समाज की तश्कील-ए-नौ (नया आकार देना) एक मंसूबे पर मुन्हसिर है और इसके लिए एक तंज़ीम की ज़रूरत है।’– तरक़्क़ी पसंद तहरीक पर समीना ख़ान का लेख :
समीना ख़ान
बीसवीं सदी की शुरुआत से ही दुनियाभर में आज़ादी की लहर उभरने लगी थी। दुनिया आलमी जंग की तरफ़ जा रही थी। पहली आलमी जंग में इंडियन नेशनल कांग्रेस ने अंग्रेज़ों की नुमाइंदगी के बदले हिन्दुस्तानियों का भरोसा तोड़ दिया था। अंग्रेज़ों की इस वादाखिलाफ़ी ने हिंदुस्तान में हिन्दू-मुस्लिम इत्तिहाद और ख़िलाफ़त की तहरीक को और मज़बूती दी। गाँधी जी की आमद ने मुल्क में एक सामाजिक तहरीक को हवा दी। इस वक़्त की उर्दू अदब की खिदमत तारीख़ के ज़रीन सफ़हात पर दर्ज हुई। उर्दू अदब इस तहरीक में पेश-पेश रहा। शायद इसी को डॉक्टर एजाज़ हुसैन ने उर्दू का तरक़्क़ी पसंद खमीर कहा है।
बहरहाल 1935 में पेरिस में International Congress of Writers for Defence of Culture के नाम से एक कॉन्फ्रेंस होती है जिसमें लंदन से दो हिंदुस्तानी शख्सियत, मुल्कराज आनंद और सज्जाद ज़हीर हिस्सा लेते हैं। इस कॉन्फ्रेंस से मुतास्सिर होकर मुल्क राज आनंद और सज्जाद ज़हीर लंदन में अपने चंद साथियों के साथ मिलकर इस अंजुमन का मंशूर (मेनिफेस्टो) तैयार करते हैं। इसकी एक कॉपी हिन्दुस्तान भेजी जाती है, जिस पर हिन्दुस्तान के तमाम अदीब (साहित्यकार) दस्तख़त करते हैं। इनमे प्रेमचंद, मौलवी अब्दुल हक़, जोश, फ़िराक़, हसरत, क़ाज़ी अब्दुल ग़फ़्फ़ार और अली हुसैनी के अलावा शामिल नामों की एक लम्बी फ़ेहरिस्त है। फिर 9-10 अप्रैल 1936 को लखनऊ में तरक़्क़ी पसंद मुसन्निफ़ीन का एक इजलास होता है।
प्रेमचंद 1936 में दिये गये इसके सदारती ख़ुत्बे में कहते हैं- ‘अदब में हुस्न और इख़लाक़ के अनासिर उसी वक़्त पैदा होंगे जब हमारी निगाहे हुस्न आलमगीर हो जायेगी। जब सारी ख़िलक़त (सृजन) इसके दायरे में आ जायेगी।’
अदीब की मसनद का ज़िक्र करते हुए प्रेमचंद कहते हैं कि अदीब वतनियत और सियासत के पीछे चलने वाली हक़ीक़त नहीं बल्कि उनके आगे मशाल दिखाते हुए चलने वाली हक़ीक़त है। मुंशी प्रेमचंद ने इसकी सदारत की और इजलास (सभा) में अदीबों के सामने तरक़्क़ी पसंद नज़रियात रखे गये। इस तहरीक ने समाजी नाइंसाफ़ियों के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद की। अब अदब का मौज़ू (विषय) आम इंसान, मेहनतकश और किसान थे। अदब के नये मौज़ू के साथ इसमें नये अलफ़ाज़ भी शामिल किये गये या कह सकते हैं कि अदब के ज़रिये मार्क्सिज़्म, कम्युनिज़म और सोशलिज़्म के नज़रिये सामने लाये जा सके।
ग़ज़ल, नज़्म, अफ़साना, नॉविल जितनी भी तख़्लीक़ी असनाफ़ (सृजनात्मक प्रकार) थीं, तरक़्क़ी पसंद तहरीक की आमेज़िश हर असनाफ़ में नज़र आने लगी। तनक़ीद (आलोचना), रिपोर्ताज, सफ़रनामे, ड्रामे कुछ भी इससे अछूता नहीं रह गया था।
नतीजे में ये अदब उम्मीद और जोश से भरपूर होने के साथ अक्खड़पन और तेवरों से लबरेज़ होता गया। इसका असर यह हुआ कि एक ख़ास नज़रिये के तहत उर्दू अदब की नौइयत बदल गयी। ज़्यादातर शोअरा (कवियों) ने आज़ाद नज़्म (छंद मुक्त) का सहारा लिया। इनमे पहला नाम अली सरदार जाफ़री का है। उन्होंने मार्क्स के फ़लसफ़े को अपनी शायरी की बुनियाद बनाया। हक़ को मांगने के नहीं बल्कि छीनने के क़ायल अली सरदार जाफ़री की नज़र में एक अदीब, एक इन्क़िलाबी सिपाही की तरह होना चाहिए। फ़ैज़ का इन्क़िलाब रुमानियत लिए हुए था। जोश, मजाज़, साहिर गरज़ ये कि हर अंदाज़ में और हर ज़ाविये से तरक्की पसंद नज़्म और नस्र (गद्य और पद) की तख़लीक़ हो रही थी।
प्रेमचंद के बाद तरक़्क़ी पसंद अफ़सानानिगारों ने ज़िंदगी के मसायल (समस्याओं) को अपने अफ़सानों का मौज़ू बनाया ,इन तमाम अफ़सानानिगारों ने अपने सियासी शऊर की बिना पर अफ़साने में मक़सदियत (उद्देश्य) को नुमाया किया। तरक़्क़ी पसंद अफसानों में प्रेमचंद के अफ़साने शहर से गांव का रुख करते हैं। कृश्नचंदर ने फ़सादात को जगह दी। नदीम अहमद क़ासमी मुनाफ़िक़त (पाखंड) को दिखाते हैं। मंटो और इस्मत चुग़ताई आम ज़िंदगी में हुक़ूक़-ए-निस्वां (महिला अधिकार) की बात करते है। राजेंद्र सिंह बेदी भी समाज की तल्ख़ हक़ीक़तों को सामने लाते हैं। उर्दू अफ़सानो पर तरक़्क़ी पसंद अफ़सानानिगारों की छाप आज भी गहरी है। उर्दू के नये अफ़सानानिगार चाहे बिल्वास्ता (किसी के द्वारा) ही सही मगर इससे मुतास्सिर नज़र आते हैं।
तरक़्क़ी पसंद तहरीक का असर इतना ज़्यादा था कि जिसका अंदाजा लगाने के लिए सज्जाद ज़हीर के मुरत्तिब मजमुए (संकलित रचनाएं) ‘अंगारे’ की दलील ही काफ़ी है। तल्ख़ हक़ीक़तों का बयान करने वाला ये मजमुआ (संग्रह) 1932 के आख़िर में शाया (प्रकाशित) हुआ था और मार्च 1933 में हुकूमत ने इसे ज़ब्त कर लिया।
तरक़्क़ी पसंद तहरीक का एक और यादगार कारनामा ‘गाये जा हिन्दुस्तान’ के नाम से निकाला गया वह मजमुआ है जो 1946 में लाहौर से पब्लिश हुआ। करीब 155 वरक़ वाली यह किताब उन लोकगीतों पर मुश्तमिल है जिसे देवेंद्र सत्यार्थी ने पूरे मुल्क में घूम-घूम कर जमा किया था।
देखते ही देखते थियेटर, रेडियो और सिनेमा में भी तरक़्क़ी पसंद अदब अपनी जगह बनाने में कामयाबी पा रहा था। लखनऊ में इप्टा के क़ायम होने के बाद पहला ड्रामा मुंशी प्रेमचंद का ‘कफ़न’ पेश किया गया था। गंगा प्रसाद मेमोरियल हॉल में इसमें खुद रशीद जहां ने अदाकारी की थी। थियेटर के अलावा वह आल इण्डिया रेडियो से भी इस क़िस्म के ड्रामों को वॉइस ओवर के साथ पेश कर रही थीं। तहरीक के असर की गिरफ़्त से सिनेमा की दुनिया भी न बच सकी।
बीसवीं सदी की दूसरी दहाई तक जहां मज़हबी और तिल्सिमाती फिल्मों का बोल-बाला था, वहीं कुछ ऐसे फिल्मसाज़ सामने आये जिन्होंने इस सनअत (पेशे) को समाजी और इख़लाक़ी क़द्रों से जोड़ा। बंबई टाकीज़, फ़िल्मिस्तान और दीगर फिल्म कंपनियों के लिए फ़ार्मूला फ़िल्मे लिखने वाले मंटो की अपनी तख़लीक़ पर 1940 में ‘अपनी नगरीया’ फिल्म आयी।
1916 में मुंशी प्रेमचंद ने उर्दू नॉविल ‘बाज़ार ए हुस्न’ लिखा। 1919 में इसका हिंदी तर्जुमा ‘सेवासदन’ आया और 1938 में इस पर फिल्म बनी। फ़िल्मी दुनिया से महज़ एक अदीब के काम का जायज़ा लें तो पाते यहीं कि आधी सदी तक कोई ऐसी दहाई नहीं गई जिसमे मुंशी प्रेमचंद की तख़लीक़ पर कोई फिल्म न बनी हो।
रंग भूमि- 1946
पंचायत – 1958
हीरा मोती – 1959
गोदान – 1963
गबन – 1966
शतरंज के खिलाड़ी – 1977
टेलीफिल्म सदगति – 1981
इस्मत चुग़ताई ने भी अपने फ़िल्मसाज़ शौहर शाहिद लतीफ़ के लिए कई फ़िल्में लिखी। इसके अलावा उनकी कहानियों और अफ़सानों पर भी फ़िल्मे बनीं। 1973 में ‘गर्म हवा’ और 1978 में शशि कपूर की फिल्म ‘जुनून’ यादगार फ़िल्में हैं। इस्मत चुग़ताई न सिर्फ़ जुनून की डायलॉग राइटिंग में मदद कर रही थीं बल्कि उन्होंने उसमें यादगार किरदार भी निभाया। चौथी का जोड़ा और कुछ और कहानियों पर 1990 की दहाई में टेलीफ़िल्में बनायी हैं।
तरक़्क़ी पसंद तहरीक की नुमाइंदगी करने वाले बलराज साहनी की ‘दो बीघा ज़मीन’ किसी भी हस्सास (संवेदनशील) शख्स के रोंगटे खड़े कर देने वाली कहानी है।
समाज की तश्कील-ए-नौ (नया आकार देना) एक मंसूबे पर मुन्हसिर है और इसके लिए एक तंज़ीम की ज़रूरत है। इस ज़रूरत का खुलासा 1945 में हैदराबाद में होने वाली तरक़्क़ी पसंद मुसन्निफीन कांफ्रेंस में दिये गये सज्जाद ज़हीर के इस ख़ुत्बे के ज़रिये सामने आता है-
”बाज़ लोग सवाल करते हैं कि जब हर दौर में तरक़्क़ी पसंद अदब की तख़लीक़ होती है और जब हाली, शिब्ली, और इक़बाल भी तरक़्क़ी पसंद हैं तो आख़िर तरक़्क़ी पसंद मुसन्निफ़ीन की अंजुमन बनाने की क्या ज़रूरत है? ये सवाल ऐसा है कि जब दुनिया में इब्तिदा-ए-आफ़रीनिश (सृष्टि की उत्पत्ति) से लेकर आज तक फूल खिलते रहे हैं तो बाग़ लगाने की क्या ज़रूरत है? इस अंजुमन की ज़रूरत इस वजह से पैदा हुई, जिस वजह से दूसरी अंजुमनों की ज़रूरत होती है। यानी अफ़राद इज्तिमाई तौर से अदबी मसायल पर गुफ़्तगू करें और बहस करें। फ़र्द और जमात की ज़रूरत को समझें। समाजी कैफियत का तजज़िया (पड़ताल) करें। और इस तरह मुश्तर्का नस्बुलऐन (आशय) क़ायम करें और उसके मुताबिक़ अमल करें।”
तरक़्क़ी पसंद तहरीक के सामने कुछ इस क़िस्म के भी सवाल आये, जैसे-
* क्या अदब को सियासी तहरीकों में अदबी हिस्सा लेने की ज़रूरत है?
* क़दीम और क्लासिकी अदब की तरफ हमारा रवैया क्या होना चाहिए?
* हमारी ज़बान कैसी हो?
* मज़हब की तरफ हमारा रवैया कैसा हो?
* या फिर रूमान पसंदी और हक़ीक़त पसंदी के हुदूद (सीमाएं) क्या हैं?
क्योंकि तरक़्क़ी पसंद तहरीक ने इफ़ादियत (उपयोगिता) वाले अदब पर ज़ोर दिया था और इज़हार-ए-ख्याल की आज़ादी ने कई तरह की सरहदों को तोड़ा था, इस तहरीक के असरात बहुत वसी (दूर तक) थे। अगर दुनिया भर की मुख़्तलिफ़ अदबी तहरीकों के दरमियान तौसी (विस्तार) और वक़्त के बीच एक ग्राफ बनाया जाये तो यक़ीनन तरक़्क़ी पसंद तहरीक चोटी पर नज़र आयेगी।
जहां एक तरफ तरक़्क़ी पसंद तहरीक अपनी तौसी के साथ बुलंदिया छू रही थी, वहीं इसके कुछ अदबी नुक़सान भी सामने आये। तरक़्क़ी पसंद तहरीक की ऐसी लहर चली कि इसके ज़ेरे असर तमाम हक़ीक़ी लोगों के साथ ग़ैरहक़ी लोग भी इसमें शामिल होने लगे। या ये कहें कि उस वक़्त यह तहरीक एक फ़ैशन की शक्ल ले चुकी थी।
रोशनाई में सज्जाद ज़हीर ख़ुलासा करते हैं कि स्टेटमेन में नामानिगार के नाम से तरक़्क़ी पसंद मुसन्निफ़ीन के ख़िलाफ़ मज़ामीन शाया हुए। बाद में ये भी पता चला कि यह पुलिस के एक ख़ास महकमे की कारगुज़ारी है। तरक़्क़ी पसंदों को बिदेसी एजेंट, हिन्दुस्तानी समाजी रवायत का मुनकिर और मआशरे के ग़द्दार के अलावा औरतों के लिए अफ़सोसनाक और अज़ीयत वाला रवैया रखने वाला बताया गया। इसका जवाब अख़बारात, रिसायल और बहसों के ज़रिये दिया गया।
आज़ादी के साथ तक़सीम हिन्द और इसके ज़ेरे असर होने वाले फ़सादात ने तरक़्क़ी पसंदों के सामने नये मसायल खड़े कर दिये। जिस आज़ादी का ख़्वाब देखा गया था, उसकी तकमील (पूरा) नहीं हुई। 1948 आते-आते कुछ नौजवान इसे आज़ादी न मानते हुए हक़ीक़ी आज़ादी के ज़राय तलाश करने लगे थे। लोगों का रुख़ सोशलिज़्म की सिम्त (दिशा) होने लगा था। और सबसे बड़ी महरूमी सज्जाद ज़हीर जैसे रहनुमा का पकिस्तान चले जाना था। वहां पहुंचकर ख़ुद सज्जाद ज़हीर अदबी से ज़्यादा सियासी मसरूफ़ियतों में फंस चुके थे। नतीजा ये हुआ कि तरक़्क़ी पसंद तहरीक में एक ख़ामोशी का दौर आ गया था, ऐसे में कृश्नचंदर ने इस ज़िम्मेदारी को संभाला। सज्जाद ज़हीर पकिस्तान जेल से आज़ाद होकर हिन्दुस्तान आते हैं। आज़ादी और तक़सीम के बाद की निस्फ़ दहाई (आधा दशक) इन उलझनों के सही नतीजे तलाशने में निकल जाती है।
हालात ये थे कि अब मज़लूम अवाम को रोटी और रोटी पा चुकी अवाम को रूहानियत की ज़रूरत अभी भी बेचैन कर रही थी। तरक़्क़ी पसंद अदीबों के सामने तरक़्क़ी पसंद मौज़ूआत के ताल्लुक से तशफ़्फ़ी (राहत) और तसल्लीबख़्श जवाब नहीं थे। हालांकि तहरीक के एलाननामे, मेनिफेस्टो, ख़िताब और तक़रीर का बग़ौर मुताल्या (अध्ययन) इन पेचीदा सवालों के जवाब मुहैय्या कराता है। मगर इन मसायल के पैदा होने का अहम सबब तरक़्क़ी पसंदों की इंतिहा पसंदी माना गया। नतीजे में न सिर्फ़ तहरीक का बड़ा नुक़सान हुआ बल्कि यही इसके ज़वाल का भी सबब बना।
तहरीक बनने के पचास बरस बाद हालात ये थे कि उर्दू को न सिर्फ हिक़ारत की नज़र से देखा गया बल्कि इसका वजूद ख़तरे में आ गया और तब ‘जनवादी लेखक संघ’ ने इसकी हिफ़ाज़त के साथ फ़रोग़ (उत्थान) का ज़िम्मा उठाया और इस तरह ‘अंजुमन जम्हूरियत पसंद मुसन्निफीन’ के नाम से इसे एक नयी ज़िंदगी मिली।
उर्दू अदब का तरक़्क़ी पसंद तहरीक का दौर 1936 से 1960 के बीच का माना जाता है। इसमें कोई शक नहीं कि तरक़्क़ी पसंद तहरीक ने उर्दू ज़ुबान में नये उन्वान को जगह दी और हर इंसान को उससे जोड़ा। यह वही दौर था जिसकी छाप आज भी उर्दू अदब में नज़र आती है। इस तहरीक ने उर्दू अदब को उन ऊंचाइयों पर पहुंचाया जो इसका सुनहरा दौर कहलाता है। लेकिन यह भी हक़ीक़त है कि जब तक ज़ुल्म और नाइंसाफ़ी मौजूद है तब तक तरक्की पसंद अदब भी लिखा जाता रहेगा, बल्कि पूरे ज़ोर-ओ-शोर लिखा जाता रहेगा। फिर भी अपनी शुरुआत से तमाम नशेब-ओ-फ़राज़ के सफ़र से गुजरने वाले इस तरक़्क़ी पसंद तहरीक के सफ़र को फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की तख़्लीक़ के ज़रिये इस तरह महसूस किया जा सकता है-
परवरिश-ए-लौह-ओ-क़लम करने वाला, सहर और उम्मीद का शायर फैज़ 1941 में शाया (प्रकाशित) ‘नक़्शे फरयादी’ में कहता है-
हम ने माना जंग कड़ी है, सर फूटेंगे खून बहेगा
खून में ग़म भी बह जाएंगे, हम न रहेंगे ग़म भी न रहेगा।
आज़ादी और तक़सीम के बाद 1953 में शाया ‘दस्ते सबा’ में फैज़ दाग़ दाग़ उजाला और शब ग़ज़ीदा सहर की बात करते है। बांग्लादेश बनने के बाद यही फ़ैज़ खुद को कहने से नहीं रोक पाये-
हम कि ठहरे अजनबी इतनी मुदारातों के बाद
और खुद ही उनका सवाल आता है
कब नज़र में आएगी बे-दाग़ सब्ज़े की बहार
ख़ून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद
इसी नज़्म में तरक़्क़ी पसंद तहरीक का ये नुमाइंदा कहता है-
उन से जो कहने गए थे ‘फ़ैज़’ जाँ सदक़े किए
अन-कही ही रह गई वो बात सब बातों के बाद
‘दस्ते सबा’ की तख़्लीक़ी दौर की मायूसी फैज़ को भी यह लिखने को मजबूर कर देती है-
बला से हम ने न देखा तो और देखेंगे
फ़रोग़-ए-गुलशन ओ सौत-ए-हज़ार का मौसम
नया पथ से साभार