धर्मेन्द्र आज़ाद की कविता – अरावली की पुकार

कविता

अरावली की पुकार

धर्मेन्द्र आज़ाद

 

हे मेरे प्यारे बच्चों,

मैं अरावली बोल रही हूँ—

हाँ, गुजरात से दिल्ली तक फैली

सात सौ किलोमीटर लंबी

तीन अरब वर्ष पुरानी

तुम्हारी अपनी अरावली।

 

आज मैं तुमसे गुहार लगा रही हूँ—

मुझे बचा लो,

मुझे बचा लो।

मुझे कटना नहीं है,

मुझे सेठों में बँटना नहीं है।

 

मैं कोई बेकार, खामोश चट्टान नहीं हूँ।

लाखों सदियों से

मैं यहाँ अडिग खड़ी हूँ—

धरती पर जीवन के

पहले अंकुर को

मैंने फूटते देखा है।

लाखों पीढ़ियों को

हवा, पानी और सुरक्षा

देती रही हूँ।

 

रेगिस्तान के तूफ़ानों को

अपने सीने पर सहकर

मैंने तुम्हारे पुरखों को बचाया,

आज तुम्हें बचा रही हूँ,

और चाहती हूँ

कि आने वाली पीढ़ियों की भी

ढाल बनी रहूँ।

 

मैं उत्तर भारत की जीवन-रेखा हूँ।

मैं दिल्ली को साँस देती हूँ,

हरियाणा की धरती को थामे रखती हूँ,

और पश्चिमी यूपी तक

जीवन की नमी पहुँचाती हूँ।

 

पर आज मेरा ही अस्तित्व ख़तरे में है—

क्या मेरा जीवन

एक सरकारी परिभाषा से तय होगा?

क्या मेरे वे अंग,

जो सौ मीटर से छोटे हैं,

इसलिए काट दिए जाएँगे

कि मुनाफ़ाखोरों की भूख

अब भी शांत नहीं हुई?

 

मत भूलो—

मैं पूरी हूँ,

तभी तक अरावली हूँ।

 

लाखों पीढ़ियाँ आईं और गईं,

मैंने क्रूर से क्रूर शासकों को देखा,

उनकी करतूतों की साक्षी रही—

लेकिन किसी ने भी

मुझ पर ऐसी क़ातिल निगाह

नहीं डाली।

 

मैं पूछती हूँ—

क्या कुछ सेठों की पूँजी के लिए

तुम इतनी आसानी से

मेरे अंग-भंग होने दोगे?

 

कल मुझे चोरी से खोदा गया,

मेरी खाल उतारी गई।

आज “विकास” के नाम पर

मेरे नब्बे फ़ीसदी अस्तित्व को

नोच लेने की बिसात बिछाई जा रही है।

 

यह विकास नहीं है, मेरे बच्चों—

यह मुनाफ़े के लालच की इंतहा है,

जहाँ सेठों की तिजोरियाँ

मेरी मौत से भरनी हैं,

और तुम्हें

साँसों से महरूम करना है।

 

याद रखना—

आज अगर मैं गिरी,

तो कल पानी गिरेगा,

परसों हवा गिरेगी,

और आख़िर में

तुम सबकी ज़िंदगी।

 

देखते ही देखते

हज़ारों किलोमीटरों का

हरा-भरा भूभाग

एक विशाल रेगिस्तान में

बदल जाएगा।

 

मैं आज आँसू बहा रही हूँ,

लेकिन याद रखना—

यह मुझे बचाने से ज़्यादा

तुम्हारी अपनी लड़ाई है।

अपने लिए,

अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए।

 

मेरे बच्चो,

उठो।

बोलो।

सड़कों पर निकलो।

मशाल उठाओ।

 

मेरी पुकार सुनो—

मुझे बचा लो।

 

ज़ोर देकर

नारे लगाओ—

 

अरावली को मत काटो

सेठों में मत बाँटो


कवि – धर्मेन्द्र आज़ाद

One thought on “धर्मेन्द्र आज़ाद की कविता – अरावली की पुकार

  1. धर्मेन्द्र आजाद की रचना सटीक और सामयिक है लेकिन अरावली को पुल्लिंग लिखा जाए । राजस्थानी में भी इसे आड़ावल कहा जाता है पुल्लिंग ।

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