यह सिर्फ आपदा नहीं, कुदरत से खिलवाड़ की नाराजगी है

प्रकृति के कहर से तीनों पहाड़ी राज्य उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर तो बेजार थे ही, बाढ़ की विभिषिका ने पंजाब में ऐसे हालात पैदा कर दिए हैं कि उससे उबरने में इस श्रमशील राज्य को दशकों लग जाएंगे। लेकिन इसके लिए प्रकृति को जिम्मेदार ठहराना उचित नहीं होगा। मनुष्य की खासकर शासन में बैठे लोंगों की अदूरदर्शिता या यों कहें लालच और अपनों को फायदा पहुंचाने की बेवकूफी ने इस विपदा को आमंत्रित किया है। यह लागातार जारी है। इस पर वरिष्ठ पत्रकार और विचारक त्रिभुवन ने अपनी फेसबुक वॉल पर लंबी पोस्ट लिखी है और इसके कारणों को समझने की कोशिश की है। यह केवल भारत में हो रहा है ऐसा भी नहीं है, ऐसी नासमझी पूरी दुनिया के शासक कर रहे हैं, वे क्लाइमेट चेंज के बारे में विचार करने के लिए तैयार नहीं हैं। इसे हर किसी को पढ़ना चाहिए और हम अपने विनाश को क्यों बार-बार निमंत्रण दे रहे हैं, इस पर विचार करना चाहिए क्योंकि यह हमारे सरोकार से जुड़ा है। हम इस आलेख नुमा पोस्ट को प्रतिबिम्ब मीडिया में साभार प्रकाशित कर रहे हैं।

 

यह सिर्फ आपदा नहीं, कुदरत से खिलवाड़ की नाराजगी है

त्रिभुवन

 

पंजाब में आई बाढ़ केवल प्राकृतिक आपदा नहीं है। यह इस धरती के बेहद गंदे इंसान ने कुदरत के साथ जो खिलवाड़ किए हैं, उसका नतीजा है। इस बार तो कुदरत ऐसी नाराज़ हुई है कि उसने सब तार-तार कर दिया।

सच कहा जाए तो यह कुदरती कहर नहीं है। हमारे इस धरती को निचोड़ लेने वाले शक्तिशाली लोगों का रचा हॉलोकोस्ट है। आप वनों पर कहर बरपा रहे हैं। पेड़ों को बिना सोचे-समझे काट रहे हैं। जीव-जंतुओं के समस्त आश्रय खत्म कर रहे हैं। धरती की कोख को छलनी कर रहे हैं। कोई पेट्रोल निकाल रहा है। कोई कोयला निकाल रहा है। किसी को सुंदर सम्मोहक पत्थर चाहिए। लोग राम और कृष्ण का नाम लेते नहीं अघाते; लेकिन क्या हुआ कृष्ण के गोवर्धन पर्वत का। क्या हुआ उन वनों का जहाँ सीता, राम और लक्ष्मण चौदह साल रहे?

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आज हम सब दुनिया के इस सबसे खूबसूरत देश को हिटलर की जर्मनी का वह हिस्सा बना रहे हैं, जहाँ हॉलोकोस्ट हुआ। मानो यह सब अब दोहराया जा रहा है। इसके लिए कोई एक पार्टी जिम्मेदार नहीं। सबकी सब हैं, जो सत्ता में यहाँ-वहाँ पिछले बीस-तीस साल से बिखरी हुई हैं। ऐसा लगता है, हॉलोकोस्ट दोबारा घटित हुआ हो। बस अब पीड़ित यहूदी नहीं, किसान, मज़दूर और ग्रामीण परिवार हैं। खेत-खलिहानों में डूबती फसलें वैसी ही हैं जैसे गैस चैंबरों में घुटती साँसें। बच्चों के स्कूल बैग, बिस्तर, गाय-भैंसें और अधपके धान सब बह गए।

मैंने जब पंजाब के अख़बारों में सांकलों से बंधी भैंसों को दम घुटकर दीवारों पर आधा इधर और आधा उधर लटके हुए देखा तो सचमुच मैं रो पड़ा था। ये जीभ बाहर आई और आंखें बाहर गिरने को आतुर। यह सब सवाल कर रहे थे कि अरे ओ बेग़ैरत पागल इन्सान, क्या तू सोचता है कि तेरी हालत ऐसी नहीं होगी? यह दृश्य इतना विचलित कर रहा था कि कह नहीं सकता। ऐसा लग रहा था कि भैंसों का यह हाल नहीं है, मानव सभ्यता डूब रही है। यह वह अंधकार है, जहाँ सभ्यता की रोशनी लुप्त हो जाती है और केवल मानव की करुणा ही अंतिम मोमबत्ती बनकर जलती है।

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हम अभी क्या हिसाब लगाएंगे? यही न कि इसका आर्थिक प्रभाव क्या पड़ा? खेती, रोज़गार और आपूर्ति शृंखला का क्या हुआ? यानी फ़सलों का कितना विनाश हुआ। लगभग चार लाख एकड़ फसल डूब गई। पंजाब देश के गेहूँ और चावल के प्रमुख आपूर्तिकर्ताओं में है। यहाँ की बर्बादी का सीधा असर 80 करोड़ उपभोक्ताओं पर पड़ेगा जो आटा, चावल और अनाज पंजाब-हरियाणा से प्राप्त करते हैं।

किसानों की आय पर चोट हुई है। किसान ऋण में दबे हुए थे। अब फ़सल डूबने से उनकी वापसी क्षमता और कमजोर होगी। यह स्थिति ऋण-अवसाद-आत्महत्या चक्र को और गहरा कर सकती है।

ग्रामीण मज़दूर वर्ग तबाह हो गया है। खेतों में दिहाड़ी पर काम करने वाले लाखों मज़दूरों का रोज़गार ठप हो गया। बाढ़ के कारण गाँवों में कृषि श्रम की मांग घट गई है और मज़दूर रोज़ाना भूख और बेरोज़गारी का सामना कर रहे हैं।

सप्लाई चेन और कीमतें ध्वस्त हो गई हैं। फ़सलों की बर्बादी से देशभर में अनाज के दाम बढ़ सकते हैं। मंडियों तक पहुँचने वाले रास्ते कट गए, जिससे सप्लाई चेन टूट गई और व्यापारियों ने भंडारण से मुनाफ़ा कमाने की प्रवृत्ति शुरू कर दी है। क्या क्षति इतनी भर है?

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लेकिन मानवीय पीड़ा और दर्द की गवाही का क्या ही कहा जाए।

बेघर और विस्थापित परिवारों का दर्द कौन जाने? लाखों लोग बेघर हो गए। घरों की दीवारें ढहीं, फर्नीचर पानी में बह गया और बच्चों को स्कूल छोड़कर अब राहत शिविरों की ज़िंदगी जीनी पड़ रही है।

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मैंने देखा, पाकिस्तान के मुलतान और पंजाब में तबाही है। ननकाना साहब डूब रहा है। भारतीय पंजाब हरियाणा के बुरे हाल हैं। हमने अपनी सुविधाओं से धरती को बांट लिया है। लेकिन यह धरती तो एक है। नदी तो उसकी धमनी है। बादल तो उसका बच्चा है। किसे कहां रोकोगे? एआई रोकेगी? वह तो आ रही है अभी तुम्हारा कंठ और कसेगी।

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हमारे यहाँ बाँसवाड़ा और डूंगरपुर में शिक्षक बलबलाती नदी की उफनती धाराओं को पार करके स्कूल जा रहे हैं।

आप देखिए कि कितने संवेदनशील मुख्यमंत्री, गांधीवादी, हिंदुत्ववादी, समाजवादी, अंत्योदयवादी और जाने कैसे-कैसे रह चुके। उस आदिवासी इलाके का सीएम रह चुका। लेकिन इस संवेदनहीन और राजनेताओं के हाल को देखिए कि आज भी स्कूल जाने के लिए विद्यार्थी और शिक्षक तैरकर जाते हैं। यह कोई हाल है? कालीबाई के आप गीत गाएँगे। लेकिन पता चला कि कालीबाई आज भी तैरकर नदी पार कर रही है। आप हिंदू की रक्षा में जुटे हैं। पता चला, हिंदू ही डूब रहा है उस नदी में।

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आदिवासी आईएएस और आदिवासी राजनेताओं का पूरा एक फौज-फाटा है। लेकिन आदिवासी डूब रहा है। तबाह हो रहा है। धर्मनिरपेक्ष आ गए। चले गए। फिर आने की उम्मीद में हैं। आदिवासी को हिंदू मानने के लिए लड़ बैठने वाले शासन कर रहे हैं। लेकिन आदिवासी डूब रहा है।

मुझे लगता है कि यह सब एक-दूसरे को निशाने पर लेकर नहीं, सबको विधानसभा में बैठकर एक-दूसरे के गुस्से, क्रोध और नाराज़गियों को झेलकर हल करने की चीज़ है। पंजाब विधानसभा स्पीकर कुलतार सिंह संधवां और हमारे स्पीकर वासुदेव देवनानी साहब को तत्काल इस इश्यू पर सारे के सारे विधायकों को बिठाना चाहिए। उन्हें एक सप्ताह तो एक-दूसरे को गाली-गलौज और अगले एक सप्ताह एक-दूसरे के साथ हाथापाई के लिए राउंड-द-क्लॉक का समय देकर स्वतंत्र रखना चाहिए ताकि तीसरे हफ़्ते में सब मिलकर बैठकर इस तरह की पूरे राज्य की समस्या पर बात करें। इसके अलावा इसका कोई हल नहीं।

यही संसद में ओम बिड़ला साहब और राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश को करना चाहिए। हरिवंश तो अपने अखबार के माध्यम से राजनेताओं को संदेश दिया ही करते थे, जिन्हें अब वे संभवतः भूल गए हैं। मैं मज़ाक नहीं कर रहा, न उपहास उड़ा रहा हूँ। सदन में गाली-गलौज और मारपीट टूटकर नहीं, अटूट और मूसलधार ही हो ताकि अंततः थक-हारकर शांत होने के लिए थोड़ा अधिक समय चाहिए। अरे माननीयों, आपको लोगों ने चुनकर भेजा है और आप समस्याओं का हल किए बिना लौट आते हो। एक लोकसभा अध्यक्ष और विधानसभा अध्यक्ष को इतना तो कर ही डालना चाहिए। इस देश का लोकतंत्र उन्हें पूजेगा।

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मानसिक त्रासदी की कोई सीमा नहीं। तीन-तीन रात तक न सो पाने वाले किसान परिवार वही कहानी बयान करते हैं जो कभी हॉलोकोस्ट में बचे हुए लोग कहा करते थे: “हमारे पास सब कुछ था, और एक ही झटके में सब छिन गया।”

पशुओं की मौत और विस्थापन: पंजाब के दूध उत्पादन पर भी सीधा असर हुआ। कई पशु बह गए; कुछ पाकिस्तान तक बहकर पहुँचे और वहाँ की जनता ने उन्हें लौटाया। यह मानवता की साझा करुणा की गवाही है।

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अभी पंजाब में बीजेपी और आरएसएस के लिए लंबे समय तक काम कर रहे मेरे एक मित्र बता रहे थे कि हिमाचल के भूस्खलन पर तुरंत प्रधानमंत्री और गृहमंत्री की संवेदना व्यक्त हुई; लेकिन पंजाब की बाढ़ और मृतकों पर एक ट्वीट तक नहीं आया। राहत पैकेज की घोषणा भी अनुपस्थित रही। यह चुप्पी जनता को यही संदेश देती है कि नीतिगत राजनीति मानव पीड़ा से ऊपर रखी गई है। वह बता रहे थे कि लोगों को ऐसा लग रहा है कि केंद्र सरकार किसान आंदोलन की खुन्नस पंजाब से निकाल रही है और वह भी ऐसे हालात में। वे बता रहे थे कि ऐसा नहीं ही होगा। कोई भी राजनेता इतना संकीर्ण तो नहीं हो सकता। लेकिन संदेश यही जा रहा है।

वे बता रहे थे कि इस समय क्षेत्रीय असमानताएँ और सामाजिक पहल का भी हाल ठीक नहीं है। राजस्थान और हरियाणा सरकारें पंजाब की मदद में पीछे हैं, जबकि ये राज्य इसी पंजाब के पानी से अपनी जीवन-रेखाओं को सींचते हैं।

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आम जनता, चाहे वह राजस्थान-हरियाणा की हो, खुले दिल से मदद कर रही है। इससे साबित होता है कि जनता की इंसानियत सरकारों की राजनीति से कहीं बड़ी है।

हम नारे लगाते हैं—वसुधैव कुटुंबकम् के। हर दिन राष्ट्रवाद का समवेत गगनभेदी गान करते हैं। लेकिन हमारा राष्ट्र अगर संकीर्णताओं में सिमट जाएगा तो वह राष्ट्र कैसे रहेगा?

यह कालिदास का भारत है। यह शंकराचार्य का भारत है। यह गोरख, नानक और कबीर का भारत है। यह दयानंद का भारत है। यह गांधी का भारत है। यह मीरा और लक्ष्मीबाई का भारत है। यह भगत सिंह, अशफाक, राजगुरु और सुखदेव, सुभाष का भारत है। आप इस भारत के किसी अंग विशेष को ऐसे कैसे उपेक्षित कर सकते हैं।

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इस समय दरअसल पूरी दुनिया में क्लाइमेट चेंज का सबसे बड़ा खतरा है और यह ख़तरा कृषि को है। कृषि यानी भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़, हृदय और शीश। और सच यह है कि आज की बाढ़ कुदरती कहर नहीं है, जैसा कि टीवी चैनलों पर बताया जा रहा है। यह बाढ़ “मैनमेड” है—अत्यधिक बाँध निर्माण, अनियोजित नहरें, भूमि उपयोग में अव्यवस्था और पुरानी नैसर्गिक नदियों को खत्म करके उनकी जगह खेती, विकास योजनाएँ और शहरों का निर्माण। और ग्लोबल वार्मिंग का कहर इसे मनुष्य-नियंत्रण से बाहर किए दे रहा है।

प्रकृति के साथ निरंतर खिलवाड़ का यह परिणाम है कि अब वह रौद्र रूप में हमें दंडित कर रही है। जिस प्रकार महान लेखक प्रीमो लेवी ने कहा था, “इतिहास गवाह है कि मानव अपनी भूलों को भूलकर उन्हें दोहराने पर मजबूर है,” वैसे ही यहाँ भी हम प्रकृति की अवहेलना कर वही गलती कर रहे हैं। कुछ इसी तरह के तर्क रोमानियाई मूल के अमेरिकी लेखक एली विज़ेल देते हैं।

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यह बाढ़ केवल पानी, बारिश या समंदरों का पगला बहाव भर नहीं है। यह मानव सभ्यता की विफलता की दारुण कहानी है। पंजाब से लेकर बाँसवाड़ा तक के खेतों में बहता पानी हमें चेतावनी देता है कि यदि हमने कुदरत को नाराज़ किया तो अगला कदम केवल अनाज की कमी नहीं, भूख और विस्थापन का हॉलोकोस्ट होगा।

हमें चाहिए कि हम इस त्रासदी को राजनीतिक बदले और प्रशासनिक चुप्पी में न दबाएँ, इसे मानवीय करुणा और पर्यावरणीय न्याय के साथ देखें। छोटी और तात्कालिक संकीर्णताओं में नहीं फँसें। हमें मानवता और कुदरत पर टूटते इस कहर से मुकाबला करना है। अब हमें विभाजन, अन्याय, अलोकतांत्रिकता और सांप्रदायिक विष की राजनीति से दूर हटकर काम करना चाहिए। नहीं तो अगले दस-बीस साल में आपकी कॉरपोरेट अट्टालिकाओं में समंदर के उफान से उठी कोई लहर समेट ले जाएगी और फिर किसी अगले युग में आपकी डूबने से बची कोई संतति जयशंकर प्रसाद के स्वरों में अफ़सोस के साथ गाएगी:

हिम गिरि के उत्तुंग शिखर पर,

बैठ शिला की शीतल छाँह।

एक पुरुष, भीगे नयनों से,

देख रहा था प्रलय प्रवाह।

नीचे जल था, ऊपर हिम था,

एक तरल था, एक सघन।

एक तत्व की ही प्रधानता

कहो उसे जड़ या चेतन।

दूर-दूर तक विस्तृत था हिम,

स्तब्ध उसी के हृदय समान।

नीरवता-सी शिला-चरण से

टकराता फिरता पवमान।

तरुण तपस्वी-सा वह बैठा,

साधन करता सुर-श्मशान।

नीचे प्रलय सिंधु लहरों का

होता था सकरुण अवसान।

लेखकः त्रिभुवन

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