दीपक वोहरा की 16 कविताएं

1.तुम कुछ नहीं बोले

 देश बिक गया

सब कुछ लुट गया 

तुम कुछ नहीं बोले

घर का एक हिस्सा

जल कर ख़ाक हुआ

तुम कुछ नहीं बोले

भेड़ियों ने बेटियों को

नोच नोच कर खाया

तुम कुछ नहीं बोले

गरीबों का निवाला छिन गया

किताबों से मनुष्यता गायब हुई

तुम कुछ नहीं बोले

ऐ मेरे दोस्त! तुम ज़िंदा कब थे

तुम मुर्दा ही थे

यह मेरी गलतफहमी थी

मैं मुर्दे को ज़िंदा समझता रहा 

भूल गया था मैं 

मुर्दे कभी नहीं बोला करते

कुछ तो मर गए बुढ़ापे में

कुछ मर गए हार्ट अटैक में

कुछ मर गए कोरोना में

कुछ मर गए सड़क दुर्घटना में

उन सभी को मैं

श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं

लेकिन मेरे दोस्त! 

तुम जीते जी मर गए अन्धभक्ति में

तुम्हें सांप्रदायिकता की बीमारी

बहुत पहले लग गई थी

जातिवाद से भी ग्रस्त होने में

कुछ देर नहीं लगी

तुम्हें मैं कौन सी श्रद्धांजलि 

अर्पित करूं मेरे दोस्त 

मेरे दोस्त! काश तुमने

शाखा के बजाय

गुलमोहर लगाया होता

अपने घर आंगन में

कमल के बदले 

गुलाब खिलाया होता

निश्चित रूप से तुम बच गए होते

नज़रों में गिरने से

अन्धभक्ति की बीमारी से

बच गए होते मुर्दा होने से 


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2

जो आदमी चुप है 

जो आदमी चुप है

जरूरी तो नहीं कि

उसके पास अल्फ़ाज़ न हों

जो बहुत बोलता हो

बीच बीच में उसका दोस्त टोकता हो

जरूरी तो नहीं कि

उसके पास कुछ ख़ास बात हो

जो हर मुद्दे पर

अपनी राय रखता हो

जरूरी तो नहीं कि

वो किसी मुद्दे से

इत्तेफाक रखता हो

जो व्यक्ति सत्ता पक्ष में खड़ा हो

विपक्ष की नाक में दम भरता हो

जरूरी तो नहीं कि

वो देश के प्रति वफादार हो

जो व्यक्ति दिन रात भौंकता हो

कुत्ते से भी ज्यादा कुत्ता दिखता हो

जरूरी तो नहीं कि

वो हृदय से भी कुत्ता हो

हो सकता है वो नेता हो

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  1. 3. अंधभक्ति

अंधभक्ति की कोई हद नहीं होती

जैसे मूर्खता की 

अंधभक्ति और मूर्खता एक दूसरे के पूरक हैं

एक दूसरे के पर्याय भी 

अंधभक्ति और मूर्खता समांतर भी चलती है

जिस तरह से रेल की पटरियां 

धर्म, मजहब, रंग, भेद और भाषाओं के पार 

अंधभक्ति एक सार्वभौमिक गुण है

कोई यह नहीं बता सकता कि

कौन उन्नीस है और कौन बीस

बस इतना फ़र्क है

मूर्ख हँस सकता है

या रो सकता है

अंधभक्त केवल हँसेगा

भले ही देश बरबाद हो जाए

सारा दोष नेहरू पर मढ़ेगा

सत्तर साल का लेखा जोखा करेगा

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  1. 4. एक ख़्वाब

आज कहीं कोई 

ख़बर नहीं छपी थी 

भेड़िए आने की 

बंदरों के उत्पात की

शेर के शिकार की

आज कहीं भी

नहीं हुई थी कोई वारदात

शेर और हाथी की

और किसी एशियाई शेर ने 

खाया था कोई आम 

काटकर न ही चूस कर

हिरनी भी बच गई थी 

नोच नोच कर खा जाने से

बच गए थे खरगोश भी

शिकार होने से 

बाघ बहुत हैरान था

और खुश भी बहुत था

कि शेर और भेड़िए के शासन में

सब कुछ कैसे ठीक रहा 

वो रात ही पढ़कर सोया था

जेल डायरी 

वो मंद मंद मुस्करा रहा था

जैसी ही खुली उसकी आंख

तो हुआ अहसास

कि वो देख रहा था 

कोई मीठा ख़्वाब

वो बेड़ियों से बंधा हुआ था

चारों तरफ़ अंधेरा था

बस एक ऊंचे रोशनदान से

आ रही थी छनकर

धुंधली नीम रोशनी

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5. अब आर है या पार है 

अब आर है या पार है 

इंकलाब ही दरकार है

पत्ते-पत्ते में है खामोशी 

किसी तूफाँ का आसार है

उन्हें यदि है अँधेरै का 

हमें उजाले का इंतज़ार है

बदलेगा अब ये निज़ाम 

मुझको ऐसा ऐतबार है

आदमी को आदमी न समझे 

उनकी सोच बहुत बीमार है 

जहाँ हो प्यार न आज़ादी 

लंका सोने की बेकार है

हो यह देश या वो देश घर अ

पना सब संसार है

जब से मिली मुहब्बत मुझे 

जिंदगी बहोत मजेदार है 

तुमको कैसे मिलूँ कि बीच 

जमाने भर की दीवार है

कौन फिदा न होगा उसपे 

जो मुकम्मिल फस्लेबहार है 

हिंदी है गर माथे की बिंदी 

उर्दू अदब का सिंगार है

ज़िंदगी जी लेगा ‘दीपक’ तू 

चाहे फूल है या खार है।

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6.शह और मात का खेल जारी है

आज मेरी तो कल तेरी बारी है

हैरान और परेशान न हो 

सत्ता पूंजी की यारी पुरानी है

चूल्हे में आग 

फलों में स्वाद 

तवे पर पकती रोटी 

और उसकी सोंधी गंध  

कुछ नहीं बचेगा

न बचेगी भाषा 

न मनुष्य 

और न ही मनुष्यता 

जीना तो होगा तब भी

उस याद के सहारे

जो तुम्हारे साथ गुजारे

जीना तो होगा

इस उम्मीद में 

कहीं दबी होगी 

राख में हल्की आग 

इसी बुझती हुई आग में 

होगी कोई चिंगारी 

राख में ना सही 

कहीं किसी के सीने में 

धधकती होगी आग

वही आग

लेकर आएगी 

एक बार फिर जीवन 

इस मृत बंजर धरती पर 

फिर जलेगी 

हर चूल्हे में आग

लौटेगा फलों में स्वाद 

किसी न किसी चेहरे पर 

मिलेगी वही हँसी

जो बन जायेगी

सबकी मुस्कान

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  1. 7. मेरे पास कुछ नहीं

किताबों के

और कुछ लम्हें हैं

तुम्हारी यादों के

तुम्हारी मुस्कान

ज्यों पेड़ों से आती

छनकर धूप

जिसमें निखर जाता था

तुम्हारा रूप

तुम्हारी खनकदार हँसी ही

मेरी जाइदाद है

इससे ज्यादा

न मेरी कोई औकात है

 पृथ्वी सी तुम

घूमती इर्द गिर्द मेरे

सूरज सा मैं 

ताकता तुम्हें

बीच में आ गए

चांद से कितने लोग

लग गया ग्रहण अनवरत

तुम तुम न रही

मैं मैं न रहा

और इस तरह

हो गए जुदा

जैसे पहले कभी

मिले ही नहीं

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8.हाथ

वो हाथ 

जो पापा की चेहरे पर फेरते हुए

दाढ़ी की चुभन को महसूस करते थे

वो हाथ

जो पापा या मम्मी की उंगलियां थामे

आगे आगे पैर चलाते आगे बढ़ते थे

वो हाथ

छोटे, कोमल और गर्म

और बहुत ख़ूबसूरत थे

जिस हाथ में होनी चाहिए थी

कोई कलम और किताब

जो हाथ श्रम के योग्य होने थे 

जिन्हें अभी दुश्मनों से लोहा लेना था

वो बारूद के ढहर में हो गए हैं 

ज़ख्मी भले ही हों 

मगर अभी भी मुट्ठी तनी है 

यही वजह है

ऐसे हाथ को देखकर

मेरी मुट्ठी भी तन गई

आंखें क्रोध से लाल हैं

मेरा खून अभी जमा नहीं है

बह रहा है अनंत मेरी शिराओं में

फड़फड़ा रही हैं भुजाएं मेरी भी 

मैं मिला

और एक और एक

ग्यारह हो गए

जीवन में जैसे

हजारों गुलाब खिल गए

गुलाब के साथ कांटे भी

हमारे साथी हो गए

हालात ऐसे हुए 

कि इसके बाद

एक दूसरे से हम

जुदा हो गए

तुम खो गई कहीं

मैं भी खो गया कहीं

बचा नहीं हमारे बीच

कुछ भी नहीं

एक और एक ग्यारह थे

अब एक घटा एक शून्य हो गए

तुम्हारे लौटने की

न कुछ आस थी

बस तुम्हारी याद थी

न तुम लौटी

न मैंने मनाया

हजारों ख्वाहिशें

दिल ही दिल में दफ़न हुई

मिलकर बिछड़ना

बिछड़ कर मिलना

ज्यों पृथ्वी और सूरज का मिलना

दूधिया रोशनी में तुम्हारा खिलना 

मुझे चांद का अखरना

त्रिकोणीय प्रेम कहानी

हमारी है

तुम नहाओं दूधिया रोशनी में

मैं दिन रात जलूंगा

मगर तुम्हारी याद में

इस तरफ नहीं

तो दूसरी ओर 

तुम्हारी याद में

बार बार खिलकर

तुमसे मिलूंगा


 बिल्ली का रास्ता काटना

बिल्ली जा रही है कहीं

जिस तरह जा रहे हैं आप

मत कहो:

बिल्ली ने रास्ता काट दिया

हो सकता कि आपने ही

उसका रास्ता काट दिया

उसके रास्ते में आकर

बिल्ली का अपशकुन

किया या नहीं

लेकिन उसके शिकार में

अवश्य ही विघ्न डाल दिया

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10. हिटलर

हिटलर से पहले भी थे

बहुत सारे हिटलर

हिटलर के मरने के बाद भी

होंगे बहुत सारे हिटलर

हिटलर की सोच में थी घृणा

घृणा में ही होता है हिटलर

लोगों की घृणा से पैदा होता है हिटलर 

जैसी होती है प्रजा

वैसी ही होता है राजा

जब जब जनता की मर जाती है अंतरात्मा

हिटलर ही पैदा होते हैं

अगर जाग जाए जनता

हिटलर मर जाते हैं ख़ुद बा ख़ुद

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11.विकास

विकास कहाँ है? 

सड़क पर!

सड़क कहाँ है?

कागज़ों में!

कागज़ कहाँ है?

फाइल में!

फाइल कहाँ है? 

साहेब के हाथों में!

फाइल में कुछ नहीं

फिर खाली फाइल

क्यों पकड़ी है?

दिखाने के लिए!

नहीं! नहीं! 

फ़ोटो खिंचवाने के लिए!

फिर विकास कहाँ चला गया?

कहीं नहीं!

फिर दिखाई क्यों नहीं देता?

वास्तव में वो जुमला था 

जुमले को ही मेकअप करके

विकास बनाया गया था

जैसे ही मेकअप उतर गया

वो जुमला बन गया 

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12. भेड़िया

सुबह के अखबार में 

एक बड़ी खबर थी 

कि दिन-दहाड़े शहर में 

आया था भेड़िया

सबने उसे देखा 

सुनी हर किसी ने उजाले में 

उसके आतंक की आवाज़ 

बह रही थी हर सड़क पे 

खून की नदियां 

पर सब भक्तों का कथन है 

कि खबर ग़लत है

कि दिन-दहाड़े शहर में

आया था भेड़िया 

उनका तो बस … 

यह मानना है 

कि भेड़िया तो 

क्रिया की प्रतिक्रिया है

सचाई यह है 

कि हम शक नहीं कर सकते 

भेड़िये के आने पर

मौसम जैसा बनाया जाता है 

और हवा जैसी हो जाती है 

उसमें कभी और कहीं भी 

आ सकता है भेड़िया 

पर सवाल यह है 

कि आखिर यहीं इसी शहर में 

क्यों आता है भेड़िया?

सवाल यह भी है 

कि चुनाव से पहले 

घुटने में अधिक दर्द होते हुए भी 

किस प्रकार फुर्ती से दौड़ता है भेड़िया?

क्या वह छककर आता है रामनाम?

विक्षिप्त है या बीमार?

या काग़ज़ी शेर 

भेड़ियों के साथ है? 

या भीम का हाथी 

बूढ़ा औ’ बेबस है 

शासक के हाथों में?

या मार्क्स का मुखौटा

गुलाब पे फिदा हो गया?

या हथिनी मिल जाती है 

भेड़ियों से हर बार 

रानी बनने की चाह में?

या कलम के जादूगर 

शेर पर सवा शेर कहने वाले 

यहाँ के मॉडल विकास पे 

कहीं फिदा तो नहीं? 

बाघों की धड़ पकड़ है

कुछ बोलने पे 

चाँद की चाँदनी में 

अपने-अपने कुएं में

आत्ममुग्ध मेढक बने बैठे हैं

सब चुप हैं 

पर एक बुनकर सुन रहा है

कि सब बोल रहे हैं 

बहरों से पूछ रहे हैं अंधे 

गर्भ से पूछ रही है नाल 

अंधों से पूछ रहे हैं गूंगे 

हड्डी से पूछ रही है खाल 

कि आखिर कब तक

आता रहेगा भेड़िया?

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13 कोई बुरी बात नहीं

फासिज्म के दौर मेंएक ही नारा

गूंज रहा हो

घर घर मोदी

सत्ता पक्ष में

खड़ा होना

कोई बुरी बात नहीं

जहां दलबदलुओं का राज हो

लिजलिजे नेताओं का 

बोलबाला हो

वोट डाला जाता हो

नेता की जाति देखकर 

प्रगतिशील का लेबल लगाकर

घोर जातिवादी होना

कोई बुरी बात नहीं

मनुष्य होते हुए

जानवरों से भी बदतर

व्यवहार करना

कोई बुरी बात नहीं

तथाकथित साहित्यकार होते हुए भी

दूसरी विवाहित स्त्री साहित्यकर से

प्रेम-निवेदन करना 

कोई बुरी बात नहीं

कोई बुरी बात नहीं

फासिस्ट होना

जातिवादी होना

रूढ़िवादी होना

व्यभिचारी होना 

क्योंकि हम आदमी

थोड़ी हैं

साहित्य की संकरी गली में 

हम रीढ़विहीन हैं

लिजलिजे रेंगते कीड़े हैं

धूमिल की भाषा में

“मगर जिसकी पूंछ उठाई 

उसको मादा पाया है”

हमने तो सदा से

सत्ता का गीत गाया

लानतें कितने भी भेजो

हमारा चरित्र बदल नहीं पाया है

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14.याद आ गई तुम

तुमने कहा 

भूल जाओ मुझे 

और भूलने लगा मैं 

भूलने की इस प्रक्रिया में 

याद आ गई 

एक बार फिर तुम

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15.खिल जाते हैं 

कितनी भी आए बरसात

ठूंठ रहता है ठूंठ 

जबकि खिल जाते हैं मुरझाए पौधे

और फ़ूल भी

बगावत

कितना खतरनाक मौसम है

कविता लिखना भी एक बगावत है

इस खतरनाक समय में

जब हवा भी आपके खिलाफ़ हो

सांस लेना भी दुभर हो

जब हवा के साथ सब बह रहे हो 

हवा के खिलाफ़ चलना भी देशद्रोह है

बहुत ही कठिन है प्यार करना

उससे भी अधिक मुश्किल है

पुनः प्यार करना करना

ऐसे कठिन समय में

प्यार की बात करना भी एक बगावत है

पत्थर पूजे जाते हैं

जी हां मेरे देश में

अब भगवान की बजाय पत्थरदिल पूजे जाते हैं

इस कठिन समय में

सहृदय इंसान पर नफरती पत्थर फेंके जाते हैं

ऐसे भक्ति काल में भगत सिंह की बात करना भी एक बगावत है

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16.मौसम

बहुत कठिन है लिखना

जब आप अपने दुःख में जकड़े हो 

बहुत मुश्किल है पुनः प्यार करना 

जब पहला प्यार भी असफल हो

दिल पर गहरी उदासी है

होंठों पर मुस्कान, आंखों में नमी है

भरोसे से भी भरोसा उठ जाता है

जब कोई जिंदगी बर्बाद कर दे

………………..

जिधर बह रही है हवा

उधर तुम भी बह गए तो क्या

जिधर बहता है नदी का पानी

उधर तुम भी बह जाओ तो क्या

एक तरफ खड़ा मूक सत्य

तुम वाचाल झूठ के साथ हो तो क्या

कवि परिचय  : दीपक वोहरा पेशे से अंग्रेजी के पीजीटी अध्यापक हैं। कविताएं लिखना इनका पैशन है। अंग्रेजी और हिंदी दोनों भाषाओं में समान रूप से पारंगत हैं और काफी कुछ लिखा है। अंग्रेजी से हिंदी में कविताओं का काफी अनुवाद किया है। कई पुस्तकों को संपादित किया है। दीपक जी जनवादी लेखक संघ, प्रगतिशील  लेखक संघ, हरियाणा लेखक संघ और डॉ ओम प्रकाश ग्रेवाल अध्ययन संस्थान से जुड़े हुए हैं। हरियाणा के करनाल के निवासी हैं।