क्या आम सहमति से बन पाएगा लोक सभा अध्यक्ष

आलोक वर्मा

क्या इस बार लोकसभा अध्यक्ष (स्पीकर) और उपाध्यक्ष का चुनाव आम सहमति से हो पाएगा, इसे लेकर संशय है। पहले पीठासीन अधिकारी का चयन आम सहमति से होता रहा है। लेकिन पिछली बार नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली सरकार ने विपक्ष को उपाध्यक्ष पद नहीं दिया था। और पांच साल तक लोकसभा बगैर उपाध्यक्ष के रही। इसलिए सशक्त विपक्ष भी अगले हफ्ते होने वाले लोकसभा अध्यक्ष के लिए अपना उम्मीदवार उतार सकता है।

अगर ऐसा होता है तो स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार होगा जब इस पद के लिए चुनाव होगा, क्योंकि पीठासीन अधिकारी का चयन हमेशा आम सहमति से होता रहा है।

पूर्ण बहुमत के रथ पर सवार होकर दिल्ली पहुंचे नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा ने विपक्ष को कोई सम्मान नहीं दिया। पिछली लोकसभा में कांग्रेस के 10 फीसदी से कम लोकसभा चुने गए तो नेता प्रतिपक्ष का पद उसे नहीं दिया गया। यही नहीं लोकसभा अध्यक्ष का चुनाव तो आम सहमति से हुआ और ओम बिरला को लोकसभा अध्यक्ष चुना गया।

लेकिन जिस तरह विपक्षी सदस्यों की बातें नहीं सुनी गईं और संसद सत्र के दौरान सामूहिक रूप से उनका निलंबन और निष्कासन किया गया उससे विपक्ष डरा हुआ है कि इस बार भी पीठासीन अधिकारी वही रवैया अपना सकते हैं।

पिछली संसद में लोकसभा अध्यक्ष द्वारा बार-बार विपक्षी सांसदों निलंबन, सामूहिक रूप से विपक्ष के 146 सांसदों का निलंबन, टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा की संसद से बर्खास्तगी, बीएसपी सांसद दानिश अली को भाजपा सांसद द्वारा धर्म के नाम पर गाली देने, विपक्षा सांसदों के लोकसभा में बोलते समय माइक बंद कर देने और कैमरे पर उनको दिखाने जैसे अनेक मामले रहे जिसके लिए ओम बिरला पर निष्पक्ष नहीं होने के आरोप लगे।

इसीलिए इस बार विपक्ष सरकार में सहयोगी टीडीपी के सांसद को अध्यक्ष पद पर बैठाने की वकालत कर रहा है और चंद्रबाबू नायडू को इसके लिए उकसा रहा है। विपक्ष का कहना है कि अगर लोकसभा अध्यक्ष भाजपा का रहा तो मोदी सरकार टीडीपी में तोड़फोड़ कर मिला लेगी।

इसके लिए शिव सेना (उद्धव) के राज्य सभा सदस्य ने साफ साफ कहा कि जरूरत पड़ी तो इंडिया गठबंधन अपना प्रत्याशी उतारेगा। पिछली संसद में सत्तापक्ष का रवैया इतना स्वैच्छाचारी रहा कि उसने विपक्ष के नेता को लोकसभा में उपाध्यक्ष का पद भी नहीं दिया और वह पद पांच साल तक खाली रहा। पिछले 10 वर्षों के नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा के इसी रवैये के कारण विपक्ष आश्वस्त नहीं है और वह चाहता है कि लोकसभा अध्यक्ष का पद भाजपा सांसद को न मिले।

18वीं लोकसभा का पहला सत्र 24 जून को शुरू होगा,उस दौरान निचले सदन के नए सदस्य शपथ लेंगे और अध्यक्ष का चुनाव होगा।

लोकसभा चुनाव में ‘इंडिया’ ने 234 सीटें जीतीं, जबकि भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले राजग ने 293 सीटें जीतकर लगातार तीसरी बार सत्ता बरकरार रखी। 16 सीटों के साथ तेलुगु देशम पार्टी (तेदेपा) और 12 सीटों के साथ जनता दल (यू) भाजपा की सबसे बड़ी सहयोगी हैं। भाजपा ने 240 सीटें जीती हैं।

शिवसेना नेता संजय राउत ने रविवार को मुंबई में कहा, “हमारा अनुभव है कि भाजपा उसे समर्थन देने वालों को धोखा देती है।”

अब तक स्थिति यह है कि जद(यू) ने लोकसभा अध्यक्ष के लिए भाजपा उम्मीदवार को समर्थन देने की घोषणा की है, जबकि तेदेपा ने इस प्रतिष्ठित पद के लिए सर्वसम्मत उम्मीदवार का समर्थन किया है।

अध्यक्ष पद को लेकर अब तक का इतिहास इस प्रकार है। केन्द्रीय विधान सभा के अध्यक्ष के पद के लिए 1925 से 1946 के बीच छह बार चुनाव हुए।

विट्ठलभाई पटेल अपना पहला कार्यकाल पूरा होने के बाद 20 जनवरी 1927 को सर्वसम्मति से पुनः इस पद पर निर्वाचित हुए। महात्मा गांधी द्वारा सविनय अवज्ञा के आह्वान के बाद पटेल ने 28 अप्रैल, 1930 को पद छोड़ दिया। सर मुहम्मद याकूब (78 वोट) ने नौ जुलाई, 1930 को नंद लाल (22 वोट) के खिलाफ अध्यक्ष का चुनाव जीता।

याकूब तीसरी विधानसभा के आखिरी सत्र के लिए इस पद पर रहे। चौथी विधानसभा में सर इब्राहिम रहीमतुल्ला (76 वोट) ने हरि सिंह गौर के खिलाफ अध्यक्ष का चुनाव जीता, जिन्हें 36 वोट मिले। स्वास्थ्य कारणों से 7 मार्च 1933 को रहीमतुल्ला ने इस्तीफा दे दिया और 14 मार्च 1933 को सर्वसम्मति से षणमुखम चेट्टी उनके स्थान पर नियुक्त हुए।

सर अब्दुर रहीम को 24 जनवरी 1935 को पांचवीं विधानसभा का अध्यक्ष चुना गया। रहीम को 70 वोट मिले थे, जबकि टी.ए.के. शेरवानी को 62 सदस्यों का समर्थन प्राप्त था।

रहीम ने 10 साल से अधिक समय तक उच्च पद संभाला क्योंकि पांचवीं विधानसभा का कार्यकाल समय-समय पर प्रस्तावित संवैधानिक परिवर्तनों और बाद में द्वितीय विश्व युद्ध के कारण बढ़ाया गया था। केंद्रीय विधानसभा के अध्यक्ष पद के लिए अंतिम मुकाबला 24 जनवरी, 1946 को हुआ था, जब कांग्रेस नेता जी.वी. मावलंकर ने कावसजी जहांगीर के खिलाफ तीन मतों के अंतर से चुनाव जीता था। मावलंकर को 66 मत मिले थे, जबकि जहांगीर को 63 मत मिले थे।

इसके बाद मावलंकर को संविधान सभा और अंतरिम संसद का अध्यक्ष नियुक्त किया गया, जो 26 जनवरी, 1950 को संविधान लागू होने के बाद अस्तित्व में आई। मावलंकर 17 अप्रैल, 1952 तक अंतरिम संसद के अध्यक्ष बने रहे, जब पहले आम चुनावों के बाद लोकसभा और राज्यसभा का गठन किया गया।

स्वतंत्रता के बाद से, लोकसभा अध्यक्षों का चयन सर्वसम्मति से किया जाता रहा है, तथा केवल एम ए अयंगर, जी एस ढिल्लों, बलराम जाखड़ और जी एम सी बालयोगी ही बाद की लोकसभाओं में प्रतिष्ठित पदों पर पुनः निर्वाचित हुए हैं।

लोकसभा के पहले उपाध्यक्ष अयंगर वर्ष 1956 में मावलंकर की मृत्यु के बाद अध्यक्ष चुने गये थे। उन्होंने 1957 के आम चुनावों में जीत हासिल की और उन्हें दूसरी लोकसभा का अध्यक्ष चुना गया था।

ढिल्लों को 1969 में वर्तमान अध्यक्ष एन संजीव रेड्डी के इस्तीफे के बाद चौथी लोकसभा का अध्यक्ष चुना गया था। ढिल्लों को 1971 में पांचवीं लोकसभा का अध्यक्ष भी चुना गया और वे 1 दिसंबर 1975 तक इस पद पर बने रहे। उन्होंने आपातकाल के दौरान यह पद छोड़ दिया था।

जाखड़ सातवीं और आठवीं लोकसभा के अध्यक्ष रहे और उन्हें दो पूर्ण कार्यकाल पूरा करने वाले एकमात्र पीठासीन अधिकारी होने का गौरव प्राप्त है। बालयोगी को 12वीं लोकसभा का अध्यक्ष चुना गया, जिसका कार्यकाल 19 महीने का था। उन्हें 22 अक्टूबर 1999 को 13वीं लोकसभा का अध्यक्ष भी चुना गया। बालयोगी की 3 मार्च 2002 को एक हेलिकॉप्टर दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी।