सूबेसिंह बूरा – विद्यार्थी काल से नौकरी तक आंदोलनकारी
सत्यपाल सिवाच
जी, हाँ ! सूबेसिंह बूरा ऐसी शख्सियत हैं जिन्हें कर्मचारी आन्दोलन और किसान सभा में सभी लोग जानते हैं। मेरा परिचय भी 1987 में संघर्षों के दौरान ही हुआ था। संघर्षशील, बेबाक और मजाकिया लहजे में अपनी बात कहने अथवा कभी कभी उलझ जाना भी इनकी पहचान रही है। सूबेसिंह बूरा भिवानी जिले तोशाम क्षेत्र के गांव रोढ़ां में 10 मार्च 1954 को श्रीमती सरतीदेवी और श्री दानेराम के घर जन्मे। उन्होंने स्कूली शिक्षा गांव के स्कूल में ही प्राप्त की तथा बाद में भिवानी से बी.ए. परीक्षा उत्तीर्ण की।
वे बिजली बोर्ड में मीटर रीडर पद पर 10 जनवरी 1975 को नियुक्त हुए थे और 31 मार्च 2012 को यूडीसी के रूप में सेवानिवृत्त हुए। नौकरी में आते ही वे यूनियन में सक्रिय हो गए थे, क्योंकि वे छात्र जीवन में एस.एफ.आई. के आन्दोलन सक्रिय रहे थे। उस समय भिवानी में प्रदीप कासनी और विजयपाल सांगवान छात्र आन्दोलन में सक्रिय थे। मास्टर शोभाकर और रणसिंह मानसिंह भी छात्र आन्दोलन के सहायक, मार्गदर्शक और शिक्षक रहे।
977 में सूबेसिंह बूरा का वामपंथी नेताओं से संपर्क हो गया था। उसके बाद और अधिक सक्रियता से आगे रहने लगे थे। वे शुरू में अम्बाला में लगे थे। फिर भिवानी जिले बहल क्षेत्र में रहे। सन् 1987-88 से हिसार में हैं। यहाँ आने के बाद इन्होंने अपने घनिष्ठ मित्रों इंजीनियर एस.बी. श्योराण, मास्टर मनफूल सिंह और ओमप्रकाश शर्मा के साथ एकता कालोनी में निवास स्थान बना लिया।
सन् 1988 में वे सर्वकर्मचारी संघ के ब्लॉक अध्यक्ष बन गए थे। बाद में हिसार के जिला अध्यक्ष भी रहे। बिजली बोर्ड की यूनियन में शुरू से सक्रिय रहे। उन्हें सब यूनिट, सर्कल सेक्रेटरी और राज्य स्तर पर सेक्रेटरी के रूप में काम करने का अवसर मिला। संघर्षों में अनेक बार लाठीचार्ज, जेल और अन्य उत्पीड़न का शिकार हुए। वे अलग अलग समय पर हिसार , भिवानी, बुड़ैल और दिल्ली सहित दो महीने से अधिक समय जेलों में रहे। सन् 1993 में उन्हें बर्खास्त किया गया था। इसके अलावा वे दो-तीन बार निलंबित भी किए गए। रोडवेज के प्रारंभिक आन्दोलनों में उन्हें अनेकों बार उत्पीड़न और दमन का सामना करना पड़ा। उन दिनों में हड़ताल को सफल बनाने के लिए दूसरे विभागों और जनवादी संगठनों के कार्यकर्ता बस स्टैंड के गेट पर मोर्चा लगाया करते थे।
सूबे सिंह बूरा को लगता है कि पहले और अब के समय में बहुत कुछ बदल चुका है। वे अपने समय के नेतृत्व को जुझारू संघर्षों के प्रतीक, कुशल रणनीतिकार और बलिदानी स्वभाव के मानते हैं। आन्दोलन के मुद्दों को लेकर उनका कहना है कि तब बुनियादी सवालों पर लड़ाइयां लड़ी गईं। अब नीति सम्बन्धी मामलों में “सरकार नहीं झुकेगी” मान लिया गया है। रणनीति के तौर वे लड़ाइयां आरपार की थीं, आक्रामक तेवरों के साथ उतरते थे तो दमन तंत्र भी जोर लगाता था।
आज के दौर को वे अलग मानते हैं लेकिन साथ ही जोर देकर कहते हैं कि 2020-21 के किसान आन्दोलन से सबक लेना चाहिए। व्यापक एकता बनाएं ; दूसरे जनवादी संगठनों और जनता के साथ सम्बन्ध बनाएं और लम्बा मोर्चा लगाएं तो सत्ता को झुकाना नामुमकिन नहीं है। आक्रामक तेवरों के लड़ेंगे तो सफलता मिलेगी।
उल्लेखनीय है कि रिटायरमेंट के बाद अखिल भारतीय किसान सभा में सक्रिय हैं। वे किसान के तहसील सचिव, तहसील प्रधान, जिला सचिव और राज्य सचिव भी रहे। वे वैचारिक जागरूकता, साम्प्रदायिकता व जातिवाद से मुक्ति और आर्थिक मुद्दों को एक ही लड़ाई का हिस्सा मानते हैं। सौजन्यः ओम सिंह अशफ़ाक
लेखक: सत्यपाल सिवाच