इधर झोपड़ी
उधर महल है
देखो!धन्ना सेठ का
कैसा खेल है
एक तरफ असंख्य दीये
रोशनी की चकाचौंध
दूसरी तरफ न दिये
बाती न तेल है
झोपड़ी रोटी को भी तरसे
महलों में भोगो की
रेलमपेल है
दिलों में बैठा सदियों से
गहरा अंधेरा
सूरज डूबा रहा ताउम्र
न जाने कब होगा सवेरा
उठो साथियो!
उठो आज़ादी के दीवानो
बहुत सो लिए
अपने मसीहा के इंतज़ार में
मसीहा भी बिक गए
अमृतकाल में
ज़ालिम हाकिम
लूट रहा तुम्हारी मेहनत
अठारह घंटो लगा रहता है
इस काम में
लोकतंत्र सूरज पर पहरा है
फिरकापरस्त बादलों का
बच्चों के चाचा तरक्कीपसंद सब
भेज दिए जाते हैं जेल
उठो जागो साथियो!
सोये मत रहो
सवेरा यूहीं नहीं आयेगा
करो कुछ तुम संघर्ष
करे कुछ हम मेहनत
सवेरा और कौन लायेगा
दीपक वोहरा
जनवादी लेखक संघ हरियाणा