कविता
षड्यंत्र
ओमप्रकाश तिवारी
गुलशन में गुलाब लगे थे
सभी रंग के थे
लाल कम
पीले ज़्यादा थे
सफ़ेद रंग वाले भी थे
एक दिन पीले रंग वाले एक गुलाब ने अपने बगल वाले से कहा
हमारे ख़िलाफ़ षड्यंत्र हो रहा है
कौन कर रहा है?
लाल रंग वाले
सफ़ेद वाले साथ दे रहे हैं
अगले दिन सभी पीले रंग वालों में यही फुसफुसाहट थी
हमारे ख़िलाफ़ षड्यंत्र हो रहा है
सूचना सफेद और लाल वालों तक पहुँची
उन्होंने आश्चर्य जताया
ख़तरा कांटों से बताया
उनकी बात ख़ारिज कर दी गई
शिकायत माली से कर दी गई
माली ने सफ़ेद और लाल फूलों को तोड़कर
बाजार में बेच दिया
सभी शोधन संयंत्र में लाए गए
ड्रम में डाले गए
मशीन में पीसे गए
इस तरह इत्र बनाए गए
अब सुगंधित ही थे
पदार्थ से तरल हो गए
पीले गुलाब इतरा रहे थे
उनका षड्यंत्र कामयाब हुआ था
ख़ुशी उनकी ज़्यादा दिन नहीं ठहरी
एक एक करके सभी तोड़े जाने लगे
कोई प्रेमी के हाथों प्रेमिका तक पहुंचता
कोई प्रेमिका के हाथों प्रेमी तक
दोनों की भावनाएं हिलोरे लेतीं
पीले गुलाब कूड़ेदान में सड़ते
सड़क पर कुचले जाते
कभी कभार गुलदस्ता भी बनते
हश्र अच्छा नहीं होता
वहाँ भी बेक़द्री होती
एक दिन सभी पीले गुलाब गुलशन से ख़त्म हो गए
न उनका रंग रहा न ही सुगंध बची
फिर उन्होंने कहा
यही षड्यंत्र था हमारे ख़िलाफ़