ग़ज़ल
मनजीत मानवी
वो आया भी और चला भी गया
इक कोह सा मगर दरमियाँ ही रहा
कहीं कोई खिश्त हिला तो सही
फासला मगर फासला ही रहा
चलो दो घड़ी छू के देखें `शफ़क
खामोशी ने खामोशी से कहा
तल्खियों की यहाँ ज़रूरत नहीं
देखिये वक्त है ये संकट भरा
जो सुकूँ संगत की राहों में है
अदावत में भला वो रंगत कहाँ
वो शय जिसे कहते हैं हम ज़िंदगी
कदम दो कदम का ये है रास्ता !
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