राजकुमार कुम्भज की दो कविताऍं
1
डरा हुआ आदमी —-एक
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डरा हुआ एक आदमी
छड़ी लेकर खड़ा है बीच बाज़ार
गाहे-बगाहे धमका रहा है सभी को
हर आने जाने वाले को दिखा रहा है ऑंखें
उन्हें,जो फूटी ऑंखों नहीं सुहाते हैं उसे
खेत,खलिहान,फ़सल और फ़ैसले
सब कुछ बेच देना चाहता है वह
पत्थर भी,पत्थर के भीतर का पानी भी
पानी की आस्था और श्रद्धा तो बेच चुका
पहले ही बेच चुका मित्रवत मित्रों को
अब वह बेचता है वे वस्तुऍं तमाम-तमाम
बेचारे गुमशुदा विचारों की तरह
जिनके भीतर रहती थी कभी कुछ ओस
और अब आशय आत्मसमर्पण संपूर्ण
डरता है,बहुत-बहुत डरता है अकेले में
और बदल-बदल मुद्राऍं हॅंसता है
डरा हुआ एक आदमी.
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2.
डरा हुआ एक आदमी—दो.
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डरा हुआ एक आदमी
डरते-डरते बदलता रहता है कपड़े
खोलता है,बंद करता है अपनी आस्तीनें
पुरखों से बचाते हुए नज़रें
कुछ सीखता है उल्टा-सीधा
मांजता है चाकू-छुरे-तमंचे-तलवारें
डरा हुआ एक आदमी
बीड़ी-सिगरेट-हुक्का नहीं पीता है
लेकिन जेब में एक माचिस ज़रूर रखता है
जलता है,आग लगाता है आग बुझाने में
बेहतर जानता है वह और कुछ अधिक ही जानता है इन दिनों
जो भूखे हैं वे ही बॅंटेंगे और कटेंगे
क्या मुफ़्त के राशन से किसी तरह बचेंगे
सोचने-समझने से वंचित करता है सब
डरा हुआ एक आदमी
डरे हुए आदमी के पास है कुर्सी ही विचार
इसलिए वृक्षों की हत्या का शोक़ीन वह
तोपें उसकी,तोपची उसके,तोपख़ाने उसके
न्याय उसका,न्यायाधीश उसके,न्यायालय उसके
ख़बर उसकी,मुख़बिर उसके,अख़बार उसके
फिर भी फिर-फिर डरता रहता है वह
बहती नदी के बहते जल से,जॅंगल से,ज़मीन से
दिन-रात हवा में उड़ता है वह
सरपट दौड़ती हवा से डरता है वह
सड़कों पर नाच रहे बच्चों से
मन की बात करते हुए डरता है वह
डरा हुआ एक आदमी.
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