आवारा पूंजी के खतरे
क्या लोकतंत्र अब स्टार्टअप बन चुका है?
विजय शंकर पांडेय
परसाई जी आवारा भीड़ के खतरों के प्रति तो आगाह कर गए। मगर हम जिस दौर से गुजर रहे हैं, उसमें आवारा पूंजी न सिर्फ लोकतंत्र को खोखला करती जा रही है, बल्कि सच पूछिए तो मजाक बना चुकी है। सबसे अह्म सवाल तो यही है कि इस देश में लोकतंत्र चाहिए किसे? कभी सुना था कि लोकतंत्र में जनता सर्वोपरि होती है। लेकिन अब असली सत्ता उस ‘जनता’ के हाथ में है, जो स्विट्ज़रलैंड के बैंक में बैठी है, या फिर आवारा पूंजी के बूते लोकतंत्र के नियंता बनी बैठी है। वे चुनावी बॉन्ड्स में निवेश करने की हैसियत रखते हैं। अतिश्योक्ति नहीं होगी, अगर कहा जाए कि भारत में अब लोकतंत्र नहीं, लोक-तमाशा चल रहा है — जिसमें वोटर एक एक्स्ट्रा कलाकार मात्र है और पूंजीपति निर्देशक।
पूंजी की सरकार, पूंजी के द्वारा और पूंजीपतियों के लिए
एक समय था जब लोकतंत्र का मतलब था – जनता की सरकार, जनता के द्वारा, जनता के लिए। अब जमाना बदल गया है। अब लोकतंत्र का मतलब है – पूंजी की सरकार, पूंजी के द्वारा और पूंजीपतियों के लिए। चुनावी मैदान अब कोई लोकतंत्र का पावन संग्राम नहीं रहा, बल्कि वह एक मेगा बजट रियलिटी शो बन गया है। अब नेता वही बन सकता है, जिसे कम से कम दो तीन बिज़नेस टायकून, दो न्यूज़ चैनल और एक आईटी सेल वाला प्रमोट कर रहा हो। बाकी जो जमीनी कार्यकर्ता हैं, वो या तो नारियल फोड़ते हैं या सोशल मीडिया पर ‘थंब्स अप’ और ‘जय हो’ टाइप कमेंट भर कर सकते हैं।
ऐसे वायदे करते हैं जैसे कोई ऑनलाइन सेल में 90% छूट दे रहा हो
अब चुनाव में भाग लेना आम आदमी के बस की बात नहीं रही। पांच हजार के पकोड़े बेचकर तो अब सिर्फ टीवी डिबेट्स में ही ‘आत्मनिर्भर’ हुआ जा सकता है। असली राजनीति के मेन्यू में अब सिर्फ वे लोग टिकते हैं, जो ‘क्लाइंट मीटिंग्स’ और ‘कॉर्पोरेट ब्रेकफास्ट्स’ में लोकतंत्र की ललकार लगाते हैं। वही पुराने नेताजी जो कभी खद्दर पहनते थे, अब पेरिस से मंगवाए हुए सूट में “गरीबों के हक़” की बात करते हैं। वो मंच पर चढ़कर ऐसे वायदे करते हैं जैसे कोई ऑनलाइन सेल में 90% छूट दे रहा हो — “हर हाथ में नौकरी”, “हर खेत में पानी”, और “हर बैंक खाते में करोड़ों”… शर्तें लागू हैं, लेकिन प्रिंट बहुत छोटा होता है, जनता पढ़ नहीं पाती।
स्वदेशी नारों के साथ विदेशी निवेश का कॉकटेल
अब पार्टियों को विचारधारा से ज़्यादा ब्रांड वैल्यू की ज़रूरत होती है। सोशल मीडिया टीम पहले तय करती है कि कौन-सा स्टैंड लेना है, फिर पार्टी वही स्टैंड लेती है। विचार? वो तो बस पुरानी फाइलों में पड़े रहते हैं, जैसे किसी रिटायर्ड बाबू की डायरी। मुख्य विपक्षी पार्टियों की हालत भी कुछ कम दिलचस्प नहीं है। उन्हें भी अब ‘कूल’ दिखने के लिए ग्लोबल लुक और मल्टीनेशनल टच चाहिए। अब यदि कोई नेता देसी बोली में कुछ कह दे, तो उसे तुरंत “रीब्रांडिंग” के लिए किसी अंतरराष्ट्रीय एजेंसी के पास भेज दिया जाता है। आखिरकार, फंडिंग भी तो ‘आधुनिक’ हो गई है — स्वदेशी नारों के साथ विदेशी निवेश का मेल ही तो न्यू इंडिया की सियासत है।
चुनाव प्रचार अब नीतियों का नहीं, प्रॉपगेंडा पैकेजिंग का खेल
हाशिए पर ढकेली जा चुकी जनता अब सिर्फ ‘इवेंट मैनेजमेंट’ की स्क्रिप्ट में आती है — बिछाई जाती है, उठाई जाती है, फोटो खिंचाई जाती है। कभी-कभी जब ये जनता ज़्यादा सवाल करने लगती है, तो उसे एंटी-नेशनल, टूलकिट यूजर, या पेड ट्रोल घोषित कर दिया जाता है। सच पूछिए तो लोकतंत्र अब एक बड़े मॉल में तब्दील हो चुका है — जहां वोट एक डिस्काउंट कूपन है, नेता एक सेल्समैन, और जनता… बस भीड़ है। तो अगली बार जब कोई नेता “जनता जनार्दन” कहे, तो ध्यान दीजिए — उसके पीछे खड़ा प्रायोजक मुस्कुरा रहा होगा। और लोकतंत्र? वो शायद अगली ईएमआई की किश्त भरने कहीं कतार में खड़ा होगा। चुनाव प्रचार अब नीतियों का नहीं, प्रॉपगेंडा पैकेजिंग का खेल बन चुका है। माइक पर भाषण कम और बैकग्राउंड म्यूज़िक ज़्यादा बजता है — जैसे नेता नहीं, कोई ‘बिग बॉस’ का कंटेस्टेंट मंच पर उतर आया हो।
अब जनांदोलन नहीं, एयर-कंडीशन्ड रथों से रैली-इन-रिल्स चलाते हैं
विपक्ष भी अब संघर्ष नहीं करता, या यूं कहिए उसे कुछ करने लायक छोड़ा ही नहीं जाता। बस ट्विटर पर भड़ास मिटा कर संतुष्ट हो जाता है। उनके लिए भी राजनीति अब एक प्रेज़ेंटेशन है — कभी थिंक टैंक के सामने, तो कभी कॉर्पोरेट लंच पर। जनता बीच में आ जाए तो थोड़ी असहजता हो जाती है, जैसे किसी पावरपॉइंट में टाइपो आ गया हो। कभी किसी जमाने में नेता अपने खून-पसीने से जनांदोलन चलाते थे। अब वे एयर-कंडीशन्ड रथों से रैली-इन-रिल्स चलाते हैं। पहले लोग महात्मा गांधी को याद करते थे, अब ब्रांड गॉडमैन को फॉलो करते हैं।
और हाशिए पर खड़ी जनता?
वो तो अब भी वही ‘15 लाख’ के व्हाट्सएप फॉरवर्ड पर विश्वास करके अगली सरकार बनाने की आस लगाए बैठी है। नेताओं के कपड़े बदल गए हैं, भाषणों में एआई जेनरेटेड इंमोशंस कुलांचे भर रहा है, लेकिन जनता की थाली अब भी खाली है। वास्तव में, अब चुनाव आयोग को नाम बदलकर इवेंट मैनेजमेंट अथॉरिटी ऑफ इंडिया रख देना चाहिए। और राजनीतिक पार्टियों को अपने घोषणापत्र की जगह एक प्राइस लिस्ट जारी करनी चाहिए — जैसे, “100 करोड़ में टिकट”, “50 करोड़ में मंत्रालय”, और “थोड़ा बोनस में ‘भारत रत्न’ भी मिल सकता है!”
तो हे जनता जनार्दन, अगली बार जब नेता कहे – “आपका वोट हमारा सम्मान है,” तो कृपया पूछिए – “और दानदाता का क्या है? वो सिर्फ शुभचिंतक है या बोर्ड डायरेक्टर?”