एकबार  फिर  जोखिम के इलाके में अरुंधति रॉय

लेखक का वक्तव्य:

अरुंधति रॉय को लेकर हिंदी के कुछ राष्ट्रवादी‘  बौद्धिक एक बार फ़िर हमलावर मुद्रा में निराधार प्रलाप कर रहे हैं। उन्हें राष्ट्र विरोधीतक कहा जा रहा है। उनसे सवाल किया  जा रहा है कि   उन्होंनें अमुक विषय पर क्यों नहीं लिखा या कि तब क्यों नहीं लिखा। जबकि उन्होंने हिंदुत्ववादी  सत्तातंत्र, कार्पोरेट पूंजी और अमेरिकी साम्राज्यवाद  के विरोध में  लगातार  लिखा है।  बाबा साहेब आंबेडकर की पुस्तक ‘Annihilation of caste’ पर उन्होंने लंबी भूमिका लिखी है। हिंदी के लेखकों का वह समुदाय जो जाति शोषण के मुद्दे पर मौन साधे रहता है, उसे अरुंधति रॉय की यह मुखरता नहीं सुहाती। इसलिए अक्सर वे इनके निशाने पर रहती है।   पिछले वर्ष जब अरुंधति रॉय के विरुद्ध यू ए पी ए के कानून के अंतर्गत  केस दर्ज किया गया था, तब यह संलग्न लेख लिखा गया था, जो समकालीन जनमत‘  में प्रकाशित  हुआ था।   आज जब अरुंधति रॉय की नई पुस्तक ‘Mother Mary comes to me’  चर्चा में हैपुनर्प्रस्तुत है यह लेख:

 एकबार  फिर  जोखिम के इलाके में अरुंधति रॉय

वीरेन्द्र यादव

अरुंधति रॉय एक बार फिर सुर्खियों में हैं , एक साथ दंड और पुरस्कार  की खबरों के साथ. जहां भारत में उन पर यूएपीए के कठोर कानून के अंतर्गत चौदह वर्ष पूर्व (2010) कश्मीर पर आयोजित सेमिनार में दिए गए अभिमत के लिए आपराधिक मुकदमा दर्ज़ किया गया है, वहीं अमेरिका से खबर है कि विख्यात अमेरिकी नाटककार हैरल्ड पिंटर की स्मृति में स्थापित  ‘पेन पिंटर’ पुरस्कार इस वर्ष अरुंधति रॉय को दिया जाएगा. यह सचमुच विडंबनात्मक है कि लेखन में बेलाग और निडर अभिव्यक्ति की जिस खूबी के  लिए एक वैश्विक संस्था द्वारा  अरुंधति को पुरस्कृत किया गया है ,उसी बेलाग और निडर अभिमत के चलते उन्हें भारत की  वर्तमान सत्ता द्वारा दंडित करने का कुचक्र रचा गया है.   वैसे शोहरत और निंदा का अरुंधति के साथ शुरु से ही अभिन्न रिश्ता रहा है.

1997 में जब उनका पहला उपन्यास ‘दि गॉड ऑफ़ स्माल थिंग्स’  प्रकाशित हुआ था ,तब वह सारी दुनिया में प्रशंसा के शिखर पर थीं. लेकिन अपने गृह प्रदेश केरल में वामपंथ और धर्मपंथ दोनों के कोप का शिकार थीं. जहं वामपंथ का क्षोभ था कि उपन्यास में  प्रख्यात कम्युनिस्ट नेता ई. एम. एस.  नम्बूदरीपाद  की अवमानना की गयी है, वहीं  सीरियाई ईसाई समुदाय का आरोप था कि उपन्यास के एक पात्र के माध्यम से इस समुदाय  की धार्मिक आस्था को आहत किया गया है.

जहां नम्बूदरीपाद ने लेख लिखकर अरुंधति को पतनशील बुर्जुआ संस्कृति का वाहक करार देते हुए उपन्यास को खारिज किया था ,वहीं सीरियाई ईसाई समुदाय ने उपन्यास पर अश्लीलता का आरोप लगाकर इस पर अदालती कारवाई भी की थी. अरुंधति की मां इसी सीरियाई ईसाई समुदाय से थीं.  तब यह भी कहा गया था कि सलमान रुश्दी और विक्रम सेठ की तर्ज़ पर अरुंधति भी धन और यश की राह पर चल पड़ी हैं. लेकिन अरुंधति रॉय ने अपने निंदकों को झुठलाते हुए पूंजी के साम्राज्यवाद और धर्म की राजनीति के विरुद्ध  अपने लेखन द्वारा जो बौद्धिक हस्तक्षेप किया ,वह बेमिसाल  है.

सच है कि ‘दि गॉड ऑफ स्माल थिंग्स’ को बुकर पुरस्कार मिलने के बाद अरुंधति रॉय के सामने अन्य लेखकों की तर्ज़ पर  दुनिया के मंच पर भारतीय यथार्थ के बाज़ारीकरण का सुनहरा अवसर था. लेकिन अंग्रेजी  आभिजात्य वर्ग के अपने प्रशंसकों को निराश और हैरान करते हुए जब  उन्होंने पोखरन में किये गये परमाणु परीक्षण के विरुद्ध ‘इंड ऑफ़ इमेजिनेशन’ शीर्षक’ से धारदार लेख लिखकर हस्तक्षेप किया ,तो यह उनकी नई पहचान थी. पोखरन के विस्फोट को लेकर जब अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार राष्ट्रवादी उन्माद की नई इबारत लिख रही थी, तभी अरुंधति रॉय ने इसे फासीवाद की आहट के रूप में दर्ज़ किया था.

इसके बाद से उन्होंने जनबुद्धिजीवी की जिस हस्तक्षेपकारी भूमिका को चुना वह उनकी जन पक्षधरता व सत्ताविरोध का परिचायक है.  नर्मदा बचाओ आंदोलन हो ,झुग्गी झोपड़ी से बेदखल किए गए गरीबों का धरना प्रदर्शन हो , नागरिकता संशोधन अधिनियम के विरुद्ध आंदोलन याकि किसानों का धरना प्रदर्शन  हर कहीं वे  अपनी धारदार वक्तृता   के साथ  मौजूद रहती हैं.

इसकी कीमत भी उन्हें जब तब चुकानी पड़ी है. नर्मदा बचाओ आंदोलन पर अपनी बेबाक अभिव्यक्ति के लिए उन्हें सुप्रीम कोर्ट की अवमानना का दोषी मानकर एक दिन के लिए तिहाड़ जेल में कैद की सजा भी भुगतनी पड़ी थी. इसके साथ ही विश्वमंचों पर सामाजिक राजनैतिक मुद्दों पर  प्रखर वक्ता के रूप में उनकी जो ख्याति है वह किसी अन्य भारतीय लेखक के हिस्से में नहीं है. उपन्यासकार से शुरु होकर लेखक एक्टिविस्ट की यह यात्रा अरुंधति रॉय का नया अवतार है.

आदिवासियों के जीवन और संघर्ष का  प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त करने के लिए उन्होंने बस्तर के उन बीहड़ जंगलों की यात्रा की ,जहां सरकारी तंत्र की भी पहुंच नहीं है. वहां माओवादी आंदोलनकारियों के बीच रहकर उन्होंने ‘जनता सरकार’ के अनुभवों से समृद्ध होकर ‘वाकिंग विद दि कॉमरेड्स’ शीर्षक से विस्तृत लेख लिखा. बड़े कार्पोरेट , केन्द्र सरकार और पुलिस बर्बरता के बीच फंसे आदिवासियों और उनके मुक्तिदाता की भूमिका निभाने वाले नक्सलियों का यह वृतांत सृजनात्मकता व यथार्थ  का विरल दस्तावेज है.

उल्लेखनीय यह है कि यह तब लिखा गया था ,जब केंद्र में मनमोहन सिंह की कांग्रेस सरकार थी. इस बहुप्रशंसित वृतांत को तमिलनाडु के एक विश्वविद्यालय के एम.ए. अंग्रेजी साहित्य के वैक्ल्पिक पाठ्यक्रम में शमिल भी किया गया था. लेकिन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के विरोध व प्रदर्शन के चलते इसे पाठ्यक्रम से  पिछ्ले वर्षों बाहर कर दिया गया. इन दिनों वे हिंदुत्ववादी संगठनों के विशेष निशानें पर रहती हैं.

विश्वविद्यालयों में उनके कार्यक्रम रद्द कर दिए जाते हैं. उन्हें ‘अर्बन नक्सल’ और ‘खानमार्केट गैंग’ का सरगना करार दिया जाता है. लेकिन इस सबसे विचलित हुए बिना वे निडरता पूर्वक लिख-बोल कर लगातार सक्रिय रहती हैं. अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर प्रतिरोध की आवाज़ बुलंद करतीं अरुंधति उन कथित ‘लिटरेरी’ फेस्टिवलों से दूरी बनाकर रखती हैं., जो सितारा संस्कृति में रचे पगे हैं. इसी कारण जयपुर लिटरेरी फेस्टिवल का मंच आज तक उनसे वंचित रहा है.

प्राय: दलित व जाति के जिन मुद्दों से अभिजन समाज व लेखक किनाराकशी करते हैं, वह अरुंधति की सोच का अनिवार्य पहलू है. उनका कहना है कि “ भारतीय समाज की  कथा लिखते हुए दलित यथार्थ की अनदेखी वैसी ही है जैसे दक्षिण अफ्रीका के बारे मे लिखते हुए रंग़भेद के प्रति अंधत्व का होना.” डा. आम्बेडकर की ‘एनिहिलेशन ऑफ़ कास्ट’ की लंबी भूमिका लिखते हुए उन्होंने अपनी इस प्रतिबद्धता को अभिव्यक्त भी किया है.

अपने पहले उपन्यास ‘दि गॉड ऑफ़ स्माल थिंग्स’ के मलयाली संस्करण की रायल्टी  उन्होंने केरल के दलित संगठनों  को  अनुदान स्वरूप प्रदान की थी. हिंदी में जब यह उपन्यास ‘मामूली चीजों का देवता’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ ,  तब इसकी रायल्टी का एक अंश उन्होंने हिंदी की ‘समयांतर’ और ‘हंस”’ पत्रिकाओं को सहायता स्वरूप प्रदान किया था. इस सब से उनके  अपने गहरे  सरोकारों की ही पुष्टि होती है. यह अनयास नहीं है कि उनके  दोनों उपन्यासों में दलित प्रसंग कथावृत्तांत में अनुस्युत होकर उपस्थित हैं.

देश दुनिया के ज्वलंत मुद्दों पर विपुल गैर-कथात्मक लेखन के बीस वर्ष के अंतराल के बाद ‘दि मिनिस्ट्री ऑफ़ अटमोस्ट हैप्पीनेस’ (हिंदी में ‘अपार खुशियों का खजाना’)  शीर्षक से वर्ष 2017 में अरुंधति रॉय का दूसरा उपन्यास आया.  औपन्यासिक लेखन से बीस वर्षों का यह अवकाश कथालेखन की दुनिया का विरल उदाहरण है.

दरअसल उपन्यास को लेकर अब उनका नज़रिया पूरी तरह से बदल चुका है. अब वे फिक्शन को यथार्थ का विस्तार मानती हैं. उनका कहना है कि यथार्थ अब इतना कल्पनातीत हो चुका है कि उसे अब फिक्शन मे ही प्रभावी रूप से अभिव्यक्त किया जा सकता है. यह उपन्यास समूचे भारत के धधकते यथार्थ की कलात्मक प्रस्तुति है. कश्मीर को लेकर अरुंधति तार्किक रूप से मुखर व आग्रहशील रही हैं.

‘दि मिनिस्ट्री…’  में कश्मीर का यथार्थ लगभग मुख्यकथा के रूप में उपस्थित है. उपन्यास लिखे जाने के सूत्र उपन्यास के कथ्य में ही   लेखिका ने कुछ इस तरह  विन्यस्त किए हैं –“मैं ऐसी परिष्कृत कथा लिखना चाहती जिसमें यद्यपि अधिक कुछ न घटित हो फिर भी उसपर बहुत कुछ लिखा जा सके.लेकिन कश्मीर को लेकर ऐसा नहीं किया जा सकत. यहां जो कुछ होता है कतई परिष्कृत नहीं है.

यहां अच्छे साहित्य के लिए कुछ ज्यादा ही रक्त है.” सही है रक्तरंजित-कथा ‘गुड लिटरेचर’ हो भी नहीं सकती. कश्मीर ही नहीं आज के भारत की कथा लिखने के लिए यह चुनौती अरुंधति की ही नहीं, हर लेखक की है कि वह ‘अच्छा साहित्य’ लिखे या रक्तरंजित भारतीय जनतंत्र का क्रिटिक. उनका कहना है कि “ कश्मीर में जो पागलपन चल रहा है ,वहां की हवा में जो आतंक है ,उसे कितने,  कहां मारे गए के महज एक मानवाधिकार दस्तवेज में नहीं समायोजित किया जा सकता. फिक्शन के अतिरिक्त और कैसे उसे दर्शाया जा सकता है!”

यथार्थ की भयावहता और उपन्यास विधा में भरोसे का ही परिणाम है कि इस उपन्यास में कश्मीर प्रकरण की प्रस्तुति अत्यंत कलात्मक है; इतिहास, व्यंग्य,रोमांस.थ्रिल, आक्रोश का  मानवीय संस्पर्श व करुणा की मार सब कुछ का सम्मिश्रण एक साथ. कश्मीर पर इस उपन्यास का लिखना अरुंधति के ही शब्दों में “ “यह देखने का एक नज़रिया है,एक प्रार्थना है ,एक गान है.” लेकिन इस नज़रिये का ही परिणाम था कि जब यह पुस्तक पाठकों तक पहुंचने ही वाली थी , सत्ताधारी द्ल से यह आवाजें उठ रही थीं कि अरुंधति को सेना की जीप के आगे बांधकर कश्मीर की सड़कों पर घुमाया जाय ताकि कश्मीरियों द्वारा सेना पर पत्थर फेंकें जाने पर लगाम लग सके.

‘आज़ादी’ अरुंधति का प्रिय पद है, इसी शीर्षक से  वैचारिक लेखों का उनका एक संग्रह भी है. इस दौर में हिंदुत्ववादी पितृसत्ता की जैसी धारदार, तार्किक व तथ्यपरक आलोचना उन्होंने की है ,वैसी किसी अन्य भारतीय लेखक ने नहीं. अरुंधति की इस भूमिका में नयापन  यह है कि वह ‘पब्लिक इंट्लेक्चुअल’ और ‘ऑरगैनिक इंट्लेक्चुअल’  दोनों को एकाकार करते हुए ‘एक्टिविस्ट राइटर’ की नई भूमिका में हैं.

स्वीकार करना होगा कि भारतीय राष्ट्र-राज्य को लेकर इसी बेबाक और जोखिम भरे तीखे आलोचनात्मक दृष्टिकोण के चलते अरुंधति रॉय आज भारत में जन-बुद्धिजीवी की उसी भूमिका में हैं जिसमें संयुक्त राज्य अमेरिका के शीर्ष बौद्धिक नॉम चामस्की हैं. यह उचित ही है कि संयुक्त राष्ट्र संघ के मानवाधिकार संगठन ने अभी पिछ्ले ही दिनों भारत सरकार से मांग की है कि  यूएपीए के अंतर्गत उन पर प्रस्तावित  आपराधिक मुकदमे की कार्रवाई को तुरंत समाप्त किया जाए.

कहने की आवश्यकता नहीं कि तीसरी बार मोदी सरकार बनते ही अरुंधति पर यह कार्रवाई समूचे बौद्धिक समाज और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के लिए एक धमकी सरीखी भी है. आज के दौर में अरुंधति रॉय की भूमिका वाल्टेयर सरीखी है. हमारे इस वाल्टेयर को आज़ाद रहना ही चाहिए. वीरेंद्र यादव के फेसबुक वॉल से साभार

लेखक- वीरेंद्र यादव

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