एस.पी.सिंह के बेबाक बोलः शब्द का क़त्ल, और इंसानियत का ताबूत

बेबाक बोल

 शब्द का क़त्ल, और इंसानियत का ताबूत

एस.पी.सिंह

कभी किसी सूफ़ी ने कहा था — “लफ़्ज़ रूह के आईने होते हैं, जो दिल की सच्चाई को दिखाते हैं।”

पर इस सरज़मीं पर कुछ लफ़्ज़, आईना नहीं, तलवार बन जाते हैं — और यह तलवारें, सदीयों से ख़ून में डूबी हैं।

“बेटा” — एक शब्द, जो माँ के होंठों से गिरे तो दुआ बनता है, पिता के गले से निकले तो आसरा, बुज़ुर्ग की आवाज़ में आए तो परछाईं-सा साया।

मगर जब यही शब्द एक दलित की ज़ुबान पर सजता है, तो वह न ख़्वाब होता है, न रहमत — वह एक मुहर होती है मौत के हुक्मनामे पर।

हाय! कैसी तल्ख़ हक़ीक़त है यह कि यहाँ रिश्ते ख़ून से नहीं, उम्र से नहीं, बल्कि जाति के परत-दर-परत ज़हर से तय होते हैं।

यहाँ सामंतवाद और पितृसत्ता के दोहरे सिंहासन पर बैठी मनुवादी सोच, उम्र के तराज़ू को तोड़कर जाति की तख़्ती टाँग देती है।

और इस तख़्ती पर लिखा है —

“उच्च वर्ण के लिए सब बेटा,

निम्न वर्ण के लिए कोई बेटा नहीं।”

नीलेश राठौर ने शायद सोचा होगा — “बेटा, पापड़ दे दो” कहने में क्या बुराई है?

उसे कहाँ इल्म था कि पापड़ की कुरकुराहट से पहले, कुल्हाड़ियों और डंडों की गूँज उसके जिस्म में आख़िरी साँसों का तराना बजा देगी।

क्योंकि इस मुल्क में “बेटा” कहना भी आरक्षण के दायरे में है — और वह आरक्षण, संविधान का नहीं, सदियों पुराने मनु के आदेश का है।

सोचिए, अगर यही लफ़्ज़ किसी ठाकुर, पंडित, पटेल या बनिये की ज़ुबान से उतरता — तो दुकानदार कहता, “वाह! देखो, हमें अपना मानते हैं।”

पर दलित की ज़ुबान पर आते ही यही शब्द, नाम लेकर पुकारने से भी बदतर गुनाह बन जाता है।

यह है वह ज़हर, जो मुहब्बत के सबसे मासूम लफ़्ज़ को भी नफ़रत के हथियार में बदल देता है।

यह सदी हमें चाँद और मंगल पर भेज रही है, पर गाँव के चौपाल पर जाति का पहरेदार आज भी खड़ा है — हाथ में अदृश्य यमदंड, दिल में अदृश्य घृणा।

डॉ. आंबेडकर ने कहा था — “दलित, ग़ैर-दलित के दबाव में जीते और मरते हैं।”

पर लगता है अब यह दबाव सांस पर भी पहरा बिठा चुका है।

हम सब इस नाटक के पात्र हैं — कुछ ताली बजाने वाले, कुछ मौन साधने वाले, और कुछ वह, जिनकी आवाज़ हमेशा के लिए ख़ामोश कर दी जाती है।

क्योंकि इस धरती पर “बेटा” कहने का हक़ भी, इंसानियत नहीं, जाति तय करती है।

और जब किसी समाज में इंसान से पहले जाति जीती है — तो समझ लो, वहाँ इंसानियत का जनाज़ा बहुत पहले निकल चुका है।

लेखक अजीत समाचार में वरिष्ठ पत्रकार हैं

One thought on “एस.पी.सिंह के बेबाक बोलः शब्द का क़त्ल, और इंसानियत का ताबूत

  1. हार्दिक सप्रेम कृतज्ञता, कि मुझ जैसे साधारण एवं निरीह प्राणी पर आपने अपार स्नेह, आदर और सत्कार की अमृतवृष्टि की। आपने अपने अनुपम एवं प्रतिष्ठित मंच पर मुझे स्थान देकर जो अनुग्रह, कृपाभार और प्रतिष्ठा प्रदान की है, उसके लिए मैं वंदनीय, आदरणीय, प्रबुद्धजनों, सूफ़ी-हृदय दार्शनिकों, साहित्य-साधकों, चिंतक-मनस्वियों और विचार-विभूतियों को शत-शत नमन करता हूँ। आपके इस अनुग्रह, एहसान और सरपरस्ती का ऋण मैं जीवन पर्यंत अपने हृदय-मंदिर में संजोए रहूँगा और अपनी विनम्र सेवा एवं समर्पण से इसे उतारने का प्रयास करता रहूँगा।

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