राजकुमार कुम्भज की तीन कविताएं.
1.
अपनी-अपनी आदत अनुसार.
अपनी -अपनी आदत अनुसार
बच्चों ने खींच दी हैं कुछ लकीरें रॅंग-बिरॅंगी
उन तमाम -तमाम कच्ची – पक्की
सड़कों पर,दीवारों पर
जिन्हें बनाया है कुछेक ठस
और ठोस मसख़रे कारीगरों ने
अपने भुगतानकर्ता आक़ाओं के
सनसनाते सनकी आदेशों पर
रोटी -बोटी के छूत जैसे चक्रव्यूह में
बच्चों द्वारा लकीरें खींचने से ज़रा पहले-पहले तक
वहां खड़े – खड़े मूतते थे
कुछेक ढोरनुमा अभद्रजन
और अपने-अपने गुप्तांगों को
अपनी-अपनी अशुभ आदत अनुसार
करते हुए हस्तप्रक्षालन.
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2.
पहले मैं फिर दु:ख
पहले आऊॅंगा मैं फिर आऍंगे दु:ख
हरी घास पर रेंगते कीड़े भी हो सकते हैं
अर्थवान और आसपास
उनकी सेवाऍं नहीं जानता रेडक्रास
तो करूं क्या मैं
रोज़ – रोज़ मरता हूं,
तो क्या फिर-फिर मरूॅं रोज़ -रोज़
लाशें बिछी पड़ी हैं सड़कों पर
और-और जुलूस -सभा भी
बंद हैं दरवाज़े, अर्थादेश पहुॅंचते नहीं हैं
ग़रीबों के गंतव्य तक
परिवार -नियोजन के पोस्टरों से
भरा पड़ा है शहर.
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3.
है ज़िम्मेदारी दोस्तों की भी
साबित करो, साबित करो
कि दुश्मनों का बढ़ते जाना दरअसल
होता नहीं है दोस्तों का घटते जाना
अगर सच बोलने की आदत
मुझे करती जा रही है हर कहीं अकेला
और बेहद अकेला
तो क्यों और कैसे नहीं है ज़िम्मेदारी
मेरे साथ -साथ, मेरे अपने ही
दोस्तों की भी
है ज़िम्मेदारी दोस्तों की भी
सुलगाऍं सिगरेट.
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