कलाकार जब प्रकृति साध सृजनकार हो गए !

कलाकार जब प्रकृति साध सृजनकार हो गए !

मंजुल भारद्वाज

कल्पना का साकार होना अद्भुत, विरल और विलक्षण होता है।

कब,कहां,कितने व्यक्तियों ने इस स्थिति को महसूस किया है। जिया है। निराकार से साकार होने की अनुभूति का आनंद लिया है।

कब ऐसा होता है जब हम देह से निकल कर सिर्फ़ चैतन्य स्वरूप में होते हैं। सांसारिक मानदंडों में यह अवस्था सिर्फ़ मृत्यु है। पर मृत्यु में देह से निकली चेतना को  आप महसूस नहीं कर सकते। वो चेतना शरीर छोड़ने के बाद ब्रह्मांड में विलीन हो जाती है। देह राख बन हमारे सामने होती है।

देह को हम अग्नि,जल,मिट्टी के हवाले कर देते हैं और चेतना ब्रह्मांड से एकाकार हो निराकार हो जाती है।

कोई नहीं जानता वो चेतना क्या करती है? कहां जाती है?

यह प्रकृति का अद्भुत रहस्य है। जो अभी तक सुलझा नहीं है।

प्रकृति को साधने का दर्शन है कला। कला चैतन्य और सौंदर्य बोध से बनती है। सत्य को निरंतर उजागर करती है। जब कलाकार निर्मल भाव से अपने आपको चैतन्य को समर्पित करते हैं तब वो प्रकृति का रूप धर सृजनकार बन जाते हैं। तब वो केवल अभिनय नहीं करते अपितु प्रकृति में जा बसते हैं और दर्शकों को प्रकृति के चैतन्य और सौंदर्य बोध की अनुभूति से सराबोर कर देते हैं।

सांसारिक व्यवहार में जड़ हो चुकी चेतना को आलोकित करते हैं। 12 अक्टूबर को जलगांव में थियेटर ऑफ़ रेलेवंस के कलाकारों ने प्रकृति,पर्यावरण,पंच तत्वों के संरक्षण,संवर्धन,मानवता और पृथ्वी को बचाने के लिए

‘द…अदर वर्ल्ड ‘ नाटक का मंचन किया।

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