राजकुमार कुम्भज की तीन कविताएँ
1.
वे होंगे कुछेक ही फिर-फिर
वे होंगे कुछेक ही फिर-फिर
जो समर्थक या भक्त कहलाएंगे
और जो नहीं होंगे भक्त या समर्थक
दुश्मन क़रार दे दिए जाएंगे
वे, सुबह-सुबह काम पर जाएंगे
और जब शाम होने पर लौटेंगे घर
घर की जगह देखेंगे जो कुछ भी
उस सब से भीतर तक डर जाएंगे
डराएंगे वे कुछेक ही फिर-फिर
इधर से घुसेंगे, उधर निकल जाएंगे
उधर से घुसेंगे, इधर निकल आएंगे
और फिर उजालों में उजालों की तरह
देखते ही देखते ग़ायब हो जाएंगे
डंडे लहराएंगे, झंडे फहराएंगे,
चमकाएंगे तलवारें तमतमाते चेहरे लिए
कोई भी उनसे पूछ नहीं पाएगा सवाल
मलाल होगा सभी को होगा मलाल
दूध में दरार, पानी में प्रहार देखेंगे सब
लेकिन नहीं मुनासिब कुछ भी कर पाएंगे
जाएंगे, जाएंगे, सुलगती भट्टियों की तरफ़ जाएंगे
आह भर-भरकर आँसू बहाएंगे
समर्थक या भक्त होंगे जो भी
इन्हीं-इन्हीं लोगों की हँसी उड़ाएंगे फिर-फिर
और नाचते-गाते हुए ढोलक बजाएंगे
हराएंगे वे ही जो दुश्मन कहलाएंगे
वे होंगे कुछेक ही फिर-फिर.
2.
सिर्फ़ सुनो, बोलो नहीं
सिर्फ़ सुनो, बोलो नहीं
और सच तो बिल्कुल भी नहीं
क्या आप जानते नहीं हैं
कि आप निगरानी में हैं?
मुनादी है कि बादल बरसेंगे
और प्यासे फिर-फिर तरसेंगे
मुनादी है कि रोटियाँ पेड़ पर लगेंगी
और भूखे फिर-फिर सपना देखेंगे
मुनादी है कि विकलांग दौड़ेंगे
और एवरेस्ट फ़तह कर लेंगे
आरामकुर्सी पर आराम करेंगे मगरमच्छ,
सभाओं में प्रवचन देंगे और आँसू बहाएंगे
नहाएंगे ख़ून से साधू-संत, भद्र-अभद्र,
संगीतज्ञ होड़ मचाएंगे राग-दरबारी के लिए
कै करेंगे विचारक, हक़लाएंगे
लोहार सभी हो जाएंगे हलवाई
छोड़कर हुनर अपना जलेबियाँ बनाएंगे
फिर भी होंगी कहीं वे स्त्रियाँ भी होंगी
जो सुई में धागा डालती रहेंगी
सिर्फ़ सुनो, बोलो नहीं.
3.
परदे सब हट गए
ये जो एक कोमल-सा क़िस्सा है
उसमें सचमुच थोड़ा-थोड़ा मेरा भी हिस्सा है
जिस तरह चुप हैं सब, चुप हूँ मैं भी
जिस तरह देख रहे हैं सब, देख रहा हूँ मैं भी
जिस तरह डर रहे हैं सब, डर रहा हूँ मैं भी
देख-देख हत्यारों के हाथों में धर्मग्रंथ
नाच जो हो रहा है, हो रहा है सड़कों पर ही
परदे सब हट गए या हटा दिए गए हैं
पत्ता-पत्ता काँप रहा है, हाँप रहा है
और यक़ीनन मैं भी.
