कैंसर के साथ एक मुठभेड़: आत्म-चिंतन
मनजीत मानवी
कहा जाता है कि जीवन संयोगों से बुना होता है —और कैंसर से मेरी मुठभेड़ भी ऐसा ही एक संयोग था। जुलाई 2024 में, मैंने अपने 36 वर्षों की निष्ठापूर्ण सेवा पूर्ण कर, एम.डी.यू., रोहतक के अंग्रेज़ी एवं विदेशी भाषा विभाग से वरिष्ठ प्रोफ़ेसर के रूप में ससम्मान सेवानिवृत्ति ली। उसके तीन महीने बाद विश्वविद्यालय परिसर का निवास छोड़कर सेक्टर-3, हुड्डा स्थित अपने घर में लौट आई। अगले पाँच-छः महीने घर को नया स्वरूप देने में बीते—विशेषकर अपनी प्रिय पुस्तकों और प्यार से सहेजे गए पौधों के लिए उपयुक्त स्थान बनाने में।मई 2025 में, मैं अपने जीवन की दूसरी पारी के स्वागत के लिए पूरी तरह तैयार थी— सहज और स्वच्छंद रूप से पढ़ना-लिखना, संगठन के कार्यों को अधिक समय देना, बागवानी, संगीत, तथा स्वयं व समाज कोअधिक गहरी व दूरदर्शीनज़र से देखना।और ठीक उसी समय—अचानक, अप्रत्याशित रूप से—यह घटना हुई।मानो किसी शांत झील में अचानक कोई बड़ा पत्थर फेंक दिया हो— और उसकी उठती लहरें मेरे समूचे अस्तित्व तक फैल गईं।मेरा शरीर, मेरा मन—सब कुछ एक झटके में बदल गया।
कमाल की बात यह है कि यह सब एक सामान्य सी जाँच से शुरू हुआ। कोई लक्षण नहीं, कोई संकेत नहीं, कोई पूर्वाभास नहीं। सब कुछ अकस्मात ही हुआ। मई महीने के शुरू में डर्बी (यू.के.) से मेरी एक मित्र भारत आई और कुछ दिन मेरे साथ रहीं। उनके घुटनों के दर्द की जाँच के लिए हम रोहतक के पोज़ीट्रॉन अस्पताल गए। वहां प्रतीक्षा के दौरान मेरी नज़र मैमोग्राफी संबंधी एक सूचना पर पड़ी। मेरी बेटी मल्लिका लंबे समय से मुझे मैमोग्राम करवाने की सलाह दे रही थी, तो मैंने सोचा—“चलो आज ही करवा लेती हूँ।” डॉक्टर ने पहली नज़र में मैमोग्राफी फिल्म देखकर सब कुछ ठीक बताया, पर दो दिन बाद रिपोर्ट लेने को कहा। मैं निश्चिंत थी, और इसलिए रिपोर्ट दस दिन बाद ली। और वहाँ- मेरे बिल्कुल सामने—सब अनपेक्षि तथा, मानो कह रहा हो कि जीवन में कुछ भी निश्चित मान लेना हमारी भूल है। एक सहज-सी नज़र अचानक सतर्क हो गई:“ दोनोँ बगल में कुछ सूक्ष्म आकार के लिम्फ नोड्स दिखाई दिए…”रिपोर्ट के अनुसार तत्काल अल्ट्रासाउंड और आगे की चिकित्सीय जाँच आवश्यक थी। मैंने उसे दोबारा पढ़ा, भीतर उतरने दिया, और आगे की प्रक्रिया शुरू कर दी।
उसी दिन देर शाम को मैंने यह रिपोर्ट मेदांता मेडीसीटी अस्पताल, गुरुग्राम, के वरिष्ठ रेडियोलॉजिस्ट और स्कूल के अपने पुराने सहपाठी, डॉ. कुलबीर अहलावत को भेजी। उन्होंने तुरंत फोन किया:“कल सुबह मेदांता आ जाओ। यहाँ नवीनतम मशीनें हैं, सारी तस्वीर स्पष्ट हो जाएगी”। अगले दिन मेदांता में अल्ट्रासाउंड और बायोप्सी से कैंसर की संभावना का संकेत मिला। लेकिन बायोप्सी की रिपोर्ट मिलने और कैंसर की पुष्टि के लिए तीन दिन की लंबी प्रतीक्षा करनी थी —रिपोर्ट आने तक ‘हाँ’ और ‘न’ के बीच झूलते हुए—वे 76 घंटे और 31 मिनट—अनंत काल से लगे। शायद सबसे मुश्किल घड़ियाँ यही थीं। किताबें, टीवी, मित्र, पौधे, पढ़ना-लिखना—कुछ भी इस चिंता से ध्यान हटा नहीं पाया। आख़िरकार24 मई को शाम 5.31 पर, जैसे ही मेरे फोन पर रिपोर्ट आई- पल भर के लिए सबसे भयावह शब्द मेरी आँखों के सामने नाचे और फिर धुंधले पड़ते चले गए—:“दुर्दम्य कैंसर — स्तन की नलिकाओं में फैलने वाला (इन्वेसिव डक्टल कार्सिनोमा), प्रथम ग्रेड।” चंद मिनट बाद ही डॉ. कुलबीर का फोन आया, उन्होंने समझाया—यहलो-ग्रेड स्तन कैंसर है, वह भी अपनी शुरुआती अवस्था में— सुन कर थोड़ी राहत मिली, लेकिन ज़ख्म अभी ताज़ा था, फिर कैंसर तो कैंसर ही होता है। उन्होंने मुझे सामान्य करने के लिए हँसते हुए कहा,“अगर किसी को होना ही हो, तो यह सबसे अच्छा वाला कैंसर है, क्योंकि यह पूरी तरह से उपचार-योग्य है, बस थोड़ी सावधानियाँ बरतनी पड़ेंगी।” अजीब-सी सान्त्वना देने वाली हँसी, और उस क्षण, कहीं मन में एक बदलाव आया—कैंसर किसी को चुन कर नहीं आता। हर साल भारत में सात लाख से ज्यादा कैंसर के नए मामले सामने आते हैं- फिर “मैं ही क्यों” का सवाल ही कहाँ पैदा होता है। एक शांत दबी हुई आवाज़ भीतर से उठी—“यह बस एक और इम्तिहान है। इससे हिम्मत से गुज़रना होगा।”
बायोप्सी, सर्जरी और रेडियोथेरेपी की पूरी प्रक्रिया आशा से अधिक सहज रही। मैंने मानसिक रूप से स्वयं को जितने असहाय दर्द के लिए तैयार किया, वास्तव में उससे कुछ कम दर्द में ही बात बन गई —यह एक वरदान था। मेदांता के डॉक्टरों की दक्षता, पारदर्शिता, करुणा और संवेदनशीलता ने हर कठिन क्षण को सरल बना दिया। 27 मई को ऑपरेशन थिएटर पहुंचते ही महिला सर्जन डॉ. कंचन कौर का स्नेह भरा वाक्य आज भी मेरे भीतर गूंजता है—“मेरी इस जगह पर तुम्हारा हार्दिक स्वागत है”—उस एक वाक्य ने मेरे भीतर उठते तूफ़ान को शांत कर दिया। ऑपरेशन पूरी तरह कामयाब रहा। ऑपरेशन के बाद रेडिएशन ऑन्कोलॉजिस्ट मुस्कुरा कर बोले: “आप मरीज़ लगती ही नहीं हैं—60 वर्ष की तो बिलकुल नहीं!” थोड़े से शब्द, लेकिन बहुत गहरा असर।
सर्जरी होने के तुरंत बाद, जैसे ही मुझे होश आया,मुझे आरसीबी और एलएसजी के बीच उस दिन खेल जाने वाला आईपीएल मैच याद आया और मैंने नर्स से पूछा- क्या मैं क्रिकेट मैच देख सकती हूँ? वह थोड़ा मुस्कुराई और बोली – “हाँ – जरूर।“ निजी कमरे में आते ही मैंने वह मैच देखा। आरसीबी की शानदार बल्लेबाज़ी ने जैसे दर्द को क्षणभर के लिए किनारे कर दिया। 3 जून को 18 साल बाद आरसीबी का खिताब जीतना—जैसे ब्रह्मांड ने मेरे लिए खुशियों का तोहफ़ा भेजा हो। मैंने परिवार को दावत दी—(सुरक्षित दूरी से, निश्चित ही!) अजीब इत्तफाक है कि 1980 में कपिल देव से फोन पर बात करने के लिए मुझे कैंसर रोगी बनने का नाटक करना पड़ा था—और आज, 45 साल बाद—मैं सचमुच कैंसर से लड़ते हुए—क्रिकेटमैच देख रही थी। जीवन सचमुच अपना चक्र पूरा कर लौट कर वापिस आता है।
कुछ दिनों बाद जब एक शोधार्थी ने पूछा, कि “मैडम, इस पूरे अनुभव से आपने क्या सीखा?”
तो भीतर से सहज ही उभरा—सबसे पहले यह कि मैं अब जीवन की हर आहट को, सूक्ष्मतम फुसफुसाहट तक को सुनने लगी हूँ। अब कुछ भी हल्के में नहीं लेती। अपने शरीर और मन के प्रति अत्यंत सचेत हो गई हूँ और दोनों के प्रति मेरा सम्मान कई गुणा बढ़ गया है। यह सर्जरी केवल शारीरिक नहीं थी—वह मानसिक और भावनात्मक शोधन भी थी। मैंने उन छोटी-छोटी बातों को दरकिनार करना सीख लिया है, जो दिल-दिमाग पर विपरीत असर डालती हैं। मेरा अपने धैर्य और सामर्थ्य पर, भरोसा दृढ़ हुआ है । इस अवधि ने मुझे एक बार फिर याद दिलाया कि किताबें किस प्रकार हमारी सबसे खूबसूरत मित्र होती हैं- शांत, धैर्यवान, अंतर्मुखी—जो तीव्र से तीव्र दर्द को भी शब्द-दर-शब्द, पृष्ठ-दर-पृष्ठ, सहनीय बना देती हैं।
रेडियो थेरेपी के दौरान उस LINAC मशीन के नीचे, एक निश्चित स्थिति में 10-15 मिनट तक स्थिर लेटे रहना—धीरे-धीरे ध्यान में बदल गया। वहाँ ख़ामोशी बाहर की नहीं—भीतर की थी। कभी-कभी तो डॉक्टर को याद दिलाना पड़ता था कि “सेशन पूरा हो गया है। आप उठ जाइये।” साथ ही अपनी बारी आने की प्रतीक्षा के दौरान मरीज़ों के साथ होने वाले वे रोजमर्रा के संक्षिप्त लेकिन बहुमूल्य संवाद- जीवन के कई पाठ सिखा गए- साझा शक्ति और एकजुटता के वे छोटे-छोटे क्षण जबरदस्त मनोबल बढ़ाने वाले थे— जैसे मुश्किलों से लड़ने की एक साझी साहस-गाथा हो।
और सबसे ऊपर—प्रेम की अपार शक्ति- परिजनों, मित्रों, सहकर्मियों, छात्रों, और दूर-सुदूर परिचितों का स्नेह, चिंता, प्रार्थनाएँ—उन्होंने आंधी में पतवार की तरह मुझे सँभाले रखा। एक पल भी अकेलापन नहीं महसूस हुआ। और इस पूरे सफर के दौरान, आत्म-विश्वास मेरे साथ पर्वत की तरह खड़ा रहा। निरंतर जीवन के इम्तिहानों की भट्ठी में तपकर यह ऐसा दृढ़ हो चुका था कि उसने कभी अपनी पकड़ ढीली नहीं होने दी।आज मैं स्वयं को जीवंत महसूस करती हूँ—अधिक परिपक्व, अधिक संवेदनशील,और जीवन के प्रति कहीं अधिक खुली हुई।मनुष्य के हृदय में छिपी शांत सुंदरता को पहचानने में अब मैं पहले से अधिक सक्षम महसूस करती हूँ, अपने शरीर और अपने परिवेश के प्रति अधिक सजग, संवेदनशील और सतर्क भी ।कैंसर का रोग अपने साथ चिंता और बेचैनी तो लेकर आया,पर इसके उपचार ने भीतर एक गहरी सहन शक्ति और सजगता को जगा दिया। इसने मुझे परखा—यह सच है, लेकिन उससे भी अधिक मुझे मेरे अपने भीतर से परिचित किया। एक खेलप्रेमी होने के नाते मेरे अंदर की खेलभावना निरंतर फुसफुसाती रही- “इस लौ को बुझने मत देना।” आज मन में राहत है किशायदसबसे कठिन दौर अब पीछे छूट चुका है, और यह विश्वास भी, कि पंख भले ही कट जाएं, पर हौंसले की उड़ान अपना रंग दिखाती है।
मेरा हार्दिक धन्यवाद उन डॉक्टरों को, जिन्होंने मुझे उपचार और स्नेह से संभाला,उन प्रियजनों को जिन्होंने हर क्षण मेरे साथ खड़े रहकर सहारा दिया, संगठन के उन तमाम साथियों को जो हर प्रकार की मदद के लिए तत्पर रहे और क्रिकेट के इस जुनून को जिसने मेरे मनोबल की लौ को प्रज्वलित रखा। अंत में—इस पुनर्नवीनीकरण और पुनर्जन्म की मेरी यात्रा को—जीवन की इस खुशनुमा दूसरी पारी को, जो प्रेम, कृतज्ञता और स्वयं पर अटूट विश्वास की रोशनी में नहाई हुई है। जीवन की अदम्य जिजीविषा को सलाम—
धरती पर इसके समान सचमुच कुछ भी नहीं!
