पत्र एक
वर्धा, सी पी,भारत.
23 जुलाई, 1939
प्रिय मित्र,
मित्र लोग मुझसे आग्रह कर रहे हैं कि मैं इन्सानियत के नाते आपको लिखूं। लेकिन मैं उनका अनुरोध इस भावना के कारण टालता रहा कि मेरी तरफ़ से आपको कोई भी पत्र गुस्ताख़ी माना जायेगा। कुछ है जो मुझे बता रहा है कि मैं गुणा भाग न करूं और जरूर ही अपील करूं भले ही उसकी कोई भी अहमियत हो।
ये बात तो एकदम साफ़ है कि पूरी दुनिया में आज आप अकेले ऐसे शख़्स हैं जो युद्ध को रोक सकते हैं। ऐसा युद्ध जो इन्सानियत को मटियामेट कर देगा। आपको उस चीज़ की क़ीमत चुकानी ही पड़ेगी चाहे वह आपको कितनी भी क़ीमती लगे? क्या आप एक ऐसे आदमी की अपील पर ध्यान देंगे जिसने काफ़ी हद तक सफलता का ख़्याल किये बिना युद्ध के तरीक़े को जानबूझ कर त्याग दिया है? ख़ैर, मैं पहले से ही माफ़ी चाहूंगा अगर मैंने आपको लिखने की ग़लती की हो।
सदैव
आपका ही मित्र
मोहनदास करमचंद गांधी,
प्रति
श्रीमान हिटलर,
बर्लिन,जर्मनी
पत्र-2
वर्धा
24 दिसम्बर, 1940
प्रिय मित्र,
मैं आपको मित्र के रूप में संबोधित कर रहा हूं, ये कोई औपचारिकता नहीं है। मेरा कोई शत्रु नहीं है। पिछले 33 बरस के दौरान मेरे जीवन का एक ही मक़सद रहा है कि जाति, नस्ल या रंगभेद पर ध्यान दिये बिना पूरी मानवता से मैत्री क़ायम करके अपने मित्रों की संख्या बढ़ाता चलूं।
मैं ये विश्वास कर रहा हूं कि आपके पास ये जानने का समय और इच्छा होगी कि वैश्विक मैत्री के सिद्धांत के प्रभाव में जीने वाली मानवता का एक बहुत बड़ा हिस्सा आपके कामों को किस रूप में लेता होगा। हमें आपकी बहादुरी या अपनी मातृभूमि के प्रति आपकी श्रद्धा में कोई शक नहीं है और न ही हम ये मान कर चल रहे हैं कि आप कोई दैत्य हैं जैसा कि आपके विरोधी कहते हैं। लेकिन आपके खुद के और आपके मित्रों और प्रशंसकों के लिखे हुए शब्द और घोषणाएं शक की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ते कि आपके कई कर्म दैत्यों वाले हैं और मानवीय गरिमा के ख़िलाफ़ जाते हैं, ख़ासकर मेरे जैसे आदमियों के आकलन में जो विश्व मैत्री में विश्वास रखते हैं। आपने चेकोस्लोवाकिया को अपमानित किया, पोलेंड को तहस नहस कर दिया और डेनमार्क को तो धूल में ही मिला दिया। मुझे पता है कि आप जिस तरह का ज़िंदगी का नज़रिया रखते हैं, इस तरह की हरमजदगियां आपके लिए बहुत बहादुरी के कारनामे हैं। लेकिन हमें बचपन से ही से सिखाया गया है कि इस तरह के काम मानवता को शर्मसार करने वाले काम होते हैं। इसलिए हम शायद आपकी सफलता की कामना नहीं कर सकते।
लेकिन हमारी स्थिति थोड़ी अलग है। हम ब्रिटिश साम्राज्यवाद का मुक़ाबला कर रहे हैं। वे किसी भी मायने में नाजियों से कम नहीं हैं। अगर दोनों में कोई फ़र्क़ है तो वह मात्रा का ही फ़र्क़ है। पूरी मानव जाति का पांचवां हिस्सा ब्रिटिश शासन के दमन चक्र तले ले आया गया है और कोई सुनवाई नहीं है। इसके प्रति हमारा विरोध ब्रिटिश नागरिकों को नुक्सान पहुंचाना नहीं है। हम उन्हें बदलना चाहते हैं न कि लड़ाई के मैदान में उन्हें हराना। ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ ये हमारा निहत्थों का संघर्ष है। पता नहीं कि हम उनका हृदय परिवर्तन कर पाते हैं या नहीं, लेकिन ये हमारा दृढ़ निश्चय है कि हम अहिंसा और असहयोग के बल पर उनके शासन को असंभव बना कर रहेंगे। ये तरीका अपनी प्रकति में ही ऐसा है कि जिससे बचा नहीं जा सकता। यह इस ज्ञान पर आधारित है कि शोषक व्यक्ति शोषित व्यक्ति की स्वेच्छा से या जबरदस्ती से, सहयोग की एक निश्चित मात्रा के बिना कुछ हासिल कर ही नहीं सकता। हमारे शासक हमारी ज़मीन हथिया सकते हैं, हमारे शरीरों पर राज कर सकते हैं लेकिन हमारी आत्मा उनके शिकंजे में नहीं फंस सकती। वे हमारा शरीर हर भारतीय – नर नारी और बच्चे को पूरी तरह से नष्ट करके ही पा सकते हैं। ये बात है कि सब लोग वीरता के उस अंश तक नहीं पहुंच सकते और ये भी सच है कि बहुत बड़ी मात्रा में डर की भावना भी विद्रोह को कमज़ोर कर सकती है लेकिन ये तर्क मूल मुद्दे से अलग ही रहेगा। कारण ये है कि भारत में बड़ी संख्या में ऐसे स्त्री और पुरुष मिल जायेंगे जो अपने शोषक के ख़िलाफ़ बिना किसी दुर्भावना के अपनी जान देने को तैयार हो जायें बजाये उनके सामने घुटने टेकने के। ऐसे ही लोग हिंसा के तांडव के ख़िलाफ़ आज़ादी का बिगुल बजायेंगे। मैं आपसे कहता हूं कि मेरी इस बात पर भरोसा करो कि भारत में आपको ऐसे अनगिनत पुरुष और महिलाएं मिल जायेंगी। वे पिछले बीस बरस से इसी तरह का प्रशिक्षण पा रहे हैं। हम पिछले पचास बरस से ब्रिटिश शासन तंत्र को उखाड़ फेंकने की कोशिश कर रहे हैं। आज़़ादी का आंदोलन कभी भी इतना मजबूत नहीं हुआ था जितना इस समय है। सबसे अधिक शक्तिशाली राजनैतिक संगठन मेरा मतलब इंडियन नेशनल कांग्रेस इस लक्ष्य को पाने के लिए जी जान से जुटा है। अपने अहिंसात्मक प्रयासों के ज़रिये हमने काफ़ी हद तक सफलता पा ली है। ब्रिटिश शासन तंत्र विश्व के सबसे अधिक संगठित हिंसक तंत्रों में से एक है और हम उससे निपटने के लिए सही तरीके खोजने में लगे हुए हैं। आपने उसे चुनौती दी है। यह देखना बाक़ी है कि ब्रिटिश ज्ज़्यादा संगठित हिंसक तंत्र है या जर्मन। हम जानते हैं कि ब्रिटिश सोच का मतलब हमारे लिए क्या होता है और दुनिया की ग़ैर यूरोपीय देशों की जातियों के लिए क्या मतलब होता है। लेकिन हम जर्मन की मदद से कभी भी ब्रिटिश शासन से छुटकारा पाना नहीं चाहेंगे। हमने अहिंसा का रास्ता खोज लिया है। ये एक ऐसी ताक़त है जो, अगर संगठित हो तो दुनिया की सबसे हिंसक ताक़तों के मिले जुले समूह का भी बिना किसी शक के मुक़ाबला कर सकती है। अहिंसा की तकनीक में, जैसा कि मैंने कहा, हार जैसी कोई चीज़ नहीं है। ये बिना मारे या घायल किये करो या मरो में विश्वास रखती है। मज़े की बात कि इसे बिना किसी धन के और निश्चित ही विनाश के विज्ञान का सहारा लिये बिना इस्तेमाल किया जा सकता है। आपने तो दोनों का सहारा ले कर देख ही लिया है। मैं ये देख कर हैरान हूं कि आप ये नहीं देख पा रहे कि अहिंसा किसी की बपौती नहीं है। न सही ब्रिटिश, निश्चित ही कोई और ताक़त उभर कर आयेगी जो आपके तरीके का भंडाफोड़ करेगी और आपके हथियार से ही आपका ख़ात्मा करेगी। आप कोई ऐसी विरासत छोड़ कर नहीं जाने वाले जिस पर आपके जाने के बाद आपकी जनता आप पर गर्व करे। क्रूरता के कामों पर, चाहे वे जितने भी शानदार तरीके से अंजाम दिये गये हों, कोई भी कौम उनका गुणगान नहीं ही करेगी। इसलिए मैं आपसे इन्सानियत के नाम पर गुज़ारिश करता हूं कि युद्ध को बंद करें। अगर आप अपनी साझी पसंद के किसी अंतर्राष्ट्रीय ट्रिब्यूनल के पास अपने और ग्रेट ब्रिटेन के सभी विवादित मामले ले जाते हैं तो आप बिल्कुल भी नुक्सान में नहीं रहेंगे। अगर आपको युद्ध में जीत मिलती भी है तो इसका से मतलब नहीं होगा कि आप सही थे। इससे सिर्फ़ यही सिद्ध होगा कि आपके पास विनाश की ताक़त ज़्यादा बड़ी थी। जबकि किसी तटस्थ ट्रिब्यूनल द्वारा दिया गया फ़ैसला ये बतायेगा कि जहां तक मानवीय रूप से संभव रहा, कौन सा पक्ष सही था।
आपको पता ही है कि कुछ ही अरसा पहले मैंने प्रत्येक ब्रिटिश नागरिक से यह अपील की थी कि मेरे अहिंसात्मक विरोध के तरीके को स्वीकार करें। मैंने ऐसा इसलिए किया कि ब्रिटिश मुझे एक दोस्त बेशक बाग़ी दोस्त के रूप में मानते हैं। मैं आपके लिए और आपकी जनता के लिए अजनबी हूं। मुझमें इतना साहस नहीं है कि जिस तरह की अपील मैंने हर ब्रिटिश नागरिक से की है, उसी तरह की अपील आपके सामने कर सकूं। ऐसा नहीं है कि मेरी अपील का वैसा गहरा असर नहीं होगा जैसा कि ब्रिटिश लोगों के मामले में था। लेकिन मेरा ये वाला प्रस्ताव बहुत आसान है क्योंकि ये बहुत व्यावहारिक और जाना पहचाना है।
इस समय के दौरान जबकि यूरोप के लोगों के दिल में शांति की चाह ज़ोर मार रही है, हमने यहां तक किया है कि अपने खुद के शांतिपूर्ण संघर्ष भी स्थगित कर रखे हैं। क्या आपसे ये उम्मीद करना ज़्यादती होगी कि आप एक ऐसे समय में शांति के लिए प्रयास करें। इसका आपके खुद के लिए व्यक्तिगत रूप से कोई अनुवाद : सूरज प्रकाश)मतलब नहीं हो सकता लेकिन उन लाखों यूरोपवासियों के लिए ये बहुत बड़ी बात होगी, शांति के लिए जिनकी मूक पुकार मैं सुन पा रहा हूं। मेरे कान तो लाखों मूक पुकारें सुनने की आदी हो गये हैं। मैं चाहता था कि आपको और मुसोलिनी महाशय को एक संयुक्त अपील संबोधित करूं। गोल मेज सभा में एक प्रतिनिधि के नाते मैं इंगलैंड गया था तो रोम में मुझे मुसोलिनी महाशय से मिलने का सौभाग्य मिला था। मैं आशा करता हूं कि वे इस पत्र को आवश्यक परिवर्तनों के साथ खुद को भी संबोधित ही मानेंगे।
सदैव
आपका ही मित्र,
मोहनदास करमचंद गांधी।
प्रति,
श्रीमान हिटलर
बलिॅन(जर्मनी)।
अनुवाद : सूरज प्रकाश
(रचना समय से साभार)