राजकुमार कुम्भज की दो कवितायें

राजकुमार कुम्भज की दो कवितायें

विकास गाथा-एक

 

ये कैसी है विकास गाथा

संकुचित है फिर-भी फिर-भी पुलकित है सब

कलंकित हैं चाँदनी, कलंकित हैं हर माथा

सीढ़ियाँ चढ़ता हूँ, जितनी-जितनी भी

उससे कहीं अधिक, कहीं अधिक उतरता हूँ नीचे

कैसी ट्रैजिडी है नीच

 

कि मैं नहीं नीच, फिर भी हूँ इसी बीच

जहाँ मवाद भरी सड़ांध है, मलकुंड है

शताब्दियों की बदबू का भभका है

चटखारे हैं कि चलते-चलते पांव- पांव

कटते-कटते गांव-गांव मिलते हैं रास्ते

फिर उठते है, उठाते हैं रास्ते ही सिर अपना

मानव पक्ष, निर्बल-निर्मल बहुतै बहुतै

एक धुन लिए पिस्ता जाता हूँ मैं जैसे

एक घुन अन्न के साथ, अन्न के लिए

कछुआ विजेता है तो सिर्फ किताबों में

हर नंबर में हारता है वह अपना जीवन

उछलता है कूदता है फांदता है तो

सो खरगोश ही चलाता है चालाकियाँ

और आपने हक में कर लेता है समूचा सर्कस

सच्चाई है कि ईमानदारी से काटता रहता है

बकरों मेमनों और नागरिकों की गरदनें जरूरी भी

ज़रा भी बेइमानी नहीं है कसाई खाने में

धूमिल होती जाती है हर पहचान हर आग

ठंडी होती जाती है हर चूल्हे की चिंगारी

ना बोली हैं ,ना बोलती हैं दीवारें जो अब बोलेंगी

सख्त पहरेदारी ,पहरेदारी में स्वतंत्र हैं सब

सिंहासन चढ़ा गुलाब इठलाता है पूर्ववत

और चिढ़ाता है सभी को की खिलेंगे तो सिर्फ वही

कुएं में पड़े पत्थर डूबते नहीं,पानी चढ़ता नहीं चढ़ाव

ढलान पर लुढ़क रहे हैं नीति -निर्माता

माताओं के गर्भ में उड़ेला जा रहा है तेजाब

बड़ी फुर्सत से लिखी जा रही है शौर्यतायें

कलम के सिपाही तस्करी में लिप्त हैं

नल में जल नहीं है आज नहीं है, कल नहीं है

चतुर्दिक निंदा का चतुर्दिक साम्राज्य है

जिसकी नहीं दुकान कोई ,वह पक्ष त्याज्य है

अपने कद की हद मैं उठाता हूँ पत्थर

दूर कहीं दूर ,टिमटिमाती है कुछ लालटेनें

अपनी जिद और जद में उठते है कुछ औजार भी

फिर भी दैनिक ज़रूरतों की ज़रूरतें हैं बड़ी

जहाँ-जहाँ भी हाथ उठाता हूँ बिखर बिखर जाता हूँ

बदलना तक कठिन है अब तो

ऊबासियों में ऊब में ध्यानस्थ है संत

और संपादक-संगीतज्ञ भर रहे हैं हुक्का

विचार था कि बदलूंगा मैं बदलेंगे सब

मैं बदला तो बदले पर उतर आई दुनिया

मैं पुल बना तो लोगों ने रोंदा मुझे कुछ इस तरह

कि जैसे मिट्टी रौंदता है कुम्हार

हवाओं के कान भरता है कोई और उजड़ जाता है घोंसला बैया का

मैं लड़खड़ाता हूँ और संभलता हूँ फिर फिर

शौर्य और शोक का करते हुए फर्क

बचना बचाना है ज़रूरी

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 विकास गाथा-दो

 

धोखे से देखा दर्पण तो पाया मैंने

कि घर के भीतर हूँ कितना और घर से बाहर हूँ कितना

और ये भी की कितना पहचानता है घर मुझे

अपने होने ,न होने के अंदेशे में रहता हूँ मैं

और अंदेशा है कि अजनबी होता जा रहा हूँ

जो कुछ ,जैसा कुछ भी, कुछ-कुछ कहता हूँ मैं

वह कुछ और-और,और-और ही

अपने अर्थ-अनर्थ में बदलता जाता है

जो कुछ,जैसा कुछ भी, कुछ-कुछ बोलता हूँ मैं

सुनते हुए भी सुना ही नहीं जाता है

पानी मांगने पर अखबार मिलता है

और वक्त पूछने के लिये घड़ी

मांगने पर छड़ी

इससे बुरा वक्त तो नहीं रहा कभी भी

कितना गया गुजरा होता जा रहा है वक्त

झूठ बोलता है कि चिंघाड़ता है, कांपता है घर

अपने ही घर में मुँह और जुबान छुपाता है सच

मैं ढूंढता हूँ आंखें और आंसू अपने ही घर में

जहाँ हंसना मना है ,रोना माना है, खांसना मना है

भक्ति की युक्ति जीवनदान है अब तो

इस घर की तमाम मामूली चीजों तक को

धोबी-घाट के पत्थरों में बदल दिया है

अब यहाँ कपड़े ही नहीं पंछीटे जाते हैं

वे शब्द भी पंछीटे जाते हैं, कूटे- पीटे जाते हैं

जिनमे बच गया हो ज़रा सा दाग धब्बा विचार का

विचार ना होगा विचार से बलात्कार होगा

और होगा अत्याचार अब घर-घर में

घर-घर में तनेंगीं भृकुटियाँ इस घर के लिए

मैं लडूंगा और हारूंगा अपनी जमीन पर

नींव और छत के संदर्भों का पूछते हुए पता

धोखे से देखा दर्पण तो पाया मैंने

कि जिसे कहते है घर एक तम्बू है कटा-फटा

जिसमे किसिम-किसिम के मसखरे और चिंतक

अपने-अपने नाखूनों से रहे हैं खुरच रहे हैं

कि नोच रहे हैं एक दूसरे का चेहरा

और मैं खोज रहा हूँ अपना चेहरा

चलो कि कहाँ रखा है रखकर भूला मैं टटोलते हुए याददाश्त

घर लाचार है और लाचार हैं घर में रहने वाले सब

सब चाहते हैं अन्न और उन्नति किंतु चुप है

जिम्मेदारी है सबकी और निठल्ले बैठे हैं सब

ओर वे जो सफेदपोश बगुला भक्त चतुर’सुजान बहेलिऐ

गुलछर्रे उड़ाते हुए चाट रहे हैं विचार का आचार

मैं देखता हूँ बार-बार, झेंपता हूं बार -बार

मैं पहचानता हूँ उन्हें वे पहचानते नहीं मुझे

मैं कुछ करता हूँ और डरता हूँ बार -बार

कितना-कितना अजनबी हूँ मैं अपने ही घर में

अपने होने न होने के अंदेशे में रहता हूँ मैं

अपना ही घर तक अब पहचानता नहीं मुझे

धोखे से देखा दर्पण तो पाया मैंने

विकास-गाथा का दौर है कि विनाश-गाथा का

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