ऋत्विक घटक का साक्षात्कार पार्ट 4
मैंने सिर्फ सत्यजित राय और मृणाल की फिल्में देखी हैं
मनुष्य का सांस्कृतिक मन नष्ट हो गया है
ऋत्विक घटक
पूना की नौकरी का युग मेरे सबसे अधिक आनन्द मुखर युगों में से एक है। वहां पर नये लड़के लड़कियां आशाएं लेकर, अनेक तरह की उत्कट भाव- भंगिमाएं व शैतानियां लेकर आते हैं। वहां शैतानियों का अर्थ है कि यह जो नया मास्टर आया है, इसे छकाने के लिए इसके पीछे पड़ना होगा। उनके बीच में जाकर मैं छपाक से कूद पड़ा। उनके दिल को जीतना, उनको यह समझाना कि जो अन्य तरह की फिल्म हो, इसका जो आनंद होता है, उसे ठीक तरह से समझाया नहीं जा सकता है। अन्य तरह का आनंद जिसका सृजन अनेक लड़के-लड़कियों ने किया था। मेरे छात्रों का दल पूरे भारत वर्ष में फैल गया। किसी ने नाम कमाया और कोई नाम नहीं कमा सका, कोई खड़ा हो गया और कोई धारा में बह गया।
मणि कौल मेरे छात्र हैं । बहुत प्रिय और निकटतम छात्र – मणि, कुमार साहनी का एक ही बैच था। के.टी. ज़ॉन – के.टी. जॉन आजकल केरल में हैं। शत्रुघ्न सिन्हा, रेहाना सुलताना, के.के. महाजन, उसके बाद ध्रिव ज्योति ये सब हमारे छात्र हैं। दिल्ली में जाकर देखा ध्वनि अभियंता और कैमरा मैन के रूप में मेरे छात्र भर्ती हैं। यह सब देखकर अद्भुत आनन्द का अनुभव होता है। एक गुरु का आनन्द इसमें है कि मैंने जिन्हें पढ़ाया-सिखाया, उन्होंने प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली है, अपने-अपने क्षेत्र में जो सफ़ल है, उनमें थोड़ा-बहुत मेरा भी अवदान है, यह सोचकर अच्छे या बुरे रूप में गर्व का अनुभव करता हूं।
उसके बाद नौकरी छोड़ दी और कलकत्ता चला आया। लोगों से भीख नहीं मांगूंगा, यही निश्चय कर चल रहा था। इसी बीच मेरा पीना बुरी तरह बढ़ गया था। बार-बार बीमार होने लगा। आप लोग वे सब बातें जानते हैं, पागलों के कैदखाने को भी जानते हैं। बीच- बीच में अवसर मिलने पर फिल्म भी बनाता था, प्रचण्ड असुविधाओं के होते हुए भी, कोई पैसा देना नहीं चाहता था, वृत्तचित्रों का काम भी नहीं मिल रहा था। इस तरह अनेक बाधाएं थीं। इस बीच कौन सी फिल्म बिना पैसे के और कौन सी फिल्म अच्छी तरह बनायी.. हां, इन्हें अच्छी तरह बनाने की चेष्ठा जरूर की थी। उनमें पश्चिम बंगाल सरकार की ओर से बनायी पुरुलिया की “छाऊ” नृत्य नामक फिल्म ऐसी है तो लोगों के देखने योग्य है। ‘मेरे लेनिन’, एक रिपोर्ताज किस्म की फिल्म है जिसे समेट कर एक कहानी का रूप देने की चेष्ठा की गयी है। वह फिल्म बुरी तो नहीं बनी थी। इसके अलावा पूना में छात्रों के साथ एक छोटी – सी फिल्म खींची थी। ‘राँदेबू’ छात्रों के साथ बनायी गयी मेरी फिल्म और इसके अलावा ‘फीयर’, मुझे लगता है ये फिल्में खराब नहीं बनी थीं।
दर्शकों में निश्चय ही परिवर्तन आ गया है। अच्छी फिल्म देखने के प्रति उनका आग्रह बढ़ गया है। विशेष रूप से कम उम्र के लड़कों में अच्छी फिल्म देखने के लिए एक अद्भुत खिंचाव पैदा हो गया है। यह हमारे लिए कैसा आनन्द है, इस प्रसंग में पूरी तरह एक व्यक्तिगत अनुभव की बात यहां बता रहा हूं। 15 अगस्त को लाइट हाउस में मेरी ‘सुवर्ण रेखा’ फिल्म दिखाई गयी। मुझे पता चला कि वहां एक रुपये की टिकट सात रुपये ब्लैक में बिकी और अधिकांश युवा दर्शक थे, जिन्हें फिल्म अच्छी लगी थी वे लोग दल के दल देखने आये। यहां पर बैठे बैठे मैं अनुभव कर पा रहा हूं कि दर्शक इसी तरह से तैयार होते हैं। इसके पीछे दो तीन निर्देशकों का अवदान है- दो तीन क्यों कहीं , सिर्फ दो लोगों काः एक मृणाल सेन और दूसरे सत्यजित राय। इन लोगों ने बांग्ला फिल्मों में भारी उलट-फेर कर दिया। आशा है, ये लोग और भी बदलाव कर देंगे।
फिल्में मैं बहुत कम देखता हूं। सत्यजित बाबू या मृणाल सेन की ही फिल्में मैंने कम देखी हैं, शेष लोगों की फिल्में मैंने देखी ही नहीं हैं। मेरी स्त्री या और कोई जब देखकर आता है, उसके बारे में गपशप कर उसकी मुख्य थीम बताता है , इस पर मैं कहता हूं – ठीक है, ठीक है। क्या होगा यह सब देखकर। तुम लोग फिल्म देखते हो तो पता है क्या होता है, अगर अच्छी लगी तो अच्छी है, मज़ा आया, खराब लगी तो कहने लगते हो खराब है, सिनेमाघर से निकल कर कहते हो, अरे कुछ भी नहीं। मैं अगर फिल्म देखने जाता हूं तो एक छात्र बन जाता हूं। इस शॉट के बाद यह शॉट क्यों काट दिया? यह क्यों किया, वह क्या किया, मेरा मन निरन्तर काम करता रहता है। यदि पूरी तरह से फिल्म आकर्षित न कर पाये जैसा कि एक दिन ‘पथेर पांचाली’ ने किया था तो फिर सिर्फ़ फिल्म के व्याकरण की ओर मन चला जाता है, परिणाम यह होता है कि फिल्म से कोई आनन्द नहीं मिलता है।
‘जुक्ति, तक्को ओ गप्पो’ की और दस-बारह दिन की शूटिंग बची है, फिर जहां-तहां काटा- कूटी, एक डेढ़ महीने का काम शेष है। दो-तिहाई फिल्म बन चुकी है।
जिस समय इसकी पटकथा लिखी जा रही थी, उस दौरान दोनों बंगाल की घटनाएं आ गयी थीं, उस समय मैं हाल ही में उस बंगाल जाकर आंखों से वहां का थोड़ा हाल देखकर लौटा था।
‘दुर्वारि गति पद्मा’ में जरूर कुछ ला नहीं सका था, वह बनायी नहीं जा सकी। संभव भी नहीं था। सिर्फ वहां के दृश्य आंखों से देख भर आया था। मन में इसी तरह का एक अर्थ रोमांटिक प्रेम, इसके बाद ताज़ा-ताज़ा जब यह सब देखकर आया था, इसी इकहत्तर (1971) के जून महीने में इस फिल्म की स्क्रिप्ट लिखने बैठा – इसलिए इन दोनों बंगालों का स्पर्श इस फिल्म में है। फिर भी 73 के अंतिम भाग में यह फिल्म रिलीज़ होती है ही, वह उसमें कर दिया है। फिल्म जब तक समाप्त नहीं होती है, तब तक इस संबंध में किसी मन्तव्य है कोई अर्थ नहीं है, पहले फिल्म शेष हो जाने दो, उसके बाद…
इस फिल्म के माध्यम से मैं कहना कुछ भी नहीं चाहता हूं, कहना क्या चाहता हूं, इसे आप फिल्म देखकर समझ जाएंगे, उसका खुलासा करने में कोई मज़ा नहीं है। बल्कि कह देने से मज़ा नष्ट हो जाता है। आप लोग अपनी तरह से उसे समझ जाएंगे। रवि ठाकुर की कविता पढ़कर रवि ठाकुर ने जो सोचकर कविता लिखी थी उस बारे में आप सोचते नहीं हैं, आप तो अपने रस के द्वारा उसका कुछ अर्थ निकाल लेते हैं।
यह फिल्म आत्मकथा मूलक – फूलक कुछ नहीं है। इन दिनों मेरे जीवन में जो कुछ घट गया था, इसी इकहत्तर वर्ष में, वही इस फिल्म का शुरुआती बिन्दु है और इस उत्तेजनापूर्ण अवस्था में, इकहत्तर के प्रारंभ में – कलकत्ते के चबूतरे पर बैठकर कलकत्ता को ही बड़ी तन्मयता के साथ देखा गया था। सच हो या झूठ मेरा चूंकि एक स्टेटस है, इसलिए बड़े लोगों में घुसकर उनकी प्रतिक्रियाएं क्या हैं, उन्हें मैंने देखा है, इसलिए मैंने समाज के प्रत्येक स्तर को काटकर देखने और दिखाने का प्रयास किया है, उस समय सारे मनुष्य किस तरह की प्रतिक्रिया कर रहे थे, साल के अंत में दिया जाने वाला पूरे साल का विवरण देने जैसा है। प्रारम्भ का बिन्दु अर्थात मेरे जीवन की कुछ घटनाओं द्वारा प्रारम्भ। क्रमशः
ऋत्विक घटक का आत्मकथात्मक फिल्म निर्माण का विवरण काफी दिलचस्प बन गया है। इसमें आत्मकथा भी है, फिल्म निर्माण की प्रक्रिया भी है,फिल्में किस दृष्टिकोण के साथ देखनी चाहिएं और फिल्मों की समीक्षा करने की तमीज भी है। ऋत्विक की आत्मालोचना भी है और गुरु शिष्यों के संबंध की मिठास भी है। प्रतिबिंब मीडिया को ऐसी चीज छापते रहना चाहिए। ऋत्विक घटक का खुद का तजुर्बा था कि नौजवान पीढ़ी में अच्छी चीजों का आकर्षण बढ़ रहा है। हमें भी इसको बढ़ाने का काम करना चाहिए!