश पर थी। यही नहीं वह सिक्किम तक अपनी सीमा बढ़ाना चाहता था। हालांकि ऐसा कर पाना उसके लिए संभव नहीं था इस बात को वह भी जानता था। यही वजह रही कि उसने भारत पर हमला करने के बाद कुछ दिनों बाद एक तरफा युद्ध विराम भी घोषित करता है।

बहरहाल, नरेंद्र चपलगावकर लिखते हैं कि भारत आजाद हुआ तो दूर के असम के मानचित्र देखें तो यह नजर आता है की असम की उत्तरी सीमा मैकमोहन रेखा के लगभग समान ही थी। स्वतंत्र भारत को भी यह स्वीकार थी। अंतरिम संसद में भाषण देते समय जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि लद्दाख से नेपाल की सीमा तक और भूटान से असम तक अखंड प्रदेश के रूप में तिब्बत भारत से सटा हुआ है. शिमला परिषद में सन 1914 को भूटान के आगे पूर्व की तरफ और तिब्बत की सीमा रेखा मैकमोहन रेखा के नाम से निश्चित हुई है। लद्दाख से नेपाल तक की सीमा रेखा आज तक के इस्तेमाल और परंपरा द्वारा निश्चित की गई है। हमारे मानचित्र यह दिखाते हैं कि मैक मोहन रेखा हमारी सरहद है। चाहे मानचित्र हो या ना हो, वास्तविकता यही है कि यही प्रत्यक्ष सरहद है और हम किसी को भी यह सरहद पार नहीं करने देंगे।

नरेंद्र चपलगावकर लिखते हैं कि नेहरू ने चाहे दृष्टांत से यह बताया हो कि मैक मोहन रेखा के दक्षिण का हिस्सा हमारा है, लेकिन ब्रिटिश दौर में यह हिस्सा भारत में होने के बावजूद उसकी पूरी तरह से अनदेखी हुई थी। जाहिर सी बात है कि इस पहाड़ी इलाके में अंग्रेजों को कोई लाभ नहीं दिखता था इसलिए सुरक्षात्मक और प्रशासनिक व्यवस्था का विस्तार नहीं किए गए थे। इसकी सुरक्षा करना था, ऐसा प्रयास भारत सरकार ने किया भी, लेकिन यह उतना आसान भी नहीं था।

चीन के साथ सीमा रेखा निर्धारण में एक समस्या तिब्बत था। तिब्बत खुद को स्वायत्त राज्य मानता था। चीन उसे अपने अधीन मानता था। अंग्रेजी हुकूमत ने भी तिब्बत को चीन के अधीन ही माना था। इस वजह से तत्कालीन भारत सरकार को भी तिब्बत को चीन के अधीनही मानना पड़ा। हालांकि नेहरू तिब्बत की स्वयत्ता का सम्मान करते थे। यही वजह है कि तिब्बत के लोग भारत से मदद की अपेक्षा भी करते थे। जब दलाई लामा चीन की नीतियों सेपरेशान होकर तिब्बत से पलायन करके भारत आते हैं तो नेहरू न केवल उन्हें शरण देते हैं बल्कि चीन को भी दो दूक जवाब देते हैं।

बहरहाल भारत सरकार को भी उसी सीमा रेखा को स्वीकार करना था जो उसे अंग्रेजों से मिली थी। चीन के बारे में उसे उसी नीति का भी पालन करना था। अन्यथा की स्थिति में युद्ध ही दूसरा रास्ता था। युद्ध की स्थिति में भारत कमजोर था। यह 1962 के युद्ध में साबित भी हो गया। अपनी सैन्य कमजोरी की वजह से ही उसे कश्मीर में भी पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध विराम का समझौता करना पड़ा था। आजादी के सयम भारत के पास करीब ढाई लाख सैनिक थे जो कि साल 1959 तक साढ़े पांच लाख हुए थे। दूसरे देशों से लड़ाई के लिए विमान आदि खरीदे जा रहे थे, लेकिन दूसरी हकीकत यह थी कि देश की अनता के लिए भारत को अनाज की ज्यादा जरूरत थी। सीमा को मजबूत करने के साथ ही उसे जनता की भूख को भी देखना था।