लेखक को हमेशा अजनबी ही होना चाहिएः अनिता देसाई

  • भारतीय मूल की अमेरिकी लेखिका का नया उपन्यास ‘रोसेरीटा’ पहचान, स्मृति, दुख और पीढ़ियों की पीड़ा को बयां करता है

 

माणिक गुप्ता

अमेरिका में अपने घर में बाहरी महसूस करने के साथ ही वरिष्ठ लेखिका अनिता देसाई तेजी से बदलते भारत के साथ भी अपनी पहचान को जोड़ नहीं पा रही हैं । और अब उन्होंने अपनी पहचान के साथ ‘अजनबी’ के तमगे को स्वीकार कर लिया है और वह मानती हैं कि एक लेखक को हमेशा ‘अजनबी’ ही होना चाहिए।

अंग्रेजी में भारत के जाने माने लेखकों में शुमार 87 वर्षीय अनिता देसाई पहचान के सवाल को लेकर हमेशा उलझन में रही हैं । एक जर्मन प्रवासी मां और भारतीय पिता की संतान देसाई के लिए यह ‘परायापन’ एक ऐसा विषय है जिसकी उन्होंने अपनी कई किताबों के साथ ही अपने निजी जीवन में भी गहराई से पड़ताल की है।

देसाई ने न्यूयार्क के कोल्ड स्प्रिंग में अपने घर से एजेंसी को दिए वीडियो साक्षात्कार में कहा, ‘‘ मैं यहां आज भी अजनबी हूं, आज भी बाहरी हूं और मैंने इसे स्वीकार कर लिया है। देखिए, एक लेखक का जीवन ऐसा ही होता है: बाहरी होना। भारत बहुत बदल गया है। मुझे ये बदलाव समझ नहीं आते । बहुत से अवसर ऐसे रहे हैं जहां मुझे महसूस हुआ कि मेरा भारत से जुड़ाव नहीं है।’’

उन्होंने कहा,‘‘ मुझे नहीं लगता कि भारत लौटना मुझे पसंद है, उस पुरानी दिल्ली में जहां मैं पली बढ़ी । क्योंकि वो जगह अब कहीं नहीं है। सब ध्वस्त हो गया है, नया कुछ बन गया है या पूरी तरह खत्म हो चुका है।’’

सात वर्ष की उम्र से लिखना शुरू करने वाली देसाई का हाल ही में नया उपन्यास ‘रोसेरीटा’ आया है जो पहचान, स्मृति, दुख और पीढ़ियों की पीड़ा को बयां करता है । देसाई आज भी हर रोज लिखती हैं।

पिछले महीने अपना 87 वां जन्मदिन मनाने वाली अनिता देसाई का कहना था, ‘‘ हर रोज मैं कुछ समय लेखन में बिताती हूं । हमेशा कोई उपन्यास ही नहीं… ये पत्र लिखना, समीक्षा या डायरी नोट भी हो सकता है। अगर मैं नहीं लिखूं, कागज पर कलम न चलाऊं, ते लगता है दिन व्यर्थ चला गया। इसमें एक अंतराल है और मुझे वह अंतराल भरना है, इसी के चलते मैं लिखती हूं । साथ ही आपको अभ्यास करते रहना पड़ता है। जैसा कि आप संगीत या कला में करते हैं।’’

उन्होंने अपना पहला उपन्यास ‘क्राई दी पीकॉक’ लगभग 20 साल की उम्र में उस समय लिखा था जब वह मिरांडा हाउस में पढ़ रही थीं। 1963 में अपने उपन्यास के बाद से मसूरी में पैदा हुईं और 1980 के दशक में इंग्लैंड जा बसीं देसाई ने अभी तक करीब 20 उपन्याय, लघु उपन्यास और बाल पुस्तकें लिखी हैं।बाद में वह अमेरिका जाकर बस गईं।

वर्ष 2011 में आयी उनकी किताब ‘दी आर्टिस्ट आफ डिस्एपियरेंस’ तीन लघु उपन्यासों का संग्रह थी। ‘क्लीयर लाइट आफ डे’(1980), ‘इन कस्टडी’ (1984) और ‘फास्टिंग , फीस्टिंग’ (1999) के लिए उन्हें तीन बार प्रतिष्ठित बुकर पुरस्कार की अंतिम सूची में शामिल किया गया।

देसाई को उनके उपन्यास ‘फायर ऑन दी माउंटेन’ के लिए 1978 में साहित्य अकादमी पुरस्कार, 2014 में पद्म भूषण पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

उनका नया उपन्यास बोनिता की कहानी है। एक युवा भारतीय छात्रा जो अध्ययन के लिए मैक्सिको जाती है लेकिन कुछ ऐसा घटता है कि वह अपनी दिवंगत मां की जड़ों को तलाशने के लिए निकल पड़ती है।

यह लघु उपन्यास पाठक को अंत में जवाबों से ज्यादा सवालों के बीच ले जाकर छोड़ देता है जहां वह भौचक्का है कि वास्तविकता क्या है और कल्पना कितनी है।

यह उपन्यास उनकी बेटी पर केंद्रित है । उनकी बेटी और लेखिका किरण देसाई को 2006 में उनके उपन्यास ‘दी इनहेरिटेंस आफ लॉस’ के लिए बुकर पुरस्कार प्रदान किया गया था।

अनिता देसाई अध्यापन के लिए 45 साल की उम्र में भारत से चली गईं और पहले उन्होंने कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी और बाद में अमेरिका में पढ़ाया। वह मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट आफ टेक्नोलॉजी से प्रोफेसर के रूप में सेवानिवृत्त हुईं।

पैनमैक्मीलन द्वारा प्रकाशित ‘रोसेरीटा’ की कीमत 499 रूपये है और इस समय यह ऑनलाइन और ऑफलाइन उपलब्ध है।