हरियाणा में महिलाओं का सामाजिक न्याय जत्था

      हरियाणा में महिलाओं का सामाजिक न्याय जत्था

सविता

जनवादी महिला समिति हरियाणा राज्य कमेटी ने कैप्टन लक्ष्मी सहगल की स्मृति में 25 जुलाई से 7 अगस्त तक राज्य भर में सामाजिक न्याय जत्था चलाया जो अपने आप में बहुत अलग अनुभव था।

जत्थे की जरूरत क्यों पड़ी?

पिछले एक दशक से अधिक के समय में भाजपा के हिन्दुत्व-कॉर्पोरेट शासन काल के दौरान देश के अंदर विशेष राजनैतिक तथा सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थतियाँ उत्पन्न हुई हैं। बड़े बड़े पूँजीपतियों और कॉर्पोरेट घरानों के हितों को बढ़ावा देने की नीतियों के कारण एक तरफ जहाँ अरबपतियों की संख्या बढ़ती जा रही है, वहीं दूसरी तरफ साठ करोड़ से अधिक आबादी भूख, गरीबी और बेरोजगारी के साये में जीवन बिताने को मजबूर है। एक तरफ बाजार की लूट जारी है, दूसरी ओर सांप्रदायिक व जातीय हमलों का ज़ोर है।

हमें यह समझना होगा कि भाजपा का हिन्दू राष्ट्र निर्माण का पूरा एजेंडा संस्कृति के क्षेत्र के इर्द-गिर्द घूमता है। जिस भारतीय संस्कृति की ये दुहाई देते हैं उस का अर्थ वह रूढ़िवादी, पुरातनपंथी, पितृसत्तात्मक व जन-विरोधी संस्कृति है जो मनुस्मृति को ‘सभ्य समाज’ और संस्कृति का आधारभूत ग्रंथ मानती है – वही मनुस्मृति, जिस के तहत संविधान द्वारा प्राप्त महिलाओं की स्वतंत्रता की इच्छा को पाप बताया गया है और उन्हें घर में कैद रखने के लिए अनेक उपाय सुझाए हैं। यहाँ तक कि पति को व्यभिचार की और ऊँची जाति के पुरुषों को नीची जाति की महिलाओं से बलात्कार की छूट दी गई है।

भाजपा शासनकाल में महिमामंडित संस्कृति अंधविश्वास, कर्मकांड तथा तमाम ऐसे पुनरुत्थानवादी रुझानों पर टिकी है, जिनके खिलाफ स्वतंत्रता आंदोलन से पहले और बाद में महिलाओं ने लंबे संघर्ष किये हैं। दहेज संबंधित हिंसा, पुत्र-लालसा के कारण भ्रूण हत्या, सती, पर्दा प्रथा, छेड़ -छाड़ और बलात्कार आदि के मामलों के विरुद्ध निरंतर संघर्ष के कारण बनाए गए कानूनों को न केवल हल्का किया जा रहा है, बल्कि दिन-रात महिलाओं के हित में बने ऐसे कानूनों के खिलाफ मीडिया और समाज के बड़े हिस्से दुष्प्रचार मे जुटे हैं और महिलाओं के खिलाफ हिंसा की अनदेखी कर पीड़ित-पुरुष का राग अलाप रहे हैं।

युवा लड़कियों और महिलाओं के अपनी पसंद के अधिकार पर चारों तरफ से हमला हो रहा है जो ‘’लव-जिहाद’’ और “इज्जत के नाम पर” बढ़ती हत्याओं में देखा जा सकता है। सत्ता-पक्ष से हाँ में हाँ मिलाते हुए समाज का बहु-संख्यक हिस्सा महिलाओं के कर्तव्यों की तो हर घड़ी बात करता है, लेकिन उनके अधिकारों की बात आते ही घर व परिवार बिगड़ने की दुहाई देने लगता है।

हर तरह से असमान और पिता की सत्ता और नियंत्रण पर टिके परिवार और समाज में उन्हें कोई दोष नज़र नहीं आता, उल्टा समानता की बात करते ही महिलाएं और युवा लड़कियां ही बिगड़ी हुई घोषित कर दी जाती हैं। हिन्दू संस्कृति के तहत एक ऐसे उग्र और हिंसक ‘हिंदू’ को गढ़ा जा रहा है जो विवेक, संत, भाईचारे, आपसी प्रेम और अमन शांति मे यकीन नहीं रखता, जो किसी भी प्रकार के विरोध या असहमति को सहन नहीं कर सकता और जिसके लिए नफरत और ताकत ही एकमात्र सच है। मनुष्य का यह घिनौना रूप महिलाओं के हितों और गरिमा से कदापि मेल नहीं खाता। ऐसी जन-विरोधी और महिला-विरोधी संस्कृति का मुकाबला करना और महिलाओं के व गरीब के पक्ष की मानव-संस्कृति का निर्माण करना इस जत्थे का प्रमुख केंद्र था।

जत्थे का उद्देश्य ऐसे समाज और संस्कृति को बढ़ावा देना था जो भारत की सांझी धरोहर को प्रोत्साहित करे, जो सर्वसमावेशी और वैज्ञानिक दृष्टि से लैस हो और जिसमें सभी तबकों को, विशेषकर महिलाओं और वंचित तबकों को अपनी पहचान और नागरिक भूमिका मिल सके। चूंकि शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, और गरिमापूर्ण जीवन जीने से संबंधित हमारे विकास संबंधित सभी प्रश्न सामाजिक-सांस्कृतिक ढांचों के साथ अभिन्न रूप से जुड़े हैं’, इसलिए इन प्रश्नों को संबोधित करना और इनके जनवादी व जनतान्त्रिक विकल्प पेश करना सामाजिक न्याय की यात्रा के अटूट हिस्से रहे।

इस जत्थे की शुरुआत 25 जुलाई को भिवानी से हुई और 7 अगस्त को हिसार में समापन हुआ। जत्थे के दौरान 13 जिलों में 32 जगह कार्यक्रम आयोजित किए गए।  उद्घाटन कार्यक्रम में प्रसिद्ध राजनीतिक कार्यकर्ता एवं संगठन की नेता सहबा फारुखी तथा समापन कार्यक्रम में राष्ट्रीय उपाध्यक्ष सुभाषिनी अली मुख्य वक्ता के तौर पर शामिल हुईं।

जत्थे की तैयारियों में राज्य स्तरीय सांस्कृतिक सब कमेटी ने हरियाणा के सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश और राजनैतिक चुनौतियों के हिसाब से गीत, नारे तथा नाटिकाएं लिखी और इनके आधार पर जिला कमेटियों द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रम तैयार किए गए।

जिलों के नेतृत्व ने स्थानीय स्तर पर जत्थे की बेहतरीन तैयारियां कीं। लगभग हरेक इकाई पर बैठकें हुई, चंदा अभियान चलाया गया और हाशिए पर धकेले गए तबकों के बीच जत्थे को ले जाने की भरसक कोशिश की गई। जत्थे के कार्यक्रमों में महिलाओं व बच्चों ने बहुत उत्साह के साथ हिस्सा लिया। यही कारण था कि जत्थे से संगठन के कार्यकर्ताओं में नई उर्जा का संचार हुआ।

जत्थे के दौरान प्रमुख प्रस्तुतियाँ थी- ‘अमृतकाल’, ‘मुनिया का सपना’, ‘जिसकै लागै वोये जाणै’, ‘झांसी की रानी लक्ष्मीबाई’में  आदि। थियेटर आर्ट ग्रुप ने दो जिलों बेहतरीन सांस्कृतिक प्रस्तुतियां दी। जत्थे में हरियाणा विज्ञान मंच द्वारा 4 जिलों में व 1 जिले में तर्कशील सोसायटी के साथियों द्वारा चमत्कारों का पर्दाफाश की प्रस्तुतियां भी दी गईं। इनके माध्यम से बाबाओं द्वारा किए जाने वाले चमत्कारों को वैज्ञानिक और तार्किक ढंग से दिखाया गया। प्रगतिशील गीत गाए गए और जत्थे के उद्देश्य को प्रस्तुत करने वाले नारे भी मंच पर लगाए गए।

इन सब कार्यक्रमों व सम्बोधनों के माध्यम से सामाजिक भेदभाव, पितृसत्ता, अंधविश्वास, कर्मकांड, रूढ़िवाद, जात-पात, सांप्रदायिकता, निरक्षरता, नशाखोरी एवं अन्य सामाजिक कुरीतियों पर तीखा हमला बोला गया और सामाजिक समरसता व सांप्रदायिक सौहार्द के पक्ष में आवाज उठाई गई।

सामाजिक न्याय, स्वतंत्रता और समानता के मूल्यों को स्थापित करने की दिशा में महत्वपूर्ण काम करने वाले समाज सुधारकों, राजनीतिक कार्यकर्ताओं, लेखकों, कवियों और प्रगतिशील सामाजिक संस्थाओं आदि के काम को भी सामने लाया गया।

इस जत्थे की कोशिश रही कि  सबकी हिस्सेदारी और एकजुटता पर आधारित मानव संस्कृति के निर्माण की दिशा में बढ़ा जा सके और साथ ही सांझी संस्कृति और विरासत को पुनःस्थापित किया जा सके। भाजपा की हिन्दू संस्कृति के आक्रामक प्रचार -प्रसार को टक्कर देने के लिए और भारत वर्ष की बहुल संस्कृति को पुनःस्थापित करने के लिए अपने अपने इलाके के समाज -सुधारकों और ऐतिहासिक स्थलों की पहचान कर लोगों के समक्ष उनके योगदान को पुनः सामने लाया गया।

ऐसे पुरुष एवं महिलाओं की सूची बनाकर अपने कार्यकर्ताओं और अन्य लोगों को उनके संघर्ष से परिचित करवाया गया और उनके जीवन से प्रेरणा लेते हुए मिली-जुली मानव  संस्कृति को जीवन और विकास के केंद्र मे लाया गया। जत्थे के माध्यम से यह संदेश दिया गया कि संस्कृति केवल गीत, नाटक या कलात्मक अभिरुचि नहीं है, संस्कृति के दायरे में हमारा पूरा जीवन आता है- हमारी सोच, हमारे आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक सांस्कृतिक ढांचे, रूचियाँ, व्यहवार, रीत-रिवाज़, तीज त्योहार, जन्म-मरण, शादी ब्याह व जीवन यापन के तौर तरीके, धर्म, जाति, भाषा, विवेक, सही गलत की पहचान, संवेदनशीलता आदि शामिल है। संस्कृति दरअसल हमारा पूरा जीवन है और किसी भी समय में मानवीय मूल्यों की रक्षा संस्कृति का सार हैं।

इसलिए व्यक्तिगत तथा सामाजिक स्तर पर रोज-मर्रा के जीवन में सक्रिय हस्तक्षेप भी इस जत्थे का लक्ष्य रहा। सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दों, जैसे पुत्र लालसा, दहेज, अपनी पसंद की शादी, व्रत उपवास, अन्तर्जातीय व अंतरधार्मिक विवाहों, महिलाओं के खिलाफ हिंसा, घरेलू हिंसा, संपत्ति में अधिकार आदि विषयों पर हमारे विचार रखे गए और यह पड़ताल करने की कोशिश हुई कि कहीं हम इन मुद्दों पर अपने चाल चलन और व्यवहार में हम कहाँ खड़े हैं?  इस बात पर ज़ोर दिया गया कि रोजमर्रा के अपने आचार-व्यवहार में  हमे गैर-बराबरी पर टिकी व महिलाओं का मान सम्मान घटाने वाली रीत-रिवाजों को त्यागना होगा, वरना हम मे और सत्ता पक्ष की पुरातनपंथी संस्कृति मे कोई अंतर नहीं रह जाएगा।

इस प्रकार प्रगतिशील संस्कृति का विकल्प पेश करना जत्थे का महत्वपूर्ण उद्देश्य रहा। कौन से पिछड़े रीत रिवाज का त्याग करना है और कौन सी आगे बढ़ी हुई बातों को शामिल करना है, यह चुनाव करना संस्कृति की मूल आत्मा है।

जत्थे के गीत, नाटक आदि द्वारा यह संदेश दिया गया कि कोई भी संस्कृति जन्मजात श्रेष्ठतम या कमतर नहीं होती, वे केवल भिन्न होती है और हर संस्कृति एक दूसरे से अनेक चीजें ग्रहण करते हुए ही आगे बढ़ती है। व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में आम जन और मेहनतकश लोग ही प्रगतिशील संस्कृति का निर्माण करते हैं। आम जन की संस्कृति हमेशा सत्ता पक्ष और अमीरों की संस्कृति से टकराती है और इसी टकराव से आगे की ओर ले जाने वाली संस्कृति निरंतर बनती रहती है। मसलन औरत को घर तक सीमित रखना रूढ़िवादी संस्कृति है , जब कि उसे सामाजिक भूमिका में आगे लाना प्रगतिशील व वैकल्पिक संस्कृति है । घर के अंदर काम का बंटवारा, सामूहिक रूप से फैसले लेना, बच्चों का मिल जुल कर पालन पोषण, लड़के-लड़की मे भेद न कर दोनों को बराबर के मौके देना, बिना दहेज सादगी से शादी करना, बेटी को संपत्ति मे हिस्सा देना, ये सब प्रगतिशील और वैकल्पिक संस्कृति के लक्षण हैं।

जत्थे के उद्घाटन अवसर पर भिवानी में स्वतंत्रता सेनानी परिवार से संबंधित प्रसिद्ध सामाजिक व राजनीतिक कार्यकर्ता सहबा फारूकी ने सम्बोधित करते हुए कहा कि  जनवादी महिला समिति की संस्थापक नेताओं में से एक कैप्टन लक्ष्मी सहगल आजाद हिन्द फौज में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के साथ कंधे से कंधा मिलाकर देश की आजादी के लिए लड़ी। आजादी के बाद भी महिलाओं और वंचित तबकों के लिए आजीवन संघर्ष किया । यहां तक मृत्यु के बाद अपना शरीर तक मैडिकल छात्रों को शोध के लिए दान दे दिया। ऐसी महान शख्सियत की याद में सामाजिक न्याय जत्था चलाना बेहद महत्वपूर्ण कार्य है। उन्होंने सामाजिक न्याय के लिए जनवादी महिला समिति द्वारा किए गए संघर्षों को महिलाओं के बीच में रखा।

भिवानी से होते हुये जत्था रोहतक, पानीपत, गुरूग्राम, रेवाड़ी, करनाल, यमुनानगर, पंचकूला, कैथल, जींद, फतेहाबाद, सिरसा से होता हुआ 7 अगस्त को हिसार पंहुचा, जहां ढोल नगाड़े के साथ जत्थे का स्वागत किया गया।

समापन कार्यक्रम में राष्ट्रीय उपाध्यक्ष सुभाषिनी अली सहगल ने सम्बोधित करते हुए कहा कि 7 अगस्त राष्ट्र गान लिखने वाले प्रसिद्ध लेखक एवं कवि गुरु रविंद्र नाथ टैगोर का स्मृति दिवस है। उन्होंने अपने लेखन के जरिए सामाजिक भेदभाव एवं कुरीतियों पर तीखा हमला बोला और सामाजिक समरसता व सांप्रदायिक सौहार्द के पक्ष में अपनी कलम चलाई है।

इनके साथ-साथ ताउम्र सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष करने वाले संविधान निर्माता बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर, ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले, फातिमा शेख, पंडिता रमाबाई, ताराबाई शिंदे, रमाबाई रानाडे, मीरा, कबीर, नामदेव, रैदास, बुल्ले शाह, हाली पानीपती, महात्मा बुद्ध, महावीर जैन, गुरु नानक देव, पेरियार, नारायण स्वामी, बसवना, अय्यनकली, तुकाराम, साहूजी महाराज आदि को याद करना भी जरूरी है जिन्होंने सामाजिक न्याय, स्वतंत्रता और समानता के मूल्यों को स्थापित करने की दिशा में महत्वपूर्ण काम किया।

पूर्व सांसद सुभाषिनी अली द्वारा वर्तमान हालात तथा आज की चुनौतियों पर विशेष ज़ोर दिया गया कि स्वतंत्रता आंदोलन से पहले, उसके दौरान और बाद में हमारे देश के समाज सुधारकों, राजनीतिक कार्यकर्ताओं, लेखकों, कवियों और प्रगतिशील सामाजिक संस्थाओं द्वारा समाज को प्रगतिशील राह पर लेकर जाने की जो कोशिशें की गईं आज उस पर दीवार खड़ी की जा रही है।

अंधविश्वास, कर्मकांड, रूढ़िवाद, जात-पात, सांप्रदायिकता, निरक्षरता, पितृसत्ता आदि के खिलाफ लंबे संघर्ष हुए हैं परंतु आज सत्ता की देखरेख में इन्हें पोषित किया जा रहा है। सबको समान अधिकार एवं अवसर देने वाले संविधान की जगह पर मनुस्मृति लाने की तैयारी हो रही है।

मनुस्मृति वही ग्रंथ है जिसे बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर ने 1927 में यह कहते हुए जलाया था कि यह किताब सामाजिक न्याय एवं समानता के विरुद्ध है। बाबा साहेब ने 1950 में हमारे हाथ में संविधान की मशाल देकर हमें मनुस्मृति की अंधेरी सुरंगों से बाहर निकाला था। आज जब हम अपने संवैधानिक अधिकारों के लिए आवाज उठा रहे हैं तो हमें जेलों में डाला जा रहा है।

दहेज हिंसा, कन्या भ्रूण हत्या, पर्दा प्रथा, सती प्रथा, बाल विवाह, बहु विवाह, घरेलू हिंसा, यौन हिंसा, बलात्कार आदि के खिलाफ हुए जुझारू संघर्षों की बदौलत बने कानूनों को ना केवल हल्का किया जा रहा है बल्कि महिलाओं, दलितों और अल्पसंख्यकों के हित में बने कानूनों के खिलाफ मीडिया और समाज में बड़े पैमाने पर दुष्प्रचार किया जा रहा है।

यहां तक कि महिलाओं के विरुद्ध हिंसा की अनदेखी कर अपवाद स्वरूप हुए कुछ मामलों को आधार बनाकर सभी महिलाओं को उत्पीड़क के तौर पर प्रस्तुत किया जा रहा है। महिलाओं, दलितों एवं अल्पसंख्यकों पर हिंसा बढ़ रही है।

युवा लड़के-लड़कियों द्वारा अपनी पसंद के अधिकार का प्रयोग करने पर हत्याएं भी बढ़ी हैं। बीच-बीच में हिंदू विवाह अधिनियम में बदलाव की मांग भी उठकर आ जाती है। हिंदू विवाह अधिनियम हिंदू कोड बिल के एक हिस्से के रूप में पारित हुआ था।

1950 में अंबेडकर ने कानून मंत्री के रूप में संसद में हिंदू कोड बिल पेश किया था। यह बिल महिलाओं को समानता और अधिकार दिलाने वाला एक महत्वपूर्ण दस्तावेज था। इस बिल में महिलाओं को पारिवारिक संपत्ति में अधिकार , तलाक़ का अधिकार, अंतर्जातीय  विवाह, बच्चे गोद लेने का अधिकार और पुरुषों के बहु-विवाह पर रोक आदि शामिल थे किन्तु मनुवादी मानसिकता के लोगों के लिए यह बिल उनके द्वारा स्थापित अमानवीय और अन्यायपूर्ण व्यवस्था की जड़ों को हिलाने वाला था इसलिए उन लोगों ने बाबा साहेब अम्बेडकर का प्रबल विरोध किया। बाबा साहेब ने समझौता करना मंजूर नहीं किया और कानून मंत्री से इस्तीफा दे दिया। बाद में 1955-56 में  प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने हिंदू कोड बिल को बहुत मुश्किल से चार टुकड़ों में पारित करवाया।

उन्होंने कहा कि इस तरह से विभिन्न स्तरों पर सैकड़ों सालों के संघर्षों के बाद हम भारत के लोग एक समतामूलक समाज के सपने को हकीकत में बदलने का संकल्प लेकर आगे बढ़ रहे थे कि फिर से मनुवादी ताकतें सर उठाने लगीं हैं ।‌ वे एक तरफ तो समाज में  मनुवादी वर्ण व्यवस्था कायम कर भेदभाव और नफ़रत पर आधारित समाज स्थापित करना चाहतीं हैं, दूसरी ओर लुटेरे  कारपोरेट के हाथों देश को बेचने का षड्यंत्र कर रहीं हैं।

बड़े-बड़े पूंजीपतियों के हक की नीतियों के कारण अरबपतियों की संपत्ति लगातार बढ़ रही है और देश की 60 करोड़ से ज्यादा आबादी भूख, मंहगाई, गरीबी, कुपोषण, बेरोजगारी और नशे के साए में जीवन बिताने को मजबूर है। एक तरफ बाजार की लूट दूसरी तरफ जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा के नाम पर नफरत की जहरीली मुहिम चलाकर लोगों को आपस में लड़वाया जा रहा है।

हमारी बहुलतावादी साझी संस्कृति और  साझी विरासत पर तीखा हमला किया जा रहा है। भारतीय संस्कृति के नाम पर रूढ़िवादी, पुरातन पंथी, पितृसत्तात्मक और जन विरोधी संस्कृति को बढ़ाया जा रहा है। अगर हम सबने मिलकर इस समय इन हमलों के खिलाफ आवाज बुलंद नहीं की तो हमारे शहीदों का न्याय व समानता आधारित सुंदर समाज बनाने का सपना हकीकत नहीं बन पाएगा।

उन्होंने उपस्थित जनसमूह से आह्वान किया कि हम नफ़रत, अंधविश्वास, रूढ़िवाद, पितृ सत्ता, जातिवाद सांप्रदायिकता, भेदभाव, असमानता, शोषण के खिलाफ अपनी आवाज उठाएं। हम अपनी साझी संस्कृति, साझी विरासत और साझे संघर्षों को याद रखते हुए आगे बढ़ें।

हम अपने रोजमर्रा के जीवन में गैर बराबरी और अन्याय पर आधारित रीति-रिवाजों एवं परंपराओं की पहचान कर उन्हें छोड़ने की दिशा में बढ़ें। हम जनता के बुनियादी मुद्दों के लिए संघर्ष का ऐलान करें और मिलकर सामाजिक न्याय हासिल करने की दिशा में आगे बढ़ें।

जत्थे में जनवादी महिला समिति की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष जगमति सांगवान, राज्य अध्यक्ष सविता, महासचिव उषा सरोहा, कोषाध्यक्ष अमिता मलिक, सहसचिव जरासो शर्मा, तथा वरिष्ठ नेत्री राजकुमारी दहिया शामिल रहीं।

लेखिका अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति , हरियाणा की राज्य अध्यक्ष हैं।

 

 

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