सिरसा सम्मेलन में ध्वजारोहण करते हुए बलवन्तसिंह बूरा ।
हरियाणाः जूझते जुझारू लोग-28
बलवन्त सिंह बूरा: विवेकपूर्ण, संवेदनशील और भरोसेमंद यूनियन लीडर
सत्यपाल सिवाच
हिसार जिले के गाँव घिराय में फरवरी 1949 में पैदा हुए बलवन्त सिंह बूरा अध्यापक आन्दोलन के ऐसे विवेकशील नेता के रूप में विकसित हुए जिन्हें स्वतन्त्र चिंतन के लिए याद किया जाता रहेगा। सर्वकर्मचारी संघ में भी उन्होंने हिसार जिले और दूसरे क्षेत्रों में अलग पहचान बनाई। उन्होंने इतिहास, राजनीति शास्त्र और समाज शास्त्र में एम.ए. तथा बी.एड. उपाधियां प्राप्त करने के बाद शिक्षा विभाग में सन् 1971 में सामाजिक अध्ययन विषय के अध्यापक के रूप में काम शुरू किया। सन् 1973 में उनकी सेवा नियमित हुई। 28 फरवरी 2007 में वे अपने ही गांव घिराय के राजकीय उच्च विद्यालय से मुख्याध्यापक पद से सेवानिवृत्त हुए। छह मार्च को हुई सड़क दुर्घटना में वे ऐसे बेहोश हुए कि दोबारा कभी उठ ही नहीं पाए तथा 19 मार्च 2017 को जीवन यात्रा पूरी हो गई।
मेरा उनसे परिचय तो यूनियन के मंच से ही सन् 1985 में हुआ था, लेकिन वह इतना घनिष्ठ हो गया कि वे उनके संपूर्ण जीवनकाल में आत्मीयता कायम रही। वे ऊपर से जितने लापरवाह और मौज मस्ती वाले स्वभाव के दिखते थे, दिल से उतने ही अच्छे, संवेदनशील और भरोसा करने लायक व्यक्ति थे। बाद के दौर में मिलने का अन्तराल भी बढ़ गया था लेकिन कभी भी महत्वपूर्ण विषयों पर हमारा नियमित संवाद होता रहता था।
नौकरी के शुरुआती दौर में वे यूनियन से जुड़े हुए नहीं थे और यारों-प्यारों के साथ घुमक्कड़ी में ही मस्त रहते थे। अस्सी के दशक के अंतिम दौर में वे संगठन में रुचि लेने लगे। उसके बाद सक्रिय हुए तो आन्दोलन के शिखर तक पहुंचे। सन् 1986 में वे जिला प्रधान चुने गए। सन् 1994-96 में वे राज्य के महासचिव और 1996-98 में राज्याध्यक्ष निर्वाचित हुए। बलवन्त सिंह ऐसे शख्स थे जिनके पद नहीं, काम महत्वपूर्ण था। वे राज्य प्रधान पद से मुक्त होने के बाद 1998-2000 में फिर से जिला हिसार के प्रधान बन गए।
वे परम्परागत ढंग के कार्यकर्ता नहीं थे, बल्कि बहुत रचनात्मक ढंग से सोचने वाले, योजनाकार और योजनाओं को व्यवहार में बदलने वाली शख्सियत थे। जब वे राज्याध्यक्ष बने तो उनकी टीम में मुझे भी महासचिव के रूप में शामिल किया गया था। एजेंडा तय करने के लिए बैठक से पहले विमर्श करते तो उनके मस्तिष्क में कौंध रही अनेक प्रभावशाली योजनाएं सामने आतीं। वे जो कुछ सोचते उस पर स्वयं प्रयोग करके कारगरता की जाँच करते थे। सन् 1986-87 में सर्वकर्मचारी संघ हरियाणा बनने पर वे पहले जिला स्तर पर और बाद में राज्य में उपाध्यक्ष बने।
वे उन थोड़े से कार्यकर्ताओं में शामिल रहे जिन्हें किसी भी दूसरे जिले में भेजा जा सकता था। स्कूल टीचर्स फेडरेशन ऑफ इंडिया के गठन से पहले बनी को-आर्डिनेशन कमेटी ऑफ स्कूल टीचर्स एसोसियशनस् की नेशनल कांऊसिल के सदस्य के रूप में वे उन पहले सैकड़ों शिक्षकों में शामिल थे जो चेन्नई कन्वेंशन में गए थे। उस समय वे हरियाणा के प्रतिनिधिमंडल के नेता थे।
वे पहली बार 1987 के आन्दोलन में उन्हें जेल जाना पड़ा। उसके बाद वे अनेक बार गिरफ्तार हुए और कुल 58 दिन जेलों में बिताए। सन् 1989 के शिक्षक आन्दोलन के दौरान उन्होंने अनिश्चितकालीन क्रमिक अनशन कार्यक्रम की व्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सन् 1991, 1993, 1996-97, 1998 के बड़े आन्दोलनों में राज्य स्तर के चुनींदा कार्यकर्ताओं में शामिल थे। सेवानिवृत्त होने के बाद भी वे सक्रिय रहे। अपनी मृत्यु से पहले वे रिटायर्ड कर्मचारी संघ के उपाध्यक्ष थे और पंचकूला प्रदर्शन की तैयारियों के दौरान ही सड़क दुर्घटना का शिकार हुए।
वे बहुत सीधे स्वभाव के थे लेकिन सांगठनिक बारीकियों को समझने में लाजवाब थे। जब वे अध्यक्ष से थे तो रेवाड़ी जिले से गुण्डागर्दी के बल पर प्रधान बनने का इच्छुक एक अध्यापक उनके स्कूल में पहुंच गया। उसने रिवाल्वर निकाल कर मेज पर रख दिया और कहने लगा – “रविवार को रेवाड़ी में चुनाव करवाने मत आना।” बलवन्त सिंह शांत रहे और बोले – “दूर से आए हो, पानी पीओ, चाय पीओ और यह खिलौना उठाकर वापस चले जाओ। यह मेरा इलाका है, इसलिए कुछ और कहना ठीक नहीं होगा। रविवार को वहाँ आएंगे और चुनाव भी होगा। तुम ये वहाँ लेकर आना।” हम वहाँ गए। वह आदमी बीच में बैठा था। उसे नाम लेकर पुकारा और कहा – “हाँ, अब दिखा भाई, क्या है तेरे पास? डेलीगेट नहीं है, यहाँ से चलता बन?” कहने का अंदाज इतना जबरदस्त था कि वह अपने तीन चार साथियों के साथ खिसक गया। कुछ ऐसा ही मिलता जुलता वाकया फतेहाबाद के चुनाव में भी हुआ था।
साथी बलवन्त लड़कियों की शिक्षा के प्रति बहुत संवेदनशील रहे। उसके लिए स्कूल में प्रोत्साहन देने के साथ साथ अभिभावकों को भी मिलकर प्रेरित करते थे। संघर्षों में सदैव अग्रणी, निर्भीक, तत्पर बुद्धि एवं विवेकपूर्ण आदि अनेक गुण उनके व्यक्तित्व का हिस्सा थे। मुश्किल समय पर वे शांत रहकर धैर्य से रास्ता खोजने में माहिर थे। बहुत उच्च कोटि के शिक्षक, रचनाधर्मी और प्रयोगशील व वैज्ञानिक मिजाज के व्यक्ति थे। सेवानिवृत्ति के बाद बूरा खाप में सक्रिय हो गए। मैंने पूछा – आपने वामपंथी छोर से ठीक उलट दक्षिणी छोर कैसे पकड़ लिया। उनका उत्तर उसी अंदाज में रहा- मैं कोशिश करके देखना चाहता हूँ कि खाप संस्था को पुरातन लकीर के बजाय प्रगतिशील कामों में लगाया जाए। यह देखा भी कि उन्होंने कभी स्वेच्छा विवाह को विवाद नहीं बनने दिया; अनेक प्रगतिशील निर्णय लिए और विवादास्पद मामला आया तो उस पर निर्णय टाल देने की कार्यनीति अपनाई। दलित विरोध या महिला विरोधी कोई निर्णय उनकी पंचायतों में नहीं हुआ।
बलवन्त सिंह के परिवार में पत्नी के अतिरिक्त तीन बेटियां और दो बेटे हैं। उनके परममित्र गांव के मास्टर जयपाल बूरा से मिलने पर कुछ पुरानी बातें ताजा हो जाती हैं। सौजन्यः ओमसिंह अशफ़ाक

लेखक- सत्यपाल सिवाच

 
			 
			 
			