प्रदीप मिश्र
रविवार को अमृत और सर्वार्थ सिद्धि योग में गुरु पूर्णिमा मनाई जाएगी। हर साल आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा का त्योहार मनाया जाता है। इस दिन दान-पुण्य का महत्व है। सहज मानवीय व्यक्तित्व-कृतित्व है। विश्वास है कि धन-धान्य की कमी नहीं होती है। आस्था और परंपरा कभी अमान्य नहीं होती है। दुख, दूरी और दरिद्रता से जिनका वास्ता। वे दावे से कहते हैं सच्चे गुरु सुझाते सही रास्ता। सोमवार से सावन का पावन महीना आ रहा है। कहते हैं परमात्मा से सीधे और सतत संपर्क रखने वाले समर्थ सेनापति सावन के पहले सोमवार से ही सनातन संतति को सुसंस्कृत और संतुष्ट करने की कोशिश करेंगे।
इसी संदर्भ में उत्तर प्रदेश में धर्म की धार तेज हो गई है। सरकार ‘बांटो और राज करो’ माने अंग्रेज हो गई है। संगठन और सरकार के बीच किसका सपना होगा साकार। किसका बदलेगा रूप और कौन लेगा नया आकार। इन हालात से जनता का ध्यान हटाना है। समाज की चिंता में लगाना है। मुद्दे समझने का माद्दा न हो, समस्या समाधान की शक्ति न हो, रणनीति नहीं हो तो राजनीति की जाती है। मनचाहे समुदाय से नफरत और मनपसंद वर्ग से प्रीति की जाती है।
गूगल बताता है कि गुरु’ शब्द में ‘गु’ का अर्थ है ‘अंधकार’ और ‘रु’ का अर्थ है ‘प्रकाश’ अर्थात् गुरु का शाब्दिक अर्थ हुआ ‘अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला मार्गदर्शक’। सही अर्थों में गुरु वही है जो अपने शिष्यों का मार्गदर्शन करे और जो उचित हो उस ओर शिष्य को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करे। यह पुरानी बात है और परिभाषा का आधार है। ये विचार और प्रचार है। फर्जी गुरूओं का गुरूर है। इसीलिए उन्हें लगता है कि शिष्य बेसऊर है।
अहंकार प्रसाद हो गया है। वातावरण में विषाद हो गया है। सच्चे गुरु लुप्त हो गए हैं। अच्छे गुरु सुप्त हो गए हैं। लंपट गुरुओं के न चरण हैं और न आचरण हैं। वे जादूगर और सितमगर हैं। वे गांव, कस्बों और नगर-नगर हैं। ज्ञान नहीं है, सो दर्शन नहीं बताते। दर्शन देकर प्रदर्शन करते हैं। भरपूर प्रपंच के बावजूद उफ नहीं करते हैं। दिखाने के लिए ये अहम-वहम से नहीं डरते हैं। ये फलदार पेड़ नहीं, बबूल हैं। प्रसिद्ध कैसे हों, एक ही नियम और ऐसे ही उसूल हैं।
अनुयायी भी इनके पास मुक्ति के लिए नहीं, युक्ति के लिए आते हैं। नाममात्र के आशीर्वाद से नाम और दाम कमाते हैं।
कुछ गुरु रंगदार हैं। कुछ रंगे सियार हैं। कुछ तो कुछ भी करने को तैयार हैं। टीवी गुरू, यूट्यूब गुरू, अखबार गुरू, प्रचार गुरू, सियासी गुरू, फंतासी गुरू, प्रसादी गुरू, फसादी गुरू, हास्य गुरु, रहस्य गुरु, मत्स्य गुरु, सिद्धू गुरू, बनारसी गुरू, गुजराती गुरू, शुद्ध गुरु, विशुद्ध गुरु, सिद्ध गुरु, विरुद्ध गुरू, निरुद्ध गुरू, क्रुद्ध गुरू, हवाई गुरू, दवाई गुरू, गंभीर गुरू, अधीर गुरू, भाषण गुरू, राशन गुरू, आसन गुरू, शासन गुरू जैसी अनेकानेक श्रेणियां हैं।
विश्व गुरु और विष गुरू में से किसी के वस्त्र भगवा, पीत और श्वेत हैं। ज्यादातर के अस्त्र-शस्त्र समवेत हैं। इसलिए कुछ न कुछ ऐब करते हैं। सियासतदानों के लिए मिलकर फरेब करते हैं। कई के हाथ में हथकड़ी और पैरों में बेड़ियां हैं। चंद गुणी और ज्ञानियों के बीच ज्यादातर भेड़िया हैं। भेड़ और भेड़िये में अंतर समझने वाले सिमट रहे हैं। खुली आंखों को बंद कर मिट रहे हैं। साम्राज्य विस्तार के लिए एक-दूसरे पर झपट रहे हैं। अनुयायी, श्रद्धालु और भक्त निपट रहे हैं।
जो गुरु चमत्कार करते हैं। लोग उन्हें नमस्कार करते हैं। ये मायावी होते हैं। दावा करते हैं, उनके कथन अवश्यंभावी होते हैं। खुद को ‘साकार’ बताते हैं। अवतार बताते हैं। पति को छोड़ पत्नी इनकी शरण में जाती है। चरणरज लेकर फूली नहीं समाती है। बेटा बाप को छोड़ रहा है। इन तथाकथित गुरुओं से रिश्ता जोड़ रहा है। मरते रहें लोग, होता रहे हादसा। फिर भी नहीं छूटेगा नशा। दरअसल, शिष्य चाहते हैं कि उनकी इच्छाओं का नहीं, पापों का शमन हो।
इसमें चाहे किसी की सदिच्छा का दमन हो। शिष्य अभाव नहीं, प्रभाव में व्यस्त होना चाहता है। तनाव से नहीं, स्वभाव से मस्त होना चाहता है। वह परलोक जाने से पहले मोह का क्षय नहीं चाहता। इहलोक में किसी भी किस्म का भय नहीं चाहता। उसे अनंत शक्तियों की चाह होती है। आम वाणी जैसी ही उसकी राह होती है। वह सोचता है। विवाद की परवाह और फिक्र क्यों करे। वाह-वाह के संवाद में इसका जिक्र क्यों करे। इसीलिए बनारसी गुरु मगन है।
उसके पास अपनी जमीन कमजोर पर रमण के लिए दुनिया का गगन है। वह पुरानी ‘कर्तव्य’ को याद कर ‘मैंने थोड़ी चढ़ाई तो ऐसी चढ़ी, दुनिया जाए भाड़ में मुझे क्या पड़ी…’ यों ही नहीं गुनगुना रहा है।
अमृतकाल में कबीरदास को याद करते हुए ‘गुरु गोबिंद दोनों खड़े काके लागूं पांय…’ नहीं पूछता है। वह जानता और मानता है। लाभदायक और फलदायक शब्दों में समानता है। चरण वंदना आवश्यक है। बनाती सफल नायक और खलनायक है। इसीलिए जब कोई नेता बोलता है-‘नायक नहीं खलनायक हूं मैं…’।
दूसरी तरफ से उससे अविलंब कहा जाता है-‘रुक जा ओ जाने वाले रुक जा…।’ खुद को हमेशा बताता है बेकसूर। चिंता के बहाने मजे लूट रहा भरपूर। इसके बाद सब अगले काम पर जुट जाते हैं। ठगी, धोखा और प्रपंच को चुनौती देने के बजाय कीटाणु, विषाणु और जीवाणु से बेपरवाह रहकर एकजुट हो जाते हैं।
धूर्तों को हाय-हाय ज्यादा और बाय-बाय कम हो रही है। फिर भी हे दुखभंजन। कितना सहज है डबल इंजन। फिलहाल, नेताओं-कथित गुरुओं के लिए महज है अलख निरंजन। सबको पता है कि जीवन-मृत्यु सत्य है। इस दिशा में संघर्ष, समझौता और संतु्ष्टि अर्धसत्य है।