स्मरण
मुद्राराक्षस: परिवर्तन के संघर्ष का निडर योद्धा
कौशल किशोर
‘वे दर्ज होंगे इतिहास में/पर मिलेंगे हमेशा वर्तमान में’
मुद्राराक्षस. उनका यही नाम था. पर हमारे लिए वे ‘मुद्रा जी’ थे और यही रहेंगे. 13 जून 2016 को उन्होंने हमारा साथ छोड़ा. याद आता है वह दिन. दोपहर का समय था जब उनके बड़े बेटे रोमी शिराज का फ़ोन आया. हम दुर्विजयगंज पहुंचे. हर बार की तरह मन में यही विचार था कि पहले की तरह मेडिकल कॉलेज जाएंगे. दो-तीन दिन वहां रहेंगे. थोड़ा सुधार होते ही घर चलने की ज़िद करेंगे. लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ. मेडिकल कॉलेज नहीं पहुंच पाए. रास्ते में ही…… जिंदगी और मौत के बीच बीते एक-डेढ़ साल से जो जंग चल रही थी, उस पर विराम लग गया. हम उनका हाथ थामे रहे, पर मुद्राजी हाथ छुड़ा चल दिए किसी अनजाने सफर की ओर…..
मुद्रा जी को गए 9 साल बीत गए. क्या हम उन्हें भूल पाए हैं? क्या भूल पाएंगे? हम तो ऐसे दौर में हैं, जब वे बहुत याद आते हैं. दुबले-पतले और छोटी कद-काठी के मुद्रा जी के अंदर सच, साहस और ईमानदारी थी. ‘काल से होड़’ लेने और टकरा जाने का माद्दा था. वह कहते थे कि ‘यह ऐतिहासिक पाप होगा, अगर हम चुप रहे. बदलाव का इतिहास रचने के लिए लड़ाई में उतरना जरूरी है. हमें इसलिए लिखना है ताकि जो लड़ रहे हैं, उनका भरोसा ना टूटे.’
मुद्रारक्षस के रचनात्मक जीवन के तीन मोड़
इसी भरोसे को उन्होंने ताजिंदगी बनाए रखा. उनका आत्मसंघर्ष युवा दिनों में ही शुरू हो चुका था, जब नकली और पराई प्रवृत्तियों तथा सामाजिक-साहित्यिक वर्चस्व के खिलाफ संघर्ष में ‘सुभाष चंद्र’ से ‘मुद्राराक्षस’ में उनका रूपांतरण हुआ. उन्होंने 1950 के आसपास लिखना शुरू किया था.
उनके रचनात्मक जीवन में तीन मोड़ को लक्षित किया जा सकता है. पहला मोड़ है साहित्य की दुनिया में प्रवेश और फिर जब वे लखनऊ से 1955 में कोलकाता गए. वहां उन्होंने 1958 तक ‘ज्ञानोदय’ में बतौर सहायक संपादक काम किया. फिर 1958 से 60 तक कोलकाता से निकलने वाली पत्रिका ‘अणुव्रत’ का संपादन किया. उनका पहला उपन्यास ‘लिबिडो’ तथा पहला नाटक ‘डमी उवाच’ इसी दौर में लिखा गया.
मुद्रा जी 1962 के आसपास दिल्ली आ गए. 1976 तक वे आकाशवाणी, दिल्ली में नौकरी की. यह उनके जीवन का दूसरा मोड़ है. उन पर मार्क्सवाद, नक्सलवाद, अमरीकी साम्राज्यवाद के खिलाफ वियतनामी जनता के मुक्ति संघर्ष का गहरा प्रभाव पड़ा. वामपंथी नेताओं और समाजवादी विचारकों का संग-साथ मिला.
ऑल इंडिया रेडियों में काम करते हुए उन्होंने प्रसारण संस्थान में पहला मजदूर संगठन बनाया. कलाकारों, लिपिकों, चतुर्थ श्रेणी व तकनीकी कर्मचारियों की मांगों को लेकर आंदोलन चलाया. इमरजेंसी के दौरान यह काम उनकी साहसिकता का परिचायक है.
सामाजिक और ट्रेड यूनियन आंदोलन तथा देश-दुनिया के संघर्षों से उनका जुड़ाव बढ़ता गया. उनके कथा साहित्य की विषय-वस्तु में भी परिवर्तन हुआ. उन्हीं दिनों व्यवस्था से मोहभंग, सत्ता के दमन और प्रतिरोध के यथार्थ को सामने लाती उनकी चर्चित कहानी ‘दांत या नाखून या पत्थर’ ‘सारिका’ में छपी. इसी दौर में उन्होंने ‘भगोड़ा’ जैसा उपन्यास लिखा. ‘शांतिभंग’ की मानसिक पृष्ठभूमि भी तैयार हुई.
मुद्राराक्षस की घर वापसी
1976 में मुद्राराक्षस की घर वापसी हुई. वे आकाशवाणी से त्याग पत्र देकर लखनऊ आ गए. उनकी कई कहानियां, उपन्यास व नाटक आदि छप चुके थे. वे अपने नाटक ‘मरजीवा’ के निर्देशन के द्वारा निर्देशन व अभिनय के क्षेत्र में भी प्रवेश कर चुके थे. अर्थात जब उनकी लखनऊ घर वापसी हुई उस वक्त काफी चर्चा अर्जित कर चुके थे. उसके बाद से यह शहर उनकी कर्मभूमि बन गया. यहां के सांस्कृतिक, सामाजिक व राजनीतिक आंदोलनों के केंद्र में रहे.
यह उनके जीवन का तीसरा पर अत्यंत महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ. गौरतलब है कि इमरजेंसी के बाद लोकतांत्रिक आकांक्षाएं जिस प्रबल ढ़ंग से अभिव्यक्त हुई थी, उसने नई सामाजिक शक्तियों के अभ्युदय की जमीन तैयार की. स्त्री विमर्शं और दलित विमर्श जैसे नये विमर्शों की शुरुआत हुई. इसमें मुद्राराक्षस की हस्तक्षेप कारी भूमिका थी तथा मार्क्सवाद व आंबेडकरवाद के सहमेल से रेडिकल आंबेडकरवादी रचनाकार के रूप में उनकी पहचान बनी.
दलित मुक्ति का प्रश्न, ब्राह्मणवाद का विरोध, धर्मग्रंथों की मीमांसा जैसे विषय उनके चिंतन में केंद्रीयता ग्रहण करते गए. यह ऐसा मोड़ था जब समाज की आलोचना का सार संकलन आलोचना के समाजशास्त्र के रूप सामने आया जहां मुद्राराक्षस परंपरावादियों व कर्मकाण्डियों के लिए अपच का कारण तो बने ही, पारम्परिक प्रगतिशील आलोचना के लिए भी उन्होंने चुनौती पेश की.
मुद्रा जी ने शांतिभंग, दंड विधान, हम सब मंसाराम जैसी औपन्यासिक कृतियों के साथ दर्जनों कहानियों की रचना की जो खासे चर्चित रहीं. ‘शांतिभंग’ इमरजेंसी के दौर की कथा है जब लोकतांत्रिक अधिकारों का अपहरण कर लिया गया था. वह इस भ्रष्ट व जनविरोधी तंत्र के ताने-बाने का पर्दाफाश करती है. वहीं, उनका उपन्यास ‘हम सब मंसाराम’ और ‘दण्डविधान’ दलितों-वंचितों की दारुण स्थितियों का चित्रण ही नहीं करता बल्कि सत्ता व सामंती व्यवस्था को बदल देने का आख्यान और मुक्ति-स्वप्न भी रचता है.
‘सत्य के साथ सत्ता का युद्ध’
सार रूप में कहें तो मुद्रा जी के सृजन और विचार के मूल में सामाजिक बदलाव का जज्बा था. उन्होंने न जाने कितने रूपों में अपने व्यक्तित्व को ढ़ाला. तरह-तरह के हथियार गढ़े. कभी लेखक, चिंतक व रंगकर्मी तो कभी आंदोलन के कार्यकर्ता और फिर चुनाव मैदान में उतरकर अपने हथियारों को आजमाया भी. आलोचना हुई पर परवाह नहीं. उनकी यह लड़ाई बदलाव की थी. भारतीय सत्ता के जितने भी मॉडल हैं, नेहरू से लेकर मोदी तक, मुद्रा जी ने इनका क्रिटिक रचा. जिन प्रलोभनों व पुरस्कारों के लिए साहित्यकार व बौद्धिक अवसरवादी समझौता करते हैं, मुद्रा जी ने उन्हें ठेंगा दिखायां.
उन्होंने पुरस्कारों की परवाह नहीं की और हमेशा मुक्तिबोध के शब्दों में ‘सत्य के साथ सत्ता का युद्ध’ में वे सत्य के लिए जनता के पक्ष में अडिग रहे. उनका दलित विमर्श अस्मिता व पहचान से बहुत आगे वर्ग और वर्ण के समूल उन्मूलन पर आधारित था और उनकी इस मामले में साफ समझ थी कि भारतीय व्यवस्था जिस वैचारिक व दार्शनिक आधार पर खड़ी है, वह ब्राहमणवाद है. इस पर चोट किये बिना बराबरी के समाज की दिशा में एक कदम भी नहीं बढ़ाया जा सकता.
मुद्रा जी के सांस्कृतिक अभियान की राह में उम्र बाधा बनकर खड़ी थी. वे अस्सी पार कर चुके थे. इस उम्र की जो व्याधियां होती हैं, उन्हें अपनी चपेट में लेना शुरू कर दिया था. स्मृतियां भी साथ नहीं देती. मुद्रा जी मित्रों, संगी-साथियों से घिरे रहते थे. वहीं, उन्हें अकेलेपन में जीना पड़ रहा था. वे अपनों के बीच रहना चाहते थे. परन्तु साथियों का आना कम हो गया था. लेखन ही एक मात्र जीविका का जरिया था. स्वास्थ्य ने इस जरिए को भी प्रभावित कर दिया था. इसने जीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया था. पर वे यह सब हंस हंस कर पीते, किसी से कुछ कहते नहीं. कोई अपेक्षा भी नहीं रखते. जैसे संघर्ष किया है, स्वाभिमान से जीवन जिया है, वैसे ही आगे भी जियेंगे.
इस संबंध में साथियों ने पहल ली. 21 जून 2015 को उनके 82वें जन्मदिन के मौके पर ‘मुद्रा जी अपनों के बीच’ का राय उमानाथ बलि प्रेक्षागृह के जयशंकर प्रसाद सभागार में भव्य आयोजन हुआ. शहर का साहित्य समाज जुटा. मुद्रा जी तरोताजा दिखे. जमकर बोले. उन्हें उनका आदमकद चित्र भेंट किया गया. यह चित्र जाने-माने चित्रकार राजीव मिश्र ने बनाया था. दुखद बात है कि इसी 26 मई को राजीव मिश्र का भी निधन हो गया. कार्यक्रम का संचालन मैंने किया. उस दिन वीरेंद्र यादव, उर्मिल कुमार थपलियाल, अजय सिंह, सुभाष राय, शैलेंद्र सागर, शकील सिद्दीकी, राकेश, भगवान स्वरूप कटियार आदि वक्ताओं में शामिल थे. लगा मुद्रा जी अपनी पुरानी रौ में लौट आए हैं.
वह 13 अक्टूबर 2015 का दिन था. यूपी बैंक एम्पलाइज एसोसिएशन ने मुद्रा जी के सम्मान का कार्यक्रम आयोजित किया था जो बैंक कर्मचारियों के प्रिय, जुझारू व जनप्रिय नेता कामरेड प्रभात कार की स्मृति में दिया जाना था. संयोग ऐसा हुआ कि रास्ते में ही उनकी तबियत काफी खराब हो गई. उन्हें बलरामपुर अस्पताल लेकर जाना पड़ा. तीन दिन उन्हें अस्पताल में गुजारना पड़ा. उसके बाद से उनका स्वास्थ्य अस्थिर रहने लगा. कभी मेडिकल कॉलेज में भर्ती हुए तो कभी बलरामपुर अस्पताल में. स्वास्थ्य में सुधार की रफ्तार बहुत धीमी थी. जब भी स्वास्थ्य में गड़बड़ी होती, रोमी शिराज का फोन आ जाता.
‘वे जिंदगी भर स्वतंत्र रहे, किसी अनुशासन में बंधना उन्हें स्वीकार नहीं था’
सुभाष राय जी तो रोज ही उनका हाल-चाल लेते. वे दिन-दिन कमजोर हो रहे थे. पर आवाज में वही खनक थी. बिस्तर पर लेट-लेटे ही बातचीत करते. कभी-कभी सहारा देकर तकिये की टेक लगाकर हम उन्हें बिठाते पर ज्यादा देर इस हालत में वे बैठ नहीं पाते. जिंदगी भर स्वतंत्र रहे, किसी अनुशासन में बंधना उन्हें स्वीकार नहीं था पर उन्हें तमाम बंदिशों में जीना पड़ रहा था.
मुद्रा जी का 83 वां जन्मदिन आने वाला था. एक साल पहले उनके जन्मदिन पर एक बड़ा आयोजन किया गया था. लेकिन इस बार हालत ऐसी नहीं थी कि उन्हें घर से बाहर ले जाया जाए. तय किया गया कि इस बार का आयोजन उनके घर पर ही हो. उस दिन लोग जुटे. यहीं बाटी चोखा बने. वैसे मुद्रा जी इसके पक्ष में कभी नहीं थे कि उनके ऊपर कोई आयोजन हो. वे समझ रहे थे कि यह हमलोगों का स्नेह है इसलिए हमारे प्रस्ताव पर न तो हां कहा और ना. बस, मुस्कारा दिया. लेकिन हमारे दिल की भावना अंदर ही रह गई. एक सप्ताह पहले ही उन्होंने विदा ले लिया.
उनके जीवन के अंतिम एक-डेढ़ साल से दुर्विजयगंज की वह गली जहां मुद्रा जी का घर है, वह हमारी यानी सुभाष राय, भगवान स्वरूप कटियार और कौशल किशोर की दिनचर्या का हिस्सा बन गई थी. अब जब भी नाका चौराहे से रकाबगंज जाता हूं या उधर से गुजरता हूं, कदम उस गली की ओर मुड़ना चाहता है. मुद्रा जी के न होने के अहसास से झटका लगता है. कदम खींच लेना पड़ता है. अब तो रोमी शिराज भी नहीं रहे. मन उदास हो जाता है. उन्हें इन्हीं पंक्तियों से याद करता हूं –
‘वे दर्ज होंगे इतिहास में/पर मिलेंगे हमेशा वर्तमान/लड़ते हुए और यह कहते हुए/कि स्वप्न अभी अधूरा है.’ द वायर हिंदी से साभार
(लेखक साहित्यकार हैं और जन संस्कृति मंच, उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष रहे हैं.)