अनुराधा सिंह
आसमान में आग नहीं चिड़ियाँ होनी चाहिए
और उसके लिए पृथ्वी पर पेड़ होना जरूरी है
और यह जरूरी है
कि आरी के दांत को घिसा जाए
बातें उस समय की है
जब बुद्धत्व के बदले
चिर यौवन चुना गया
और समय है कि बदलने का नाम ही नहीं ले रहा
आखेटक प्यास की तृप्ति
बहाव से मिटती है
ठहराव द्योतक है
जल में विष का
सबकुछ जब नष्ट हो जाएगा
तब भी बची रहेगी स्त्री
और बचा रहेगा
उसके अंदर का बहाव
वो ढूंढती है प्रेम में अहर्ता
और पाती है
हर जगह चोट से जन्मी तिक्तता
उसे यह जानना भी जरूरी है
कि सृजन का विनाश नहीं हो सकता
हमेशा से छली गयी वो
और हर बार
सेमल में चिंगारी छुपा कर मिला वह उससे
खुर्दबीन से झाँकता है सशंकित
और प्रेम डगमगाता है
सुनहले आगाज़ से चोटिल अंजाम तक
नष्ट होने का सरलतम उपाय प्रेम ही है
यह यथार्थ की वो बातें हैं
जहाँ से पलायन संभव नहीं
समय के पहिये में लगी सबसे मंथर तीली
व्यथा की वो किनकी है
जो निबाहती रही पित्तरों की बातें
और उसके हथेली में मला गया राख
उसकी अपनी त्रिज्या
उस वृतचक्र में घूमती रही
जिसमें स्त्री के पीड़ा ग्रंथ के पन्ने चस्पे हैं
हर चक्र व्यथा-कथा दोहराती रही
और उसकी ज़िद हमेशा से रही
कि इतनी तेजी से घुमाऊं इस चक्र को
कि आभासी बल अभिकेन्द्रीय बल बन जाये
किनकी की तरह अंतरिक्ष में स्वतंत्र घूमूं
और एक दिन बनूं किनकी से उल्का
उस गरुत्व को भष्म करने
जिसने स्त्री में प्रवाह को रोका हुआ है ।
वो खुद से बातें करती है
माँ,अबकी मुझे तुम
देह नहीं चादर बनाना
मेरा एक हिस्सा
हमेशा खुले का आह्वान करेगा
बादलों को तकेगा और बातें करेगा!
निरभ्र चाँद से बराबरी की बातें
निस्सीम स्पर्श ही कर सकता है
हर मुश्किल का अपना है आसान पेंच
बहुत सख्ती से दंड की अनिश्चितता को
चेताते हुए कहती हैं
कि जरूरी नहीं है
हर अपराध का संविधान में सूचीबद्ध होना
और उससे भी ख़तरनाक है
इसे जानते हुए दोहराना !
“रफूगर सिलो की सलामत रहे तुम्हारी उँगलियाँ “
यह और कोई नहीं एक स्त्रीमन ही बोल सकता है !
संभावनाओं की तलाश में
प्रश्नों की बौछार है
कभी समय से कभी पुरष से
तो कभी सीधे ईश्वर से
उसे हर ओर कांच की आँखें
सीने में पत्थर लिए दिखती हैं
वो जिन आँखों में डूबना चाहती है
वहाँ निःशब्द प्रतीक्षा मिलती है
जहाँ अहम की दीवारें परतों में खड़ी हैं ।
सफेद मिट्टी,श्वेत पसीना,लाल रक्त कण ,काली रेत ,काला इतिहास और काली औरतें ……..काली करतूतें
इनमें से कुछ भी नहीं बदला
बस इज़ाफ़ा होता गया
काली औरतों की संख्या
और उन्हें घूरती काली नज़रों में …….
जिन्हें सच में ईश्वर नहीं नींद चाहिए !
वो परेशान है क्षीण होती नदियों के शोकचिन्ह को
पहाड़ के कपोल पर सिकुड़ते हुए देखकर …
परेशानी और क्षोभ में डूबे समय में
वो बार-बार साइकिल के चेन चढ़ाती है
ग्रीस की जगह आँसुओं से काम चलाती है
वो उम्र से पहले बड़ी होती लड़कियाँ हैं
जिन्हें पता है माँ का जाना
अपनी देह से बिछड़ना है
सायत के स्मृतियों में रिवायत है
एकतरफा शिकायत की
और अज़ीयत का वो मसला है
जो ख़त्म ही नहीं हो रहा
टूटती हुई चीजें चिपकाई या बाँधी जा सकती है
पर रिश्तों की डोरी में तो अनगिनत रेशे हैं
एक टूटता है तो दूसरा रेशा जुड़ना चाहता है
और तुम हो कि सारे के सारे रेशे
आराम से तोड़ने पर आमदा हो
यह देखते हुए ही उसने लिखा होगा
कि किसी नट को गाँठ लगी रस्सी पर चलते देखा है कभी
नट रस्सी पर नहीं
भरोसे पर चलता है……….
( अनुराधा सिंह को हाल ही में…16 अगस्त को, उनके जन्मदिवस पर… केदार न्यास बाँदा द्वारा उनके काव्य संग्रह ‘उत्सव का पुष्प नहीं हूँ’ के लिए ‘केदार सम्मान-2024’ से नवाज़ा गया है)