राजकुमार कुम्भज की तीन कविताएँ

राजकुमार कुम्भज की तीन कविताएँ

1.

ग्रीष्म का पता

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ग्रीष्म का पता उस मज़दूर से पूछो

जिसकी पीठ से सटा है उसका पेट और पेट से ठेला

किन्तु पीने को दो बूँद पानी,नहीं है जेब में धेला

तपती-तपाती नॅंगी सड़कों पर नॅंगे पैर

चलता-चलता,चला जाता है एकदम अकेला

क़दम-दर-क़दम पीड़ा पाली है

फिर भी चाल जिसकी मतवाली है

बहते पसीने में बच्चों के सपने हैं सच्चे

कच्चे घर में खेल रहे हों जैसे कंचे

चूहे,बिल्ली,छिपकली के नौनिहाल बच्चे

चूल्हा उदास है तो क्यों?

मुफ़लिसी पास है तो क्यों?

घीसी-घीसी-सी आस है तो क्यों?

आज ग्रीष्म की तपन है,ताप है,तो क्या हुआ

कल सावन भी होगा

कुछ तो मनभावन भी होगा

ग्रीष्म का पता नहीं होगा कहीं

अभी अख़बार से हवा करो

और उड़ाओ मज़े.

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ग्रीष्म में मन करता है.

 

ग्रीष्म में

मन करता है

कि अपनी ही कमीज़ फाड़ दूँ

और ज़मीन में तमाम तमीज़ गाड़ दूँ

इधर,इन दिनों,इतना ताप होता है सड़कों पर

कि धधकने लगती हैं, तड़कने लगती हैं हड्डियाँ

किन्तु क्यों हिम्मतें सुलगती नहीं

विरुद्ध-सीनों में…?

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3.

नमकीन लग रहा है ग्रीष्म.

 

इश्तहारों में बरस रहा है पानी

नॅंग-धड़ॅंग होकर सड़कों पर नाच रही हैं लड़कियाँ

अपनी-छतरियाॅं और छातियाॅं तान कर

डंडी लगे बर्फ़ के गोले बेच रहा है

उन्नीस बरस का प्यारे मियाँ ठेले वाला

आज यहाँ कुछ ज़्यादा ही नमकीन लग रहा है ग्रीष्म

चलो यहाँ से चलते हैं

और चलते हैं अकेले-अकेले ही चलते हैं

किसी न किसी छायादार झुरमुट की तरफ़

शायद वहीँ मिलेगा थोड़ा अपना-सा अपना

और थोड़ा-सा सपना.

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