- पुस्तक समीक्षा: सत्यकेतु के कविता संग्रह ‘एक कर्मचारी की डायरी’ पर एक नजर
विजय शंकर पांडेय
बरबस बशीर बद्र की यह पंक्तियां याद आ रही हैं, ‘अगर फ़ुर्सत मिले पानी की तहरीरों को पढ़ लेना, हर इक दरिया हज़ारों साल का अफ़्साना लिखता है।’ वरिष्ठ पत्रकार, नाटककार और कहानीकार सत्यकेतु की न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन नई दिल्ली से सद्य प्रकाशित कविता संग्रह “एक कर्मचारी की डायरी” इस लिहाज से उम्मीदों पर बिल्कुल खरा उतरती है। कॉरपोरेटी पद्धति मनुष्य की रचनात्मकता की हत्या कर देती है, मगर कवि ने तमाम जद्दोजहद के बावजूद अपने कवित्व को न सिर्फ बचाए रखा, बल्कि वक्त के साथ उसे मांज कर, तराश कर और पैना कर दिया। इस संग्रह की ज्यादातर कविताओं में वे मौजूदा दौर की विसंगतियों से सीधे लोहा लेते नजर आए। वह भी तब जब रोजमर्रा के जीवन में आदमी स्वार्थ, सुविधावाद और व्यक्तिवादिता के आगोश में सिर्फ अपना घोसला तलाशता नजर आ रहा है। तथाकथित आधुनिकतावादी जीवनशैली ने बनी बनाई तमाम परिभाषाओं को तितर बितर कर दिया है। विश्वभर में जब मानवीय उदात्तताएं हाशिए पर जा रही हैं, सत्यकेतु अपने कवि होने की संवेदनशीलता को बेलाग लपेट बखूबी दर्ज करते नजर आए। मसलन –
दफ़्तर मेरे घर तक पहुंच गया है
उन्होंने दफ़्तर को
मेरे घर में घुसा दिया है
दफ़्तर की छोटी से छोटी बात
दूर करती है मुझे मेरे घर से
बात-बात पर बुला लिया जाता है दफ़्तर
टाइम-बे-टाइम
डिवोशन, लेबर, लॉयल्टी, नमक…
वगैरह की दी जाती है दुहाई
बल्कि होती है वह अपने तईं मुक़म्मल धमकी
कि ऐसा नहीं तो बाहर का दरवाजा खुला है
मानव संघर्ष के साथ रिश्तों का ताना-बाना बुनती नजर आई कविताएं
पुस्तक में करीब 56 कविताएं हैं। हर कविता की तासीर रोजमर्रा के मानव संघर्ष, शोषण, पीड़ा, खुशी, दु:ख, बाजारवाद, पर्यावरणीय व सामाजिक चिंताओं के साथ रिश्तों का ताना-बाना बुनती नजर आई। साथ ही ये कविताएं जीवन की विडम्बनाओं को सहेजे संभाले पाठक को अपने साथ लिए सफर तय करती हैं। कुछ इस तरह कि पाठक इस संग्रह की कविताओं में स्वयं को अभिव्यक्त करता महसूस करने लगता है। शायद यही इस संग्रह और रचनाकार की थाती है। स्वयं कवि अपने अंदाज में कविता को परिभाषित भी करता है।
कविता
मनुष्यता के पाहन को पिघलाने की क्षमता है
कविता
चुप्पियों को प्रतिकार में परिवर्तित करने की प्रत्याशा है
कविता
क़यामत के क़हर को बेअसर करने की आख़िरी भाषा है।
ख़ामोश लब के बावजूद अपनी नज़र से गुफ़्तगू करते नज़र आए
ख्यातिलब्ध कवि केदारनाथ सिंह की मानें तो ‘कविता को सही बल और ठहराव देकर पढ़ा जाए तो वो अपना अर्थ खोल देती है।’ बतौर पत्रकार या कर्मचारी सत्यकेतु एक अरसे तक न सिर्फ मेरे सहयात्री, बल्कि पड़ोसी भी रहे हैं। जाहिर है एक दूसरे की दाल में पड़ने वाले नमक ही नहीं, बल्कि तमाम सुख-दुख और जद्दोजहद में भी काफी हद तक हम साझेदार रहे हैं। सत्यकेतु अक्सर ख़ामोश लब के बावजूद अपनी नज़र से गुफ़्तगू करते नज़र आए। अपने मिज़ाज के मुताबिक ही वे जितना बोलते नहीं, उससे अधिक बयान करते नज़र आए अपनी कविताओं में। अपनी कविताओं के जरिए वे यह अहसास कराने से चूके नहीं कि उनके अंदर बहुत कुछ उमड़-घुमड़ चल रहा है और इसी ने उन्हें कवि बनाया होगा। सत्यकेतु के ही शब्दों में –
मेरी चुप्पी को भी
क़रीबी/खून के लोग
घुन्नापन, घमंड, अभिमान
और न जाने किन-किन विशेषणों से
आभूषित करते हैं
उन्हें इस बात का दुख
कि नहीं मानता मैं उनका मशवरा यथावत
नहीं सुनता उन्हें शब्दश:
नहीं रहता उनके कहे में जस का तस
मुश्किल दौर से जूझ रही दुनिया को धैर्य बनाए रखने का हौसला
कवि की मौजूदा कर्मभूमि प्रयागराज देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के शहर इलाहाबाद का ही टटका नाम है। नेहरू की मानें तो “मुश्किल समय में भी मनुष्य को धैर्य नहीं छोड़ना चाहिए। अच्छी किताबें पढ़ने से धैर्य बना रहता है।“ इस काव्यसंग्रह के जरिए कवि मुश्किल दौर से जूझ रही दुनिया को धैर्य बनाए रखने का हौसला देते हैं। लोकतंत्र के अमृतकाल में आप चाहे रूदाली कीजिए या फिर इतराइए, मगर सच तो यही है कि पूरी दुनिया में लोकतंत्र ही नहीं, लोगों का निजत्व, रिश्ते और संबंध तक संकट के दौर से गुजर रहे हैं। “रिश्ते” शीर्षक कविता में कवि ने इस पीड़ा को बखूबी बयान किया है।
खूंटी पर टंगे वस्त्र नहीं होते रिश्ते
न ही छींके पर रखे असबाब की तरह
इस प्रकार सुलभ
कि जब चाहा इस्तेमाल किया
माफ़िक़ न हुआ तो मन से उतार दिया
ज़रूरत की ज़मीन पर उगी फसल नहीं होते रिश्ते
कि काट काटकर बोरियां भरते रहा जाए
न ही सांसें अटका देने वाली अपेक्षाओं की तरह
इतने बेमुरव्वत
कि फांस बनकर गले में अटक जाए
निर्वाह की स्वाभाविकता भी खो जाए
तंत्र तो उत्सव में लीन होता है, मगर लोक ‘सलीब’ पर टंग जाता है
ठीक इसी तरह सिर्फ चुनाव होना ही लोकतंत्र की गारंटी नहीं हैं। घोषित तानाशाह भी उस वैधता की लालसा रखता है, जो आधुनिक युग में, केवल मतपेटी या ईवीएम द्वारा ही प्रदान की जा सकती है। जीत का अंतर डराने-धमकाने के एक और हथियार के रूप में दोगुना असर डालता है। साथ ही यह भी सच है कि चुनाव के बिना लोकतंत्र का अस्तित्व नहीं है। साल 2024 में, भारत समेत दुनिया की आधी से अधिक आबादी अपनी अपनी सरकार चुनेगी। कहने को तो आम चुनाव लोकतंत्र का महापर्व है। मगर यह कैसा महापर्व है, जिसमें तंत्र तो उत्सव में लीन होता है, मगर लोक ‘सलीब’ पर टंग जाता है। ऐसे संकट के दौर में कवि करोड़ों बेजुबानों के “हूक” को स्वर देता है और पूछ बैठता है-
यह देश किसका है?
जो सुविधाओं का निर्माण कर
दर-ब-दर भटक रहे हैं
उनका..?
या
जो सारी सुविधाओं पर
कुंडली मारकर बैठे हैं
उनका..?
बोल बंधु यह देश किसका है?
कवि इस सोकॉल्ड विकास के चरम उत्कर्ष से बेखबर नहीं हैं
कमोवेश पूरी दुनिया में आज पूंजीवाद से उपजे तानाशाहों या फिर लोकतांत्रिक व्यवस्था में निरंकुश शासकों का वर्चस्व बढ़ रहा है| जाहिर है कवि इस सोकॉल्ड विकास के चरम उत्कर्ष से बेखबर नहीं हैं। वह अपनी देखी, समझी हुई उस सामाजिक समझ के बूते ही “वीणा के तार छेड़ो” शीर्षक कविता में आह्वान करता है कि
अपनी
दुनिया को नर्क बना रहे पागलों को
उनके हाल पर छोड़ दो
बकने दो
हंसने दो
चीखने दो
उनकी देह से शेर की खाल
जल्द ही उतर जाएगी।
इसी तरह “ग़लती” शीर्षक कविता में कवि कहता है कि
उसकी ग़लती उतनी नहीं थी
जितनी उसे सच्चा समझने वालों ने की थी
ग़लीज़ परंपरा से उसका लगाव
जगजाहिर था
आधुनिकता के प्रखर प्रतिमानों से तरन्नुम भरा बैर
उसके हर वचन
हर चाल से छलकता था
पीछे मुड़कर
आगे दौड़ने के अपने बखूबी अभ्यास से
उसने क़बीले को चमत्कृत कर रखा था
हर उस सवाल को बचाए रखने की जद्दोजहद जिनके गुम होने की आशंका है
इस संग्रह की कविताओं में आम लोगों के जीवन का अर्थ भी घनीभूत है। उनकी कविताएं मन मसोस कर ही सही, हर उस सवाल को बचाए रखने की जद्दोजहद करती नजर आती हैं, जिनके इस संवेदनहीन दौर में, वक़्त की धुंध में, कहीं गुम होने की आशंका है। वे अपनी धरती, अपनी थाती, अपनी विरासत या फिर यूं कहें कि मनुष्य जीवन, प्रकृति या सब कुछ के होने को खोने से ऐसे ही बचाए रखना चाहते हैं। मसलन “आप…. बुद्ध हैं न!” शीर्षक कविता में कवि की बेचैनी बहुत कुछ बयां करती है —
सुनिए…
आप…बुद्ध हैं न!
हमें आपसे बहुत प्यार है
पर कैसे स्वागत करूं आपका
यहां कदम कदम पर पहरा
वाणी पर आघात है गहरा
कैसे कहूं…
उदयन की नेकी को चीथ रहा है अंधकाल
प्रसेनजित की गद्दी पर क़ाबिज़ है अंगुलीमाल।
मगर पृथ्वी जैसा कोई नहीं होता है
हमारी यह दुनिया लगभग साढ़े चार अरब साल पुरानी है और आधुनिक मानवों के इस धरती पर आए लगभग दो से तीन लाख वर्ष हो गए हैं। जाहिर सी बात है कि इस लंबे अंतराल में कई परिवर्तन आए होंगे। मनुष्य का अस्तित्व जब से इस पृथ्वी पर उत्पन्न हुआ है, प्रकृति ने सहचरी की भांति उसका साथ निभाया है। उसने मनुष्य की हर सुख-सुविधा का ख्याल रखा है और उसके अस्तित्व को पृथ्वी पर पनपने के लिए सभी साधन दिए हैं। “सौंदर्य” शीर्षक कविता में कवि कहता है कि
जीवन की आस में
सैकड़ों ग्रह ढूंढ निकाले
एक एक कर
सौर परिवार से बाहर
मगर पृथ्वी जैसा कोई नहीं होता है
समकालीन जीवन अनुभव व काव्यगत संवेदना के साथ विशिष्ट रंगरूप
इस संग्रह की कविताएँ समकालीन जीवन अनुभव व काव्यगत संवेदना के साथ विशिष्ट रंगरूप में अभिव्यक्त हुई हैं। यहां दुनिया भर का दुःख-दर्द, संघर्ष और यथार्थ के मूलभूत अंतर्विरोधों और शाश्वत प्रेम का सौहार्द मौजूद है। “उम्मीद” शीर्षक कविता में कवि कहता है –
सांझ बिताकर
रात में तारे कौन गिनता है?
जो राहत की छत पर लेटा हो
या जो उम्मीद भरी सुबह की प्रतीक्षा में हो
कुछ साल पहले राजधानी दिल्ली में ‘लड़कियों के ख्वाब’ विषय पर आयोजित एक गोष्ठी में शामिल तीन महिला लेखकों ने स्वीकार किया था कि लड़कियों को ख्वाब देखने के ज्यादा मौके तो नहीं मिलते हैं। लड़कियों को पहले से तैयार किए ख्वाब ही देखने की इजाजत होती है। ‘लड़की’ शीर्षक कविता में कवि ने स्त्री-पीड़ा के कई अविस्मरणीय चित्रों को बखूबी उकेरा है-
लड़की और नसीहत साथ-साथ पैदा होती हैं
ओंकार के रास्ते पर पत्थर रख
लड़की अपने लिए नकार लेकर आती है
उसका असली दोस्त उसके आंसू होते हैं
जो आमरण साथ निभाते हैं
उसे घड़ी-घड़ी दी जाती है
पिता की पगड़ी की दुहाई
मां की ममता की क़सम
भाई के भविष्य का वास्ता
इसके अलावा हमारी टूटती सांसें लौटा दो, कमाल है..कुछ भी कमाल नहीं, ख़तरे का संकेत, बादशाहत ख़तरे में है, संकट आया तो सब नंगे हो गए, पैदल टैक्स और आख़िरी रोटियां आदि शीर्षक कविताएं कवि के सचेत संवेदनशील मनुष्य होने की तस्दीक बखूबी करती हैं।