जयपाल की लंबी कविता ‘भगवान से एक मुलाकात’ पर एक  आलोचनात्मक टिप्पणी

जयपाल की लंबी कविता ‘भगवान से एक मुलाकात’ पर एक  आलोचनात्मक टिप्पणी

एस.पी. भाटिया

जयपाल की यह रचना साधारण कथ्य में बसी हुई प्रतीत होती है, परंतु गहन रूप से देखें तो यह समकालीन धार्मिक-सामाजिक विमर्श, सत्ता और मानवता पर एक प्रबुद्ध चिंतन है। कुरुक्षेत्र रेलवे स्टेशन जैसी आम जगह से शुरुआत करना कवि का प्रतीकात्मक उपकरण है—यह दर्शाता है कि दिव्य और सांसारिक का मिलन कहीं भी संभव है, और भगवान भी किसी सामान्य इंसान की तरह भटक सकते हैं, असुरक्षित महसूस कर सकते हैं।

कवि ने भगवान को “बड़ी बुरी हालत में” उतारा है। यह रूपक धार्मिक प्रतीकों के पाखंड और आज के समाज में धार्मिक स्थानों की असुरक्षा पर कटाक्ष है। भगवान का वाटर कूलर से पानी पीना, हाथ-मुँह धोना, और बैठ जाना, एकदम मानवीय तरीके से प्रस्तुत किया गया है—यह दर्शाता है कि ईश्वर भी वर्तमान सामाजिक-सांस्कृतिक संकटों में असहाय हैं।

प्लॉट, शहर और जगह की चर्चा – यह प्रतीक है भगवान की आज़ादी और उनकी पहचान पर लगे सामाजिक-पाखंड के बंधनों का। “अयोध्या का प्लॉट” और “मस्जिद, गुरुद्वारा, चर्च” की खोज में भगवान की परेशानियाँ इस बात का संकेत हैं कि धार्मिक संस्थाएँ अब उनके नाम से नहीं, बल्कि मनुष्यों की सत्ता और हिंसा से भरी हैं।

कवि ने भगवान की उदासी और उनकी मानवीय इच्छा—“थोड़ा आराम करना, बसना, जीना और मरना”—के माध्यम से दर्शन दिया है कि सर्वशक्तिमान भी मानसिक और सामाजिक दबावों से मुक्त नहीं हो सकता। यह रचना धर्म और धार्मिक संस्थाओं पर व्यंग्य का भी माध्यम है। “ग्रैहम स्टेंस और उसके बच्चों की त्रासदी” और “अयोध्या की रात दिन पत्थरों की बरसात” जैसी घटनाओं का उल्लेख सीधे तौर पर सामाजिक और राजनीतिक आलोचना है।

धर्मग्रंथों और मानव कर्म पर संवाद – भगवान स्वयं बताते हैं कि वे न अच्छा करते हैं न बुरा, यह सब मानव के कर्मों का फल है। “आज तक कोई गुरु-संत-महात्मा आदि मुझसे नहीं मिला, सबके सब खुद ही भगवान बन जाते हैं।” यह रचना धर्म और ईश्वर की पारंपरिक अवधारणाओं पर कटाक्ष करती है और मानव के कर्म और उनकी जिम्मेदारी को प्रमुखता देती है।

भटकाव, उत्पाती भीड़ और हिंसा – रचना का यह भाग दर्शाता है कि भगवान भी अपने दीवानों के हाथों पीड़ित हो सकते हैं। यह प्रतीकात्मक रूप से दर्शाता है कि जब धार्मिक भावनाएँ पाखंड और कट्टरता में बदल जाती हैं, तो स्वयं ईश्वर भी असुरक्षित हो जाता है। “राम, रहीम, वाहेगुरु, जीसस आदि कई नाम हैं मेरे” यह पंक्ति सार्वभौमिकता और मानव-समाज में ईश्वर की अनदेखी को रेखांकित करती है।

कुल मिलाकर, जयपाल की यह रचना मानव, धर्म, सत्ता, और ईश्वर के बीच के जटिल और विरोधाभासी संबंधों का दार्शनिक विवेचन प्रस्तुत करती है। भाषा साधारण, प्रवाह सहज, पर अर्थ गहन और तीक्ष्ण है। व्यंग्य, कटाक्ष और संवेदनशील सामाजिक टिप्पणी का मिश्रण इसे समकालीन साहित्य में एक प्रबुद्ध, चिंतक, और आलोचनात्मक दृष्टिकोण वाली रचना बनाता है।

यह रचना पाठक को सोचने पर मजबूर करती है—क्या धर्म और उसके संस्थान भगवान के नाम पर इंसानों को सजा देते हैं या उन्हें भटकाते हैं? क्या ईश्वर सचमुच सर्वशक्तिमान है, या उनका अस्तित्व और प्रभाव मानव कर्मों के जाल में उलझा है? जयपाल ने इसे बड़े ही रोचक और प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत किया है।

एस..पी. भाटिया लेखक और समीक्षक हैं 

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