ऋत्विक घटक का साक्षात्कार पार्ट -2
मनुष्य का सांस्कृतिक मन नष्ट हो गया है
अगर सिनेमा से कोई अच्छा माध्यम निकल आया तो वहां चला जाऊंगा
ऋत्विक घटक
जननाट्य मंच से उस समय मैं नहीं जुड़ा था। फिर भी उसी के आसपास घूमता रहता था। शम्भू दा, विजन बाबू, सुधी बाबू, दिगिन बाबू, गंगा दा, गोपाल हलधर मोशाई, मानिक बाबू, ताराशंकर दा आदि हरेक से मेरी जान-पहचान थी। जननाट्स मंच उस समय कोई अलग से संस्था नहीं थी, प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन का ही एक भाग थी। ताराशंकर दा उसके अध्यक्ष थे। इन सभी के साथ मेरा परिचय संवाद था।
मेरे बड़े भाई ‘कल्लोल’ युग के प्रसिद्ध कवि थे युवनांश्च ‘मनीष घटक’। उसी वजह से साहित्यिक जगत के साथ हमारे परिवार का योगायोग था। सिनेजगत के लोगों को जिस तरह पहचानता था, ठीक वैसे ही इन लोगों को भी। और ‘नवान्न’ एकाएक मेरे पीछे पड़ गया था। सबसे पहले विजन बाबू ने ‘आगुन’ (चिंगारी, आग) की रचना की, बाद में इसी को बढ़ाकर ‘जवानबंदी’ एकांकी की। और ‘जवानबन्दी’ की सफलता के बाद इसी को बढ़ाकर पूर्ण नाटक ‘नवान्न’की रचना की और उसका मंचन किया गया।
‘नवान्न’ने मेरे सोचने के ढंग को बदल दिया, मैं नाटक की ओर झुकता ही चला गया। ‘इप्टा’ का सदस्य हो गया। बाद में ‘नवान्न’को 1947 के अंतिम चरण में जब फिर से खेला गया, उसमें मैंने अभिनय भी किया। उसके बाद मैं पूरी तरह जननाट्य संघ के केंद्रीय दल का नेता भी हो गया था। नाटककार के रूप में इप्टा के लिए मैंने नाटक लिखे थे।
नाटक की प्रतिक्रिया तत्काल होने की वजह से नाटक मुझे बहुत अच्छे लगने लगे थे। फिर कुछ दिन बाद क्या हुआ कि नाटक भी मुझे नाकाफी लगने लगे, मन में आया कि नाटक का प्रभाव भी सीमित होता है। नाटक मुश्किल से चार पांच हजार लोगों के बीच की घटना होता था। हम लोग जब मैदान में नाटक खेला करते थे, चार-पांच हजार लोग इकट्ठे हुआ करते थे, नाटक से एक साथ सम्बोधित कर दिया जाता था। उसी समय सिनेमा का विचार आया, सिनेमा लाखों लोगों को एक साथ एक ही बार में पूरी तरह अपने प्रभाव में ले सकता है। इस तरह मैं सिनेमा में आया न कि फिल्म बनाऊंगा यह सोचकर । कल अगर सिनेमा से भी अच्छा माध्यम निकल आता है, तो सिनेमा को भी छोड़कर चला जाऊंगा, मेरा फिल्मों से कोई प्रेम नहीं है।
हां अपना वक्तव्य प्रकाशित करने के माध्यम के रूप में, एक हथियार के रूप में…
इसे आप अगर राजनैतिक बात कहते हैं, तब इसका अर्थ है कि आप एक निरर्थक बात कह रहे हैं। राजनीति जीवन का विराट अंश है, राजनीति के बिना कुछ भी नहीं होता है, हर मनुष्य राजनीति करता है, जो कहता है कि मैं राजनीति नहीं करता, वह भी करता है। अराजनैतिक जैसी कोई बात नहीं है।
आप हर समय या तो पक्ष या विपक्ष का हिस्सा होते हैं, इसलिए वे सब बातें छोड़ ही दीजिए, उन सब बातों की चर्चा करने प र अन्य तर्क-वितर्क में जाना पड़ेगा। मैं उस समय भी सोचता था और आज भी सोच रहा हूं, राजनीति के साथ-साथ दर्शन, भारतीय इतिहास, परम्परा आदि के सन्दर्भ में नयी फिल्मों के मामले में अगर विचार किया जाए, वे भारत के प्रचातन जीवन और विराटता की बुरी तरह उपेक्षा करती हैं। इन सबके बारे में अगर विचार किया जाए तो वे उसे प्रगतिशीलता के विरुद्ध मानती हैं।
मैं मोटे रूप में इन्हीं सबको लेकर फिल्म बनाता जा रहा हूं और जब तक जीवित रहूंगा, वही सब करता रहूंगा। कल अथवा आज से दस बरस बाद सिनेमा से बढ़कर अगर कोई अच्छा माध्यम निकल आया और अगर मैं दस वर्ष जीवित रहा तो सिनेमा को लात मारकर, वहीं चला जाऊंगा। सिनेमा के प्रेम में महाशय मैं नहीं पड़ा हूं।
लोग जब फिल्म बनाते हैं, तब अगर उन्हें फिल्में बनाना अच्छा न लगे तो नहीं बनाएंगे, मैं तो नहीं बनाता। जिस विषय को लेकर मैं फिल्म बनाने की सोच रहा हूं, अगर मुझे वह अच्छा न लगे, उस पर फिल्म बनाना कैसे संभव है। फिल्म निर्मित करने की, शारीरिक परिश्रम करने की एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण दिशा होती है, अमानवीय परिश्रम नाम का भी एक व्यापार होता है किन्तु खटने का मतलब सांघातिक रूप से खटना।
फिर इसका एक आर्थिक पक्ष भी है। इतना कष्ट सहकर धन इकट्ठा किया फिर एक उन्मादग्रस्त व्यक्ति की तरह खटते हुए एक फिल्म बनायी। उस फिल्म का विषय अगर मुझे पसन्द न आया होता तो कुछ करने की प्रेरणा कहां से मिलती? मनुष्य खटता है यानि एक तरह का खटना रचनात्मक खटना होता है और फिर क्या कहा जाए, पसन्द होने के कारण ही वह खटता रहता है। केवल पैसा मिलेगा या नाम होगा सिर्फ इस वजह से खटता होगा, ऐसा मुझे नहीं लगता। जो सहज रूप से समझते हैं मैं उनकी बात नहीं कर रहा हूं, अधिकांश मनुष्यों की बात नहीं कह रहा हूं। मुट्ठी भर वे लोग जो फिल्मों को गंभीरता से लेते हैं, मैं उन्हीं की बात कर रहा हूं। क्रमशः