व्यंग्य
थोड़ा धनिया डालिए और मीडिया को धीमी आंच पर पकाइए
विजय शंकर पांडेय
क्या आप जानते हैं, धनिया पाचन ठीक करने से लेकर शरीर को, विशेष तौर पर भेजे को डिटॉक्स करने तक में काम आता है। एक दौर था, अखबार के बगैर सुबह की चाय फीकी लगने लगती थी। अखबार शांत और सुस्त जरूर नजर आते थे, मगर बहुत हद तक भरोसेमंद होते थे। वक्त बदला। फिर आया टीवी जर्नलिज्म। चमचमाता, चिल्लाता और चौबीसों घंटे दनादन खबरें उछालता। अखबार बेचारा क्या करता? नेहा सिंह राठौर ने पिछले दिनों एक टिप्पणी की थी – कुछ अखबार समोसे का पूरा तेल सोख जाते हैं।
खबर, ड्रामा, चीख-पुकार और ऊपर से विज्ञापन का तड़का
अखबारों ने देखा कि टीवी वाले समोसे के साथ-साथ पूरी थाली परोस रहे हैं। एक तरफ टीवी एंकर चिल्ला रहा है, “ब्रेकिंग न्यूज़, देश खतरे में है!” और दूसरी तरफ विज्ञापन आता है, “इस तेल में बनाएं समोसे, कोलेस्ट्रॉल फ्री!” स्टूडियो में चिल्लाते ऐंकर, बैकग्राउंड में बजते ढोल-नगाड़े, और “चौंका देने वाली रिपोर्ट!” की फ्लैशिंग ब्रेकिंग न्यूज़। अखबार ने सोचा, “अरे, ये तो मेरा ही निवाला छीन रहे हैं। मैं भी तो तेल सोख सकता हूं, वो भी बिना चिल्लाए।” लेकिन दिक्कत ये थी कि अखबार की रफ्तार साइकिल की थी और टीवी की बुलेट ट्रेन। फिर अखबारों ने रणनीति बदली। उसने कहा, “ठीक है, मैं चिल्ला नहीं सकता, लेकिन मसाला तो डाल सकता हूं।”
लेकिन टीवी वाले कहां रुकने वाले थे?
उन्होंने तुरंत स्टूडियो में डिबेट और प्राइम टाइम के नाम पर मसालेदार एपिसोड की शुरुआत की। पैनल में दस लोगों को जुटा लेते, मगर अकेले टीआरपी विशेषज्ञ ऐंकर रही सही सारी कसर पूरी कर देता। एंकर अब स्टेज शो के होस्ट बन चुके हैं। बहस नहीं, बकवास होती है। स्क्रीन के चार खानों में आठ एक्सपर्ट्स, और हर कोई चिल्लाने में एक-दूसरे को हराने में जुटा है। दर्शक सोचता है कि शायद यही सच्चाई है — और इसी सोच को टीआरपी में तब्दील कर दिया जाता है। पर अब अखबार भी सोच चुके हैं कि हम क्यों पीछे रहें? उन्होंने ठान लिया है कि जो काम टीवी कैमरे से नहीं कर पाता, वो हम कागज़ से करेंगे—और ऐसा तेल सोखेंगे, कि समोसा भी शर्मिंदा हो जाए।
अखबारी पत्रकारिता भी समोसे जैसी हो गई
तथ्यों की पड़ताल, निष्पक्षता, और जनता की आवाज़ अब गुजरे जमाने की बातें हैं। अब अखबारी पत्रकारिता भी समोसे जैसी हो गई है—ऊपर से कुरकुरी, अंदर से आलू और मसालों से भरी, और चारों तरफ तेल ही तेल। और संपादकीय? वहाँ तो लेख ऐसे छपते हैं, जैसे कोई शेफ रेसिपी लिख रहा हो। राजनीति में अब काली मिर्च ज्यादा पड़ गई है, थोड़ा धनिया डालिए और मीडिया को धीमी आंच पर पकाइए। अखबारों ने अब विज्ञापनों को ऐसे लपेटा है जैसे समोसे के ऊपर हरी चटनी की पतली परत हो—पता भी न चले कि खबर कहाँ है और प्रमोशन कहाँ से शुरू हुआ। आजकल तो पेड न्यूज़ को भी “स्पेशल रिपोर्ट” कहा जाता है। पत्रकार भी दोहरी भूमिका निभा रहे हैं—सुबह रिपोर्टर, शाम को सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर, और रात को थके-हारे समोसे के साथ सेल्फी।
खबरों में प्रेस रिलीज़ के कॉपी पेस्ट की महक आती है
दिवंगत कवि अशोक पाठक विवश हुए यह लिखने को – “मैं अखबार की आंख को देखता हूं। अखबार की आंख में मोतियाबिंद हो गया है। अखबार का आपरेशन होना चाहिए, जबकि डॉक्टर अखबार पढ़ने में मशगूल है।“ मौजूदा दौर की सच्चाई यही है कि डॉक्टर के चश्मे की मोटाई बढ़ती जा रही है, लेकिन नज़रिया दुबला होता जा रहा है। सच तो यही है कि यह कोई मामूली बीमारी नहीं है, बल्कि एक ऐसी महामारी है, जिसने पूरी पत्रकारिता को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। सत्ता में कोई रहे पहले पत्रकार विपक्ष हुआ करते थे। अब खबरों में प्रेस रिलीज़ के कॉपी पेस्ट की महक आती है। अखबार की आंख अब सत्ता की रोशनी में चौंधिया गई है। आंखें खुली हैं, पर देख नहीं पा रही। कल तक जो पत्रकार सत्ता से सवाल करते थे, अब वही सत्ता के सेल्फी स्टिक थामे घूम रहे हैं। खबरें अब खबरें नहीं रहीं, इवेंट मैनेजमेंट का हिस्सा बन गई हैं।
पत्रकार अब ग्राउंड रिपोर्ट नहीं, ट्वीट करते हैं
कवि और पत्रकार वशिष्ठ मुनि ओझा कहते थे, “जहां कविता शक्ल बदलती है, कुछ न कुछ जरूर होता है।” जाहिर है – पत्रकारिता की भी शक्ल बदल चुकी है। कुछ तो जरूर हो रहा है। अब खबरों में ही नहीं, हेडलाइन में भी सेंसेशन है। किसान भूखा मरे या बेरोजगार आत्महत्या करे — जरूरी ये नहीं कि खबर बने, जरूरी ये है कि कितने लाइक, कमेंट और शेयर मिलेंगे। देश में क्या हो रहा है, जानने के लिए अब जर्नलिज़्म की ज़रूरत नहीं, ट्रेंडिंग हैशटैग काफी हैं। और हां, सोशल मीडिया के “जर्नलिस्ट्स” तो ऐसे हैं, जैसे किसी को भी स्टेथोस्कोप पकड़ा दो और कहो — “अब तुम डॉक्टर हो।” इस अंधेरे में भी कुछ दीये हैं, जो सच्चाई की बात करते हैं, ज़मीनी मुद्दों को उठाते हैं, लेकिन उनकी रोशनी उस मोटे चश्मे से बाहर नहीं जा पाती, जिसे बड़े मीडिया संस्थानों ने धारण कर लिया है।
खबर में जो तेल है, वो आपकी सोच में भी रिस रहा
सच्चाई यही है कि जब तक खबर में नमक-मिर्च न हो, तब तक हमारी अखबारी पत्रकारिता भी उसे ‘ब्रेकिंग’ नहीं मानती। अब ज़रा सोचिए, जिस अखबार में समोसा लपेटा जाता है, वही अखबार जब खुद को ‘तथ्यों का ध्वजवाहक’ कहे, तो हंसी नहीं आएगी क्या? खबरों की साख अब इतनी गिर चुकी है कि पाठक पहले समोसे को देखता है, फिर खबर पढ़ता है। अगली बार समोसे के साथ अखबार आए, तो ध्यान से पढ़िएगा—पता चला, खबर में जो तेल है, वो आपकी सोच में भी रिस रहा हो! आजकल टीवी जर्नलिज्म ने समोसे की चटखारेदार दुनिया में ऐसी दखल दी है कि अखबार वाले भी सोच में पड़ गए हैं—कहीं उनका तेल सोखने का ताज छिन न जाए!
लेखक – विजय शंकर पांडेय