स्मृति शेष
विनोद कुमार शुक्ल का उपन्यास ‘नौकर की कमीज़’ और मणि कौल की फ़िल्म
जवरीमल्ल पारख
1999 में हिंदी के कवि और कथाकार विनोद कुमार शुक्ल (1937-2025) के पहले उपन्यास ‘नौकर की क़मीज़’ पर इसी नाम से मणि कौल (1944-2011) ने फिल्म बनायी थी। शायद ही किसी अन्य फिल्मकार का साहित्य से और ख़ासतौर पर हिंदी साहित्य से इतना गहरा संबंध रहा जितना मणि कौल का था। उनके द्वारा फिल्म के लिए ‘नौकर की कमीज़’ के चुने जाने का अपना महत्त्व है।
दरअसल, मणि कौल ने फ़िल्म के लिए जिन-जिन साहित्यिक कृतियों का चुनाव किया, उनके कथानक न तो सीधे-सादे थे और न ही नाटकीयता से भरे हुए। लेकिन उनमें कुछ ऐसा ज़रूर था जिस पर फिल्म बनाना एक चुनौती का काम था। मणि कौल ने अपनी पहली फिल्म 1969 में ‘उसकी रोटी’ नाम से बनायी थी। यह फिल्म मोहन राकेश की इसी नाम की कहानी पर आधारित थी। उन्होंने अपनी दूसरी फिल्म दो साल बाद 1971 में ‘आषाढ़ का एक दिन’ के नाम से बनायी थी। यह मोहन राकेश का बहुचर्चित नाटक था और जिसे मंच पर भी सफलतापूर्वक खेला जा चुका था, उसी नाटक को आधार बनाकर मणि कौल ने अपनी फिल्म बनायी थी।
साहित्यिक कृतियों को आधार बनाकर फिल्म बनाने का यह सिलसिला निरंतर चलता रहा। उनकी तीसरी फिल्म ‘दुविधा’ राजस्थानी के प्रख्यात कथाकार विजयदान देथा की इसी नाम की कहानी पर आधारित थी। यह फिल्म 1973 में बनी थी। इसके बाद उन्होंने विजय तेंदुलकर के नाटक ‘घासीराम कोतवाल’ पर 1979 में फिल्म बनायी और 1980 में उन्होंने हिंदी के महान कवि गजानन माधव मुक्तिबोध की कृतियों को आधार बनाकर ‘सतह से उठता आदमी’ नाम से फिल्म बनायी। उन्होंने रूसी कथाकार फ्योदोर दोस्तोव्स्की की रचनाओं पर ‘नज़र’ (1989) और ‘अहमक’ (द ईडियटः 1991) नाम से फिल्में बनायीं।
विनोदकुमार शुक्ल भी मणि कौल की तरह प्रयोगशील कथाकार थे और इसके साथ ही उनकी जीवन-दृष्टि भी प्रगतिशील थी। यह और बात है कि इस प्रयोगशीलता ने उन पर अभिजनवादी का ठप्पा लगवा दिया जबकि मणि कौल की तरह विनोदकुमार शुक्ल की कहानियाँ और चरित्र आमतौर पर मध्यवर्ग या निम्नमध्यवर्ग से उठाए हैं। इसे हम ‘नौकर की कमीज़’ में भी देख सकते हैं। उनकी दृष्टि पात्रों की वर्गीय पृष्ठभूमि और उनमें अंतर्निहित अंतर्विरोधों पर रहती है। लेकिन इसे वे न तो सपाट ढंग से कहते हैं और न ही मेलोड्रामाई ढंग से, जो मणि कौल की शैली भी नहीं हैं। मणि कौल साहित्यिक रचना पर फिल्म बनाते हुए उसकी साहित्यिकता को अक्षुण्ण बनाए रखने का प्रयास करते हैं और यह उनकी बहुत बड़ी विशेषता है। विनोदकुमार शुक्ल की कृति को चुनने की पीछे संभवतः इस साहित्यिकता और रचनात्मकता का भी योगदान है।

‘नौकर की कमीज़’ (1979) विनोद कुमार शुक्ल का पहला उपन्यास है। श्री शुक्ल अपने काव्य और कथा साहित्य में प्रयोगशीलता के लिए पहचाने जाते हैं। सिनेमा की तरह साहित्य में भी हम इस प्रवृत्ति को देख सकते हैं कि परंपरागत लोकप्रिय ढाँचे से भिन्न प्रयोग करने वाले रचनाकार को प्रायः संदेह की दृष्टि से देखा जाता है और उसे अभिजनवादी कहकर नकार दिया जाता है। ‘नौकर की कमीज’ निम्नमध्यवर्गीय कस्बाई यथार्थ से संबंधित उपन्यास है जो आज़ादी के बाद विकसित हुए नौकरशाही तंत्र की अंदरूनी चीर-फाड़ करता है। उपन्यास संतू बाबू के इर्दगिर्द घूमता है जो एक सरकारी दफ़्तर में क्लर्क है। संतू बाबू दफ़्तर के जिस विभाग में काम करते हैं, वहाँ उनके साथ काम करनेवाले दो अन्य क्लर्क गौराहा बाबू और देवांगन बाबू, एक बड़े बाबू, एक साहब और एक चपरासी मँहगू है।
संतू बाबू किराये के टूटे-फूटे मकान में अपनी पत्नी के साथ रहते हैं और यह मकान किसी डाॅक्टर का है जो पास ही में एक कोठी में रहते हैं। डाॅक्टर के परिवार में उनकी पत्नी, विधवा बहन और भतीजा है। एक माली भी है जो डाॅक्टर के यहाँ भी काम करता है और साहब के यहाँ भी। संतू बाबू के पास कभी-कभी उनकी माँ रहने के लिए आती है। ज़्यादा समय वह अपने बड़े बेटे के पास रहती हैं जो किसी और शहर में नौकरी करता है। संतू बाबू का एक बचपन का दोस्त संपत है जो उसी शहर में रहता है। घर के पास ही एक सिनेमाघर है। एक नाई की दुकान है। गुप्ता जी की किराने की दुकान है और इन्हीं सबसे मिलकर संतू बाबू का संसार बना है और यह उपन्यास इसी संसार के बारे में है जो संतू बाबू के माध्यम से सामने आता है।
उपन्यास मध्यम आकार का है, पेपरबैक साइज़ में 252 पृष्ठों का। बहुत से पात्र, घटनाएँ, प्रसंग और स्थितियों का वर्णन विस्तार से उपन्यास में हैं। लेकिन वर्णन के साथ लगातार संतू बाबू की आलोचनात्मक टिप्पणियाँ चलती रहती हैं जो मुख्य रूप से उनके सोच और मानसिक ऊहापोह के माध्यम से सामने आती हैं। इसके साथ ही कुछ घटनाओं और प्रसंगों के प्रतीकात्मक अर्थ हैं जो उपन्यास के वैचारिक दायरे को और विस्तृत करते हैं। नौकर की कमीज़ इसी तरह का प्रतीक है और इससे जुड़ी घटनाएँ इसकी प्रतीकात्मकता के कई अर्थ खोलती हैं। उपन्यास पढ़ते हुए इस बात को सहज ही समझा जा सकता है कि एक विचारबहुल, अनाटकीय और जटिल लेकिन रोचक घटनाओं, प्रसंगों और स्थितियों से निर्मित उपन्यास पर फ़िल्म बनाना निश्चय ही चुनौतीपूर्ण रहा होगा। क्या मणि कौल इस चुनौती का फ़िल्म में सफलतापूर्वक निर्वाह कर पाये हैं?
उपन्यास के आकार और कथा-विस्तार की तुलना में फ़िल्म छोटी है और उपन्यास से बहुत सी घटनाओं, पात्रों और प्रसंगों को छोड़ दिया गया है, लेकिन कोई नया पात्र या प्रसंग जोड़ा नहीं गया है। सबसे बड़ा अंतर उपन्यास और फ़िल्म में यह है कि फ़िल्म में कहानी वहीं खत्म हो जाती है जहाँ संतू बाबू की पत्नी संतू बाबू को बताती है कि मेरे पेट में बच्चा आ गया है और उसके बाद वह अपनी माँ को लिवाने जाने की बात पत्नी को कहता है। लेकिन उपन्यास में कहानी उसके बाद भी चलती है। संतू बाबू माँ को लेने जाता है, वहाँ मालूम पड़ता है कि उसके बड़े भाई का एक्सीडेंट हो गया है और माँ जा सकने की स्थिति में नहीं है और उसे बेरंग ही लौटना पड़ता है।

नौकर की कमीज़ का प्रसंग भी फ़िल्म में तीनों क्लर्कों द्वारा कमीज़ फाड़ने पर ख़त्म हो जाता है। लेकिन उपन्यास में फटी हुई कमीज़ के टुकड़े बड़े बाबू समेटते हैं। वही बड़े बाबू जिन्होंने मँहगू की मदद से संतू बाबू को कमीज़ पहनाई थी, उपन्यास के अंत में अपने सहयोगी क्लर्कों के साथ मिलकर जला देते हैं। यह प्रसंग फ़िल्म में नहीं है। कई अन्य प्रसंग जो उपन्यास में विस्तार से वर्णित हैं, फ़िल्म में उन्हें अधिक विस्तार नहीं मिला है। इसका एक बड़ा कारण यह है कि जहाँ उपन्यास में संतू बाबू के मन में चलने वाली उधेड़बुन को विस्तार से शब्दबद्ध किया गया है, फ़िल्म में इन्हें दर्शकों की कल्पना पर छोड़ दिया गया है।
उदाहरण के लिए, मँहगू का संतू बाबू के घर बुलाने के लिए आना और संतू बाबू द्वारा उसे चाय पिलाना। संतू बाबू नहाने के लिए जाने वाले हैं। वह अपनी पत्नी को चाय बनाने के लिए कहते हैं और यह भी कि एक कप मँहगू के लिए भी बना देना। और फिर संतू बाबू मँहगू को साइकिल साफ़ करने और उसमें हवा भरने के लिए कहते हैं। फ़िल्म में नहाते हुए संतू बाबू अचानक रुक जाते हैं और नहाकर मँहगू को कहते हैं कि साइकिल साफ़ करने की ज़रूरत नहीं है, वह खुद साफ़ कर लेेंगे। जब वह हवा भरने के लिए पूछता है, तो संतू बाबू इसके लिए भी मना कर देते हैं। इसके बाद दोनों के लिए चाय आती है और वे दोनों अपनी-अपनी साइकिल पर चले जाते हैं। इसी प्रसंग के बीच संतू बाबू की पत्नी को भी डाॅक्टर के यहाँ से बुलावा आता है और उसे भी जाना पड़ता है।
न दोनों प्रसंगों का मूल प्रश्न यह है कि डाॅक्टर की पत्नी जिस तरह थोड़ी मदद के बदले में संतू बाबू की पत्नी से काम करवाती है, या साहब संतू बाबू से अपने निजी काम करवाते हैं, क्या संतू बाबू का व्यवहार भी ठीक वैसा ही है और वे भी एक कप चाय के बदले मँहगू से साइकिल साफ़ करवाने और हवा भरवाने का काम करवा रहे हैं। यही ठीक वह प्रश्न है जो संतू बाबूू के मन में उठता है और इसी वजह से संतू बाबू अचानक मँहगू कोे साइकिल साफ़ करने से रोक देते हैं और उसे कुर्सी पर बैठने के लिए कहते हैं। फ़िल्म में बस इतना ही प्रसंग है और डाॅक्टर और साहब के यहाँ से बुलावे से ही मँहगू के प्रसंग को समझना होता है। जबकि उपन्यास में इस प्रसंग को पर्याप्त विस्तार दिया गया है।
संतू बाबू के मन में अपनी और पत्नी की स्थिति की तुलना मँहगू से करने का विचार पैदा होता है जो इन दोनों के डाॅक्टर और साहब के यहाँ बुलावे से जुड़ा है। इस स्थिति पर विचार करते हुए संतू बाबू के मन में कई अन्य प्रसंग उभर आते हैं और जिसका नतीजा यह निकलता है कि वह मँहगू को साइकिल साफ़ करने से रोक देता है। उसे कुर्सी पर बैठने के लिए कहता है और यह जानकर खुशी होती है कि पत्नी ने दोनों को एक-से कप में चाय दी है। लेकिन उपन्यास में इसके बावजूद मँहगू चाय पीने के बाद न सिर्फ़ अपना कप धोता है बल्कि संतू बाबू का कप भी धोता है। मँहगू द्वारा कप धोने का प्रसंग फ़िल्म में नहीं है।
इस तरह उपन्यास में पूरे प्रसंग को जो विस्तार मिला है, उसके कारण नौकरशाही में मौजूद श्रेणीबद्धता और उसका दफ़्तर से निकल कर घर तक पहुंँच जाना तंत्र के बुनियादी अंतर्विरोधों को दर्शाने में सहायक होता है और संतू बाबू के मन में चलनेवाले वैचारिक उधेड़बुन के कारण पाठक को भी इन्हें समझने में कोई कठिनाई नहीं होती। फ़िल्म का उद्देश्य भी यही है, लेकिन यहाँ दृश्यात्मक संकेतों से ही वही बात कहने की कोशिश की गयी है जो उपन्यास में शब्दों से कही गयी है। इस दृष्टि से फ़िल्म के दर्शक को ज़्यादा सचेत और इस माध्यम में निहित रचनात्मक संभावनाओं की गहरी समझ का होना ज़रूरी है। फ़िल्म की सीमा यह अवश्य है कि वह प्रसंगों में अर्थ की विभिन्न पर्तों को सामने नहीं ला पाती हैं।
नौकर की कमीज़ वाले प्रसंग की सीमा भी यही है। कमीज़ जलाने वाले प्रसंग ने नौकर की कमीज़ के अर्थ में नयी व्याख्या जोड़ी गयी है। बड़े बाबू की अलमारी से फटी कमीज़ को चुराकर संतू बाबू, गौराहा बाबू और देवांगन बाबू उसे मैदान में ले जाकर जलाने की कोशिश करते हैं और उनके इस अभियान में बड़े बाबू भी शामिल हो जाते हैं और कमीज़ जला दी जाती है। उपन्यास इस घटना के साथ समाप्त होता है। स्पष्ट है कि कमीज़ के फाड़े जाने और जला देने में फ़र्क है। इसी तरह कमीज़ के फाड़े जाते वक़्त बड़े बाबू छुपकर देखते हैं और बाद में फटे टुकड़ों को समेटकर अपनी अलमारी में छुपाकर रख देते हैं।
इसके पीछे कारण बड़े बाबू के मन में कभी अवसर पाकर साहब से शिकायत करना हो सकता है। फाड़े जाने के बावजूद कमीज़ का अस्तित्व था, लेकिन जला दिये जाने के साथ कमीज़ का अस्तित्व भी ख़त्म हो गया है। इसी तरह इस तंत्र के विरुद्ध खड़े होेने का जो संकल्प संतू बाबू, गौराहा बाबू और देवांगन बाबू लेते हैं, उसमें बड़े बाबू का शामिल होना एक तरह से उनके पारस्परिक संबंधों में आये बदलाव का सूचक है और साथ ही साहब के विरुद्ध व्यापक होती गोलबंदी का सूचक भी है। मँहगू को अपने घर पर चाय पिलाना, उससे साइकिल साफ़ करवाने से अपने आप को रोकना और कुर्सी पर बैठने के लिए कहना भी इसी व्यापक होती गोलबंदी की ओर संकेत करता है।
अब तक बड़े बाबू, साहब के एजेंट की तरह काम कर रहे थे, लेकिन अब वे अपने को इस ग़ुलामी से आज़ाद कर लेते हैं। इस घटना को जब उपन्यास के अंतिम परिच्छेद के साथ जोड़कर देखते हैं जहाँ संतू बाबू अपनी पत्नी को कहते हैं कि यदि डाॅक्टर छत ठीक नहीं करायेंगे तो वे इस घर को छोड़कर नया घर किराये पर ले लेंगे और पत्नी का यह कहना कि वह भी डाॅक्टरनी के घर नहीं जायेगी, इस अर्थ में महत्त्वपूर्ण है कि उनका यह संकल्प परिस्थितियों से समझौता करने के बजाये उसके विरुद्ध खड़े होने को दर्शाता है।
फ़िल्म का प्रयत्न भी यही दिखाना है कि संतू बाबू और उनकी पत्नी जो साहब और डाॅक्टर के बंधुआ मज़दूर बनने की ओर धकेले जा रहे थे, किस तरह उसके विरुद्ध खड़े होने का साहस दिखाते हैं, बल्कि इस प्रक्रिया में स्वयं उनका व्यवहार अपने मातहतों या वह जिन्हें वे अपने से छोटा समझते रहे हैं, उनके प्रति किस तरह बदलता है, यह दर्शाना भी है। साहब के घर घास तोड़ते माली के साथ काम करते हुए संतू बाबू पहले माली को साहब की तरह आदेश देता है और बाद में न केवल उसके साथ खुद भी घास तोड़ने लगता है, बल्कि उसके साथ उसका व्यवहार भी बदल जाता है।
अपनी अन्य फ़िल्मों की तरह इस फ़िल्म में भी मणि कौल विभिन्न पात्रों के माध्यम से चरित्रों के ऐसे द्वैत खड़े करते हैं जो उनकी वर्गीय भिन्नताओं को स्पष्ट रूप से रेखांकित करते हैं। मसलन, संतू बाबू के घर में उनकी पत्नी और माँ और उनके चरित्र में यह द्वैत देखा जा सकता है। आरंभ में ही जब संतू बाबू के पास करने को कुछ काम नहीं है और वह घर से बाहर इधर-उधर घूमते हुए अपना समय व्यतीत करता है, ठीक उसी समय उसकी पत्नी और माँ घर के काम में व्यस्त दिखायी देती है।
पत्नी की भिन्नता डाॅक्टरनी और साहब की बीबी से भी दिखायी देती है जो सदैव आदेश देती हैं या ख़रीददारी करती दिखायी देती हैं, जबकि संतू बाबू की पत्नी को सब्जी, मिट्टी का तेल ख़रीदने के बारे में भी सोचना पड़ता है। संतू बाबू का द्वैत माली और मँहगू से भी नज़र आता है जो हाथ से मेहनत करते दिखायी देते हैं जबकि संतू बाबू मेज कुर्सी पर बैठकर कलम घसीटते नज़र आते हैं। लेकिन इसी संतू बाबू को साहब के निजी काम करने पड़ते हैं, तब उसे पहली बार अपनी निम्नावस्था का एहसास होता है। साहब के घर पर संतू बाबू को जबरन उस कमीज़ को पहनाया जाता है जो उनके उस घरेलू नौकर की थी जो काम छोड़कर चला गया था। संतु बाबू को न सिर्फ़ कमीज़ पहनायी जाती, घरेलू काम भी कराया जाता है।
साहब की पत्नी के साथ जाकर बाज़ार से सामान ख़रीदना, उसे उठाकर गाड़ी में और घर में रखना और माली के साथ काम में हाथ बँटाना। इसके बदले में उसे भी एक कप चाय मिलती है जैसे कि संतू बाबू के घर पर मँहगू को मिलती है। इस प्रश्न को अनुतरित छोड़ दिया गया है कि साहब के यहाँ संतू बाबू को चाय पिलाया जाना और संतु बाबू के यहाँ मँहगू को चाय पिलाया जाना एक ही है या दो अलग तरह के व्यवहार है।
‘नौकर की कमीज़’ व्यवस्था की वह तस्वीर पेश करती है जहाँ अधिकारों की श्रेणीबद्धता उनके पारस्परिक संबंधों को तय करती है। संतू बाबू अपने को माली, मँहगू और चाय वाले लड़के से भिन्न और श्रेष्ठ समझते हैं लेकिन साहब की नज़र में माली, मँहगू और संतू बाबू में कोई अंतर नहीं है। यही वजह है कि जब वह संतू बाबू को माली के साथ काम करते देखते हैं तो उसे काम करने से रोकने का कोई प्रयास नहीं करते बल्कि वे उसे बहुत स्वाभाविक मानते हैं। डाॅक्टरनी भी उसी अधिकार से संतू बाबू की पत्नी को जब-तब काम के लिए बुला लेती हैं। संतू बाबू की पत्नी डाॅक्टरनी के साथ बाज़ार जाती है और संतू बाबू भी साहब की पत्नी के साथ। लेकिन जब बाज़ार में संतू बाबू अपनी पत्नी को दुकान पर आत्मविश्वास के साथ साड़ी छाँटते हुए या जीरे का मोलभाव करते देखते हैं तो उन्हें बहुत आश्चर्य होता है।
संतू बाबू अपनी पत्नी को एक घरघुस्सू घरेलू पत्नी की तरह देखते रहे हैं क्योंकि उनकी पत्नी ने कभी घर से बाहर जाने में उत्सुकता नहीं दिखायी थी। इसलिए उनके लिए भी पत्नी का यह रूप एक नया उद्घाटन था। उसके व्यक्तित्व का एक नया आयाम जो उसके स्वतंत्र व्यक्तित्व को दिखाता है। हालाँकि डाॅक्टरनी द्वारा संतू बाबू की पत्नी से काम लिया जाना उतना ही ग़लत है जितना संतू बाबू से साहब द्वारा काम लिया जाना। साहब और डाॅक्टर, दोनों ही अपनी उच्च स्थिति का लाभ उठा रहे होते हैं। यह एक उत्पीड़नकारी व्यवस्था है जहाँ ताक़तवर कमज़ोर को दबाता है और इसे अपना हक़ मानता है।
नौकर की कमीज़ फ़िल्म के आरंभ में नामावली के तत्काल बाद लिखा आता है, ‘थर्टी इयर्स एगो यानी तीस साल पहले’। फ़िल्म 1999 की है, इस तरह फ़िल्म में कहानी सातवें दशक से संबंधित है। इसलिए कहानी का आर्थिक-सामाजिक परिवेश सातवें दशक के कस्बाई यथार्थ से निर्मित किया गया है। देश को आज़ाद हुए महज दो दशक हुए हैं। व्यवस्था का तंत्र अब गोरे साहबों की जगह काले साहबों के हाथ में आ गया है, लेकिन उनका व्यवहार वैसा ही है जैसा गोरे साहबों का अपने मातहतों के साथ था। उसमें कोई बदलाव नहीं आया था। लेकिन बदलाव धीरे-धीरे आ रहा था। ‘नौकर की कमीज़’ उपन्यास इसी होने वाले बदलाव को पकड़ने का प्रयास करता है। फ़िल्म में भी यही कोशिश नज़र आती है।
उसकी रोटी और आषाढ़ का एक दिन से यह फ़िल्म इस अर्थ में भिन्न है कि जो प्रयोगधर्मिता उसकी रोटी और आषाढ़ का एक दिन में दिखायी देती है, वैसी प्रयोगशीलता नौकर की कमीज़ में नहीं है। हालाँकि यहाँ भी पार्श्व संगीत का प्रयोग सिर्फ़ सितारवादन (वादकः पुष्पराज कोश्ती) के द्वारा किया गया है और विभिन्न दृश्यों के साथ उनसे संबद्ध ध्वनियों का इस्तेमाल ही किया गया है। अभिनय की दृष्टि से अंतर यह है कि इस फ़िल्म में पात्र कथ्य के अनुरूप स्वाभाविक अभिनय करते नज़र आते हैं। संवादों की अदायगी के समय भावनाओं के अनुसार पात्र अपनी आवाज़ को ढालते हैं हालाँकि उसे नाटकीय बनाने से बचते हैं।
आवाज़ में कहीं घबराहट है, कहीं गुस्सा है, कहीं बेचैनी हैं और कहीं उदासीनता है, तो कहीं आत्मीयता से पूर्ण रूमानियत भी है। यही चीज़ अभिनय में भी दिखायी देती है। उपन्यास का संतू बाबू कुछ-कुछ सनकी और दार्शनिक किस्म का भी नज़र आता है, ख़ासतौर पर अपने सोच में। उसके इस विशिष्ट चरित्र के कारण ही वह अपने जीवन में और अपने आसपास जो कुछ भी घटित होता है, उसका काफ़ी हद तक विवेकपूर्ण विवेचन करने में सक्षम होता है।
यही उपन्यास की केंद्रीय शक्ति है। लेकिन उपन्यास का संतू बाबू फ़िल्म में निम्नमध्यवर्गीय साधारण व्यक्ति ही नज़र आता है, क्योंकि सोच वाला हिस्सा फ़िल्म में काफ़ी कम हो गया है। इसने उपन्यास की तुलना में फ़िल्म के प्रभाव को सीमित भी किया है। उसकी रोटी और आषाढ़ का एक दिन में अभिनय और संवाद अदायगी में काफ़ी हद तक एकरूपता को बनाये रखा गया है। नौकर की कमीज़ की गति उसकी रोटी और आषाढ़ का एक दिन की अपेक्षा तीव्र है।इस फिल्म में मणि कौल ने अपने को दोहराया नहीं है बल्कि प्रयोग करते हुए भी इस बात का ध्यान रखा है कि फिल्म आसानी से संप्रेषित हो सके।
फिल्म का शीर्षक : नौकर की कमीज़; प्रदर्शन : 1999; अवधि : 104 मिनट; भाषा : हिन्दी; निर्देशक : मणि कौल; लेखक : विनोद कुमार शुक्ल (लेखक के उपन्यास ‘नौकर की कमीज़’ पर आधारित); छायांकन : के यू मोहनन; सम्पादन : मणि कौल और श्रीनिवास पात्रो; संगीत : पुष्पराज कोश्ती; अभिनेता : पंकज सुधीर मिश्र, अनु जोसेफ, ओमप्रकाश द्विवेदी

लेखक- जबरीमल्ल पारख
(लेख और सभी तस्वीरें नया पथ से ली गई हैं। लेखक जबरीमल्ल पारख, नया पथ के प्रति आभार और जहां से उन्होंने तस्वीरें ली हैं उनके प्रति भी आभार प्रकट करते हैं)
