- महेश राजपूत
-तो चंदे का छापेमारी से कोई लेना – देना नहीं है?
-बिल्कुल नहीं है, जी। ईडी पहले भी था, आज भी है और कल भी रहेगा।
-ईडी बोले तो एक्सटोर्शन डिपार्टमैंट?
-आप भी न बड़े बदमाश हैं। डायरेक्टोरेट अॉफ एन्फोर्समेंट।
-ओके। तो आपके अनुसार क्रॉनालाजी क्या हुई। पहले कारपोरेट ने चंदा दिया, उसके बाद ईडी ने छापेमारी की?
-मैंने ऐसा नहीं कहा कि ऐसा हुआ। मैंने कहा कि मान लीजिए ऐसा हुआ हो तो?
-ओके। ये जो “तुम मुझे चंदा दो, मैं तुम्हारा धंधा चमकाऊंगा” की क्रॉनालाजी क्या है? पहले कोई कंपनी चंदा देती है, फिर उसे कांट्रैक्ट मिलता है। यही न?
-देखिये जी, आप गलत समझ रहे हैं।
-बोले तो पहले कांट्रैक्ट मिलता है और कांट्रैक्ट मिलने की खुशी में कंपनियां चंदा देती हैं? जैसे दिवाली पर अपने कर्मचारियों को सोनपापड़ी देती हैं?
-आप बहुत बड़े बदमाश हैं! अभी किसने किसको कब चंदा दिया यह पता नहीं है इसलिए यह सब अनुमान लगाने वाली बातें हैं। वैसे भी हमारी पार्टी से ज्यादा चंदा विपक्षी पार्टियों को मिला है। बीस हजार करोड़ में से हमें केवल छह हजार करोड़ मिले हैं, चौदह हजार करोड़ विपक्षी दलों को।
-जी।
-सांसदों की संख्या के आधार पर देखें तो सबसे कम चंदा हमारी पार्टी को मिला है।
-यह तो बड़ी नाइंसाफ़ी हुई है। और सदस्यों की संख्या के आधार पर देखा जाए तो ग्यारह करोड़ सदस्य हैं। उस हिसाब से तो यह चंदा चिड़िया का चुग्गा भी नहीं है। नंगा नहायेगा क्या, निचोड़ेगा क्या?
-आप हमारा मज़ाक उड़ा रहे हैं?
-बिल्कुल नहीं। मेरी ऐसी मजाल? मैं तो कहूंगा, चंदे का अनुपात आपके 600 करोड़ मतदाताओं की संख्या के आधार पर देखा जाए तो यह और भी बड़ी नाइंसाफ़ी है।
-अब आप लक्ष्मण रेखा पार कर रहे हैं।
-सॉरी। एंटी नेशनल तत्व इस पर भी सवाल उठा रहे हैं कि ऐसा कैसे हो रहा है कि कोई कंपनी कमाती चवन्नी है, पर चंदा चार रुपये देती है।
-इसका जवाब मैं कैसे दूं? वैसे भी आप अपने उल्टे-सीधे सवालों से मेरा बहुत समय ज़ाया कर चुके हैं। चुनाव की घोषणा हो चुकी है, मुझे पार्टी की बैठक में जाना है। इंटरव्यू समाप्त।