राजकुमार कुम्भज की ग्रीष्म पर ग्यारह कविताएं
1.
ग्रीष्म का पता.
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ग्रीष्म का पता उस मज़दूर से पूछो
जिसकी पीठ से सटा है उसका पेट और पेट से ठेला
किन्तु पीने को सिर्फ़ दो बूँद पानी,नहीं है जेब में धेला
तपती-तपाती नॅंगी सड़कों पर नॅंगे पैर
चलता-चलता,चला जाता है एकदम अकेला
क़दम-दर-क़दम पीड़ा पाली है
फिर भी चाल जिसकी मतवाली है
बहते पसीने में बच्चों के सपने हैं सच्चे
कच्चे घर में खेल रहे हों जैसे कंचे
चूहे,बिल्ली,छिपकली के नौनिहाल बच्चे
चूल्हा उदास है तो क्यों?
मुफ़लिसी पास है तो क्यों?
घीसी-घीसी-सी आस है तो क्यों?
आज ग्रीष्म की तपन है,ताप है,तो क्या हुआ
कल सावन भी होगा
कुछ तो मनभावन भी होगा
ग्रीष्म का पता नहीं होगा कहीं
अभी अख़बार से करो हवा
उड़ाओ मज़े.
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2.
ग्रीष्म में मन करता है.
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ग्रीष्म में
मन करता है
कि अपनी ही कमीज़ फाड़ दूँ
और ज़मीन में तमाम-तमाम तमीज़ गाड़ दूँ
इधर,इन दिनों,इतना ताप होता है सड़कों पर
कि धधकने लगती हैं,तड़कने लगती हैं हड्डियाँ
किन्तु क्यों नहीं सुलगती हैं हिम्मतें
विरुद्ध-सीनों में…?
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3.
नमकीन लग रहा है ग्रीष्म.
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इश्तहारों में बरस रहा है पानी
नॅंग-धड़ॅंग होकर सड़कों पर नाच रही हैं लड़कियाँ
अपनी-अपनी छतरियाॅं और छातियाॅं तान कर
डंडी लगे बर्फ़ के गोले बेच रहा है
उन्नीस बरस का प्यारे मियाँ ठेले वाला
आज यहाँ कुछ ज़्यादा ही नमकीन लग रहा है ग्रीष्म
चलो यहाँ से चलते हैं
और चलते हैं अकेले-अकेले ही चलते हैं
किसी छायादार झुरमुट की तरफ़
शायद वहीँ मिलेगा थोड़ा अपना-सा अपना
थोड़ा-सा सपना.
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4.
ग्रीष्म का आग्रह.
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सरकार मुफ़्त में बाँट रही है राशन
सच सिर्फ़ यही है कि ऊँचा जयकारा लगाओ
सब्र रखोगे,ईमान बेचोगे,तो पाओगे ईनाम भी
मिलेगा,घटी-दरों पर मिलेगा सोना
शर्त है सिर्फ़ बग़लग़ीर होना
और जो पाना है स्वर्ग में थोड़ी भी जगह
तो बड़ी सरकार महान् के जूते चमकाओ
ग्रीष्म का आग्रह है
कि कम खाओ,नमक या ग़म
और तान खूँटी सो जाओ.
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5.
ग्रीष्म कुछ ऐसे भी.
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लंका में आग थी या नहीं,
पता नहीं
लेकिन अशोक वाटिका में पर्याप्त ठंडक थी
आबोहवा अनुकूल थी और रातरानी महक रही थी
ग्रीष्म कुछ ऐसे भी करता है शासन
या कि शासक का होता है ग्रीष्म ऐसा ही
किन्तु इधर और उधर में होता है फ़र्क़
कहीं आँसू होते हैं,तो कहीं होता है पसीना
दुःख से भिन्न नहीं होता है सुख
भिन्न होता सिर्फ़ आदमी.
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6
ग्रीष्म के तेवर
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पागल हाथी रौंद रहे हैं खड़ी फ़सल
चिंदा-चिंदा कर रहे हैं हरेक फ़ैसला सिरे से
और मैं किसी एक छोटे से रुमाल की तलाश में
अभी-अभी ही निकला हूँ अपने घर से
मुझे बचाना है खड़ी फ़सल
मुझे बचाना है छोटे से रुमाल की तलाश
और मुझे बचाना है अपना घर,अपना फ़ैसला
जिसमें रहते हैं शब्द और बच्चे
क्या ये कुछ कम आश्चर्य नहीं है यहां
कि शब्द और बच्चे शाँत हैं अभी
किन्तु,बेहद गुस्से में हैं ग्रीष्म के तेवर
शब्द और बच्चे याॅंत्रिक नहीं हैं
और तांत्रिक नहीं हैं,घने घिर आए बादल भी
किन्तु लोकतांत्रिक नहीं हैं ग्रीष्म के तेवर
खेल रहे हैं खुशी-खुशी खेल रहे हैं
शब्द और बच्चे जीवन के अहाते में
जबकि ग्रीष्म के बेशर्म बंदे नॅंगे नहाते हैं
चुप रहने से बेहतर है
कि कुछ करना होगा,पत्थर एक फेंकना होगा
कविता से बाहर निकलना होगा.
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7
ग्रीष्म में विचारों की कमी है
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घड़ी की सुईयाँ चल रही हैं
लेकिन मौसम की सुईयाँ चुभ रही हैं
घड़ियाँ बताती रहती हैं पता वक़्त का
और मौसम बताते रहते हैं पता जब-तब
अच्छे बुरे वक़्त का,अच्छे-बुरे वक़्त में
अच्छा-बुरा वक़्त है
कि आता-जाता रहता है
कुछ इसी तरह भी आता-जाता रहता है अच्छा-बुरा मौसम
बुरे वक़्त की करते हुए परवाह
बुरे वक़्त में साथ छोड़ देते हैं अच्छे लोग
और तानाशाह से हाथ जोड़ लेते हैं अच्छे लोग
अच्छे लोग,अच्छे होते हैं और बुरे नहीं होते हैं
थोड़ा-थोड़ा दूर ही रहते हैं बुरे लोगों से
बुरे लोग,बुरे होते हैं
और अच्छे नहीं होते हैं
थोड़ा-थोड़ा दूर ही रहते हैं अच्छे लोगों से
दिन-रात देखते रहते हैं वक़्त की पाबंदी
और वे जो तानाशाह होते हैं, वक़्त के पाबंद होते हैं
लोग उनसे डरते हैं,न जीते हैं,न मरते हैं
जो कहा जाता है सिर्फ़ वही-वही कहते-करते हैं
और उनके बताए वक़्त पर ही चलते हैं
अगर कभी कहीं रुकते भी हैं तो कुछ ऐसे
कि जैसे ठहर गई हों चलती घड़ी की सुइयाँ
सुइयाँ घड़ी की हों या हों नागरिकों की
अगर छोड़ दें चलना और कभी छोड़ दें चुभना
तो वाक़ई यहाँ,ग्रीष्म में ग्रीष्म के विचारों की कमी है
और बारुदी सीनों में सीलन भरी नमी है.
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8
थोड़ा उपद्रवी है ग्रीष्म
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थोड़ा उद्दंड है,थोड़ा उपद्रवी है ग्रीष्म
बैठे ठाले लोगों को बैठे ठाले तरबतर कर देता है
लेता है ताने,सुनता है गालियाँ, देता है पसीना
चिपचिपाती चिपचिपाहट से सराबोर कर देता है
शहॅंशाह उतार देते हैं जूते और ताज़ उसके सामने
खौफ़-बेखौफ़ हैं उसकी इज़्ज़त आफ़जाई में
गुमशुदा मुसाफ़िर तक ढूँढने लगते हैं तिनके की छाँव
मुख़बिर तक हो जाते हैं ख़बरदार
गाँव-गाँव,शहर-शहर फैल जाती है ख़बर
कल तक थी जो अफ़वाह.
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9
सोफ़े पर सुस्ता रहा है ग्रीष्म
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सोफ़े पर सुस्ता रहा है ग्रीष्म
सीमा पर तनाव है,देश में चुनाव है,काँव- काँव है
रॅंग-बिरॅंगे डंडे-झंडे हैं,बग़ल में मौलवी हैं,पंडे हैं
खिड़की-दरवाज़े खोलकर बाहर झॉंकना चाहते हैं लोग
प्यास बड़ी है,उदास खड़ी है, कठिन घड़ी है
चिड़ियाएँ सोचती हैं कि कुछ जतन करना चाहिए
अगर न कर सकें कुछ,तो जाल सहित उड़ जाना चाहिए
लोकतंत्र है,तो लोकतंत्र में डरना क्यों चाहिए?
डर-डर कर मरना क्यों चाहिए?
क्यों नहीं थोड़ा दम भरना चाहिए?
चुप बैठने से होना नहीं है ज़रा कुछ भी
शासक की मुट्ठी है,क़ैद है
क़ैद में हैं अन्न-कण,जिन्हें खोना नहीं है
अस्तबल से छोड़े जा चुके हैं घोड़े,रौंदने का इरादा है
सोफ़े पर सुस्ता रहा है ग्रीष्म.
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10
अभी तो ग्रीष्म है
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अभी तो ग्रीष्म है
बरस भर का मध्यकाल जैसा कुछ
और मौसम का काल-महाकाल
उधर,दिसम्बर में पूछेंगे बबुआ
कहाँ दुबके पड़े हो
माई के लाल?
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11
ग्रीष्म का विस्तार
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ग्रीष्म का विस्तार है,सारांश नहीं
सारांश में जाती हैं बुद्धिजीवियों की सेनाएँ
जबकि ग्रीष्म और सम्राट हैं
कि कभी भी होते ही नहीं हैं बूढ़े
भग्न-रनिवास भरे पड़े हैं उनके इर्द-गिर्द
कामोत्तेजक पदार्थों और भावार्थों से
कितना-कितना अकेला है ये संसार
कोई जगह नहीं है मोक्ष.
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